सत्ता-परिवर्तन मधेशी समस्या का निदान नहीं

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मधेशी

madheshiश्वेता दीप्ति

काँग्रेस अधिवेशन की समाप्ति के साथ ही नेपाल की राजनीति को लेकर इन बदलती परिस्थितियों में कई कयास लगने शुरु हो गए हैं । भारत के उच्चस्थ पदाधिकारियों का नेपाल आगमन और उससे राजनीतिक गलियारों में बढ़ी हुई सरगर्मी एक अलग ही वातावरण तैयार कर रहा है । जिसमें सबसे अधिक अगर कुछ चर्चा में है तो वह है सत्ता परिवर्तन की बढ़ती सम्भावना । लैनचौर की हवा दो दिशाओं में बह रही है, एक दिशा यह कह रही है कि नेपाल में सत्ता परिवत्र्तन होनी चाहिए, दूसरी इसी पार्टी को स्थायित्व प्रदान करने के पक्ष में है ।

वैसे भारत के रुख को बहुत हद तक प्रधानमंत्री ओली के भारत भ्रमण ने पहले ही जता दिया है कि भारत की नेपाल के प्रति विदेश नीति कुछ तो परिवर्तित हुई है, जिसका असर भारतीय बजट में भी स्पष्ट दिखा । यह दीगर है कि प्रधानमंत्री ओली अपनी भारत यात्रा से उत्साहित नजर आ रहे थे, पर जो परिणाम सामने आया वह सच बता गया । परन्तु नेपाल के सन्दर्भ में सबसे अधिक ज्वलन्त प्रश्न अगर कुछ है तो वह यह है कि, सत्ता परिवर्तन क्या नेपाल की आन्तरिक समस्या का निदान दे सकती है ? नेपाल, मधेश आन्दोलन को लेकर पिछले सात आठ महीने से जिस उथलपुथल की दौर से गुजर रहा है, क्या सत्ता परिवत्र्तन उसका समाधान है ? फिलहाल जो फिजा बता रही है, उससे तो साफ जाहिर हो रहा है कि वर्तमान में सत्ता परिवर्तन की कोई मजबूत सम्भावना नहीं दिखती है क्योंकि एमाले की पकड़ सत्ता पर कायम नजर आ रही है और प्रधानमंत्री की चीन यात्रा कमोवेश नेपाल की सत्ता पर उनकी पकड़ को मजबूती ही प्रदान करेगा । जहाँ तक मधेश आन्दोलन का सवाल है तो उसके लिए भी एमाले का सत्ता में बने रहने की आवश्यकता ज्यादा नजर आ रही है । मधेश के अधिकार और सीमांकन के सवाल पर संविधान संशोधन की आवश्यकता है, जिसके कम या ज्यादा अगर सम्बोधित होने की सम्भावना दिख रही है तो वह वत्र्तमान सरकार में ही सम्भव है । क्योंकि एमाले अगर सत्ता से हटती है, तो नेपाली काँग्रेस की सरकार बनेगी और अगर नेपाली काँग्रेस सत्ता में आती है तो, उसकी सबसे पहली कोशिश होगी मधेशी मोर्चा के नेताआें को खुद के पक्ष में लाना, उन्हें यह आश्वासन देना कि वो मधेश के हक में संविधान संशोधन करेंगे, जिसमें वो कामयाब भी हो सकती है क्योंकि, मधेशी नेताओं का भी आज तक का इतिहास यही बताता है कि इनके लिए सत्ता और पद कितना अधिक मायने रखता है । मधेशी नेताओं का समर्थन या सत्ता में शामिल होना इन दोनों ही परिस्थितियों में मधेश आन्दोलन स्वतः कमजोर हो जाएगा । यहाँ मधेशी मोर्चा की तटस्थता मायने रखती है । अगर वो काँग्रेस का समर्थन करती है तो उन्हें मधेश की जनता को यह यकीन दिलाना होगा कि वह किस आधार पर काँग्रेस को समर्थन दे रहे हैं ? मधेश की जनता आज भी शांत नहीं हुई है ऐसे में मधेशी नेताओं का एक गलत निर्णय मधेश को आग के ढेर पर ला खड़ा करेगा । क्योंकि यह तो निश्चित है कि अगर एमाले सत्ता से बाहर होती है तो वह किसी भी हालत में संविधान संशोधन नहीं होने देगा । इस परिस्थिति में मधेशी मोर्चा को या मधेशी नेताओं को मधेश के हक में निर्णय लेने की आवश्यकता होगी । क्योंकि उनका एक गलत फैसला मधेश आन्दोलन को ही नहीं मधेशियों को भी उद्वेलित कर सकता है ।

इसी बीच सूत्रों के अनुसार भारतीय दूतावास द्वारा आयोजित भोज में नेपाल के विभिन्न क्षेत्र से आमंत्रित बुद्धिजीवियों में से एक लिखित पत्र विदेश सचिव एस. जयशंकर को दिया गया है । जिसमें मधेश की समस्या और नेपाल सरकार की मधेश के प्रति के विभेद को दर्शाया गया है और मधेश के अधिकारों के लिए मधेश आन्दोलन की अपरिहार्यता पर बल दिया गया है । पत्र में यह भी यह भी आशा व्यक्त की गई है कि भारत सरकार और भारत की जनता इसमे अपना सहयोग अवश्य करेगी । पत्र में वर्तमान संविधान में प्रतिनिधित्व को लेकर जो अस्पष्टता है उसे भी बताया गया है । पत्र में उल्लेखित है कि संविधान के पहले संशोधन के रूप में उच्च सदन में प्रतिनिधित्व का सवाल अब तक परिवर्तित नहीं किया गया है । मौजूदा प्रावधान के अनुसार सभी प्रांतो द्वारा उच्च सदन के लिए प्रतिनिधियों की संख्या(आठ) बराबर बराबर भेजी जाएगी । जिसके अनुसार प्रांत २ जिसमें ५४लाख आबादी है, वहाँ से भी आठ प्रतिनिधि और प्रांत ६ जिसकी १५लाख आबादी है, वहाँ से भी आठ प्रतिनिधि उच्च सदन में भेजे जाएँगे जो अपने आप में अवैज्ञानिक है और सरकार के दोहरे चरित्र और वर्चस्व की नीति को ही परिभाषित करता है । अगर यह ज्यों का त्यों कार्यान्वयन होता है तो सदन में कभी भी मधेशी जनता या नेता अपनी सही उपस्थिति दर्ज नहीं कर पाएँगे और वो हमेशा अल्पमत में ही रहेंगे । पत्र में इन्हीं महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यानाकर्षण कराया गया है ।

जहाँ तक मधेश की वर्तमान अवस्था का सवाल है तो मधेश आज भी चिंगारियों की ढेर पर खड़ा है क्योंकि, मधेश आज भी सरकारी निकायों के द्वारा परेशान हो रहा है । मधेशी मोर्चा के कार्यकर्ताओं को बेवजह के आरोपों में गिरफ्तार किया जा रहा है । इतना ही नहीं इस बीच प्रधान सेनापति का विवादास्पद बयान भी सामने आ रहा है जहाँ मधेश में सेना परिचालन की बात कही गई थी । ये और बात है कि व्यक्तिगत तौर पर उन्होंने खंडन किया है किन्तु इसकी सार्वजनिक रूप से कोई पुष्टि नहीं की गई है । प्रधान सेनापति का यह वक्तव्य आगामी दिनों में मधेश की होनेवाली स्थितियों का दर्शा रहा है कि कल हो ना हो मधेश छावनी में परिवर्तित होने वाला है, बहाना सी.के.राउत का हो या इसकी आड़ में सम्भावित मधेश आन्दोलन की बात हो ।

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  1. 2004 में युपिए सरकार सत्ता में आई, और २००५ में उसने मावोवादी,एमाले,कांग्रेस एवं अन्य दलों के बीच दिल्ली में समझौता कराया जो माओवादीयों के नेपाल में सत्ता में आने का कारण बना. इन दलों ने नेपाल की जनता, भारत और अन्तराष्ट्रीय समुदाय को आश्वस्त किया की वे नेपाल के सभी क्षेत्रो के लोगो के लिए न्यायपूर्ण संविधान लाएंगे. लेकिन अंततः नेपाल के इन मुखौटाधारी नेताओ ने मधेस एवं जनजातियो के राजनितिक अधिकार देने के सवाल पर उन्हें कई तरह से धोखा दिया. दरअसल नेपाल के मावोवादी,एमाले,कांग्रेस एवं अन्य दल ने सिर्फ मधेस को धोखा नहीं दिया बल्कि भारत के लिए भी प्रश्न चिन्ह खड़ा किया है. पिछले १२ वर्षो से भारत में विदेश निति बनाने में प्रभावकारी भूमिका में रहने वाले नव-नक्सली बुद्धिजीवीयों ने क्या नेपाल में जानबुझ कर गलत लोगो को सहयोग किया.

  2. भारत में लोग नेपाल को अंगरेजी अखबारो के चश्मे से देखते है, वे अखबार वह नही छापते, वे अपने आकाओ के अनुकूल निर्णय हो इस लिहाज से सुचना संप्रेषित करते है, खबरे बनाते है. कुछ है वैदिक जी जैसे जो न तो नेपाल जाते है और न पाकिस्तान, बस कल्पना के सहारे लिख देते है. ऐसे में श्वेता दीप्ती का लेख ठंडी हवा के झोंके की तरह है. एक एक वाक्य तथ्यपूर्ण है.

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