जोशी मठ की स्थिति रातों रात इस तरह की नहीं है बनी!

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क्या प्रशासनिक तंत्र सालों से ध्रतराष्ट्र की भूमिका में रहा! देश भर में इस तरह के स्थल करने होंगे चिन्हित

लिमटी खरे

उत्ताराखण्ड में आदि शंकराचार्य की तपोभूमि जोशी मठ पर वर्तमान में जिस तरह का संकट मण्डरा रहा है उसकी कल्पना शायद ही किसी ने की हो। साल दर साल प्रकृति के साथ होने वाले खिलवाड़ का ही नतीजा है कि वर्तमान में जोशीमठ में जान के लाले पड़ते नजर आ रहे हैं।

पृथ्वी सहित समूचा ब्रम्हाण्ड कितना पुराना है यह कहना बहुत ही मुश्किल है। अरबों साल से सूर्य, पृथ्वी एवं सौर मण्डल के अन्य ग्रहों सहित ब्रम्हाण्ड का हर ग्रह अपनी निश्चित अवस्था में चलता आ रहा है। सभी के बीच संतुलन बराबर ही बना हुआ है। इन सबमें पृथ्वी पर ही सारे संतुलन दशकों से बिगड़ते नजर आ रहे हैं। बीसवीं सदी में 1950 के बाद विकास का क्रम आरंभ हुआ, पर इस विकास में न जाने कितनी वर्जनाओं को ध्वस्त किया गया है जिसका नतीजा आज सामने आता दिख रहा है।

जोशी मठ जैसे न जाने कितने शहर होंगे जो पर्वत की ढलान पर बसाए गए होंगे। जब इनमें गिने चुने मकान हुआ करते होंगे तब तक तो सब कुछ ठीक ठाक ही रहा होगा, किन्तु पैसा कमाने की अंधी चाह के चलते इन जगहों का जब व्यवसायीकरण होना आरंभ हुआ तब यहां संतुलन बिगड़ता दिखा। यह सब देखकर भी सरकारी नुमाईंदे और हुक्मरानों ने आंखों पर स्वार्थ का चश्मा लगा लिया होगा।

जोशीमठ के बारे में जो जानकारियां सामने आईं हैं उनके अनुसार आठवीं सदी के आदि शंकराचार्य के द्वारा यहां एक पीठ की स्थापना की गई थी। जोशीमठ एक एतिहासिक स्थल है और सनातन धर्म के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण स्थल है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। 1870 के आसपास यहां की आबादी महज 455 के करीब थी। कालांतर में यह आबादी 25 हजार के लगभग पहुंच गई।

सत्तर के दशक के आरंभ में 1970 में जोशी मठ में जमीन धसने की अनेक घटनाओं के सामने आने के बाद 1976 में गढ़वाल संभाग के तत्कालीन संभागायुक्त एम.सी मिश्रा के नेतृत्व में डेढ़ दर्जन लोगों की समिति इसकी जांच के लिए गठित की गई थी। इस समिति के द्वारा दी गई रिपोर्ट में उस वक्त ही साफ तौर पर बता दिया गया था कि जोशीमठ सहित आसपास के क्षेत्र में रिसाव, जमीन धसने की घटनाओं में वृद्धि हो सकती है इसको रोकने लिए इस क्षेत्र में वृक्षारोपण का मशविरा दिया गया था।

इसके अलावा जोशीमठ की पानी की निकासी के लिए मुकम्मल व्यवस्था करने की बात भी कही गई थी, क्योंकि यह समूची बसाहट भुरभरी जगह पर थी। 1976 के बाद 46 सालों में न जाने कितने कलेक्टर, कमिश्नर वहां तैनात रहे होंगे, न जाने कितने कांक्रीट जंगल (भवन आदि) का निर्माण हुआ होगा, पर एम.सी. मिश्रा समिति की रिपोर्ट पर किसी ने ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा। साढ़े चार दशकों तक यह सब तब होता रहा जबकि यह क्षेत्र सिस्मिक संवेदनशील क्षेत्र क्रमांक 05 में रखा गया है, जिसमें भूकंप और भूस्खलन का खतरा ज्यादा ही रहता है।

जोशीमठ के आसपास का क्षेत्र भगवान बद्रीविशाल के बद्रीनाथ धाम का प्रवेश द्वार भी माना जाता है। इस स्थान से सिख समुदाय के प्रसिद्ध गुरूद्वारे हेमकुण्ड साहेब की यात्रा भी आरंभ होती है। इतना ही नहीं यूनेस्को के द्वारा सहेजी गई विश्व की विरासतों की फेहरिस्त में शुमार फूलों की घाटी का भी इसे प्रवेश द्वारा माना जाता है।

देखा जाए तो जोशी मठ में वर्तमान में जिस तरह से पानी जमीन फाड़कर बाहर निकलता दिख रहा है वह बहुत ही चिंतनीय बात मानी जा सकती है। वैसे भी गुरूत्वाकर्षण के नियम के अनुसार पानी ढलान की ओर बहता है, पर अगर पानी जमीन से निकलकर सतह पर आ रहा है इसका मतलब साफ है कि उन स्थानों पर संतुलन नहीं के बराबर ही रह गया है।

उत्तराखण्ड के जोशीमठ शहर में क्षतिग्रस्त आवासों की तादाद 723 तक पहुंच चुकी है। इसके अलावा अब जोशीमठ से लगभग 82 किलोमीटर दूर चमोली जिले के दक्षिण पश्चिम क्षेत्र में कर्णप्रयाग और लैण्डोर में भी कुछ मकानों में दरार आने की खबरें आ रही हैं। इतना ही नहीं, अलकनंदा और पिंडर नदी के संगम पर बसे

सवाल यही है कि क्या यह सब कुछ रातों रात हुआ है! जाहिर है नहीं, फिर जिन परियोजनाओं को अब आनन फानन रोका गया है, उन परियोजनाओं को स्वीकृति देते वक्त जिम्मेदार लोगों के खिलाफ क्या कार्यवाही की जाएगी। जोशी मठ मे माऊॅट व्यू और मलारी होटल आपस में टकराने की स्थिति में आ चुके हैं। चार पांच मंजिला होटल क्या रातों रात खड़े हो गए! इस तरह के निर्माण के लिए स्वीकृति देने वालों के खिलाफ क्या कार्यवाही की जाएगी!

यह बात भी सच है कि जोशी मठ और आसपास के क्षेत्रों में बड़ी तादाद में सैलानी पहुंचते हैं, जिससे क्षेत्र में रोजगार के साधन मुहैया होते हैं, पर क्या रोजगार के साधनों को इस कीमत पर मुहैया कराना उचित है! जब वहां आबादी ही नहीं रहेगी तब वहां कैसा रोजगार रहेगा!

आज आवश्यकता इस बात की है कि जोशी मठ जैसे अन्य क्षेत्रों को चिन्हित किया जाए और समय रहते उन क्षेत्रों में आवश्यक उपाय आरंभ कर दिए जाएं अन्यथा पहाड़ी क्षेत्रों, चाहे वे पहाड़ मैदानी इलाकों में हों अथवा पूर्वोत्तर या उत्तर भारत में, हर जगह इस तरह की आपदाओं से कभी न कभी दो चार होना पड़ सकता है।

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लिमटी खरे
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