वर्तमान आर्थिक संकट अथवा सांस्कृतिक घुसपैठ

economic-slowdownशीर्षक पढ़कर अजीब लग रहा हैं न! आप सोच रहे होंगे कि आर्थिक जगत की बातों का संस्कृति से क्या सम्बन्ध? सच तो यही हैं कि भारतीय बाजार की आर्थिक मंदी वास्तव में भारत का संकट ही नही हैं। यह उन अल्पसंख्यक उच्च वर्ग तथा उच्चतर मध्यवर्ग के लिए खतरे की घंटी हैं जो सांस्कृतिक घुसपैठ को मौन रूप से स्वीकार चुके हैं। पाश्चात्य देशों के मूल्यों से लेकर उनके जीवन की छोटी से छोटी आदतें आज हमारे लिए अनुकरणीय हो गई है। गाँव -गाँव तक इस सांस्कृतिक फिसलन का प्रभाव आंशिक रूप से ही सही पर दिखने जरुर लगा है। भले ही आज भी बहुसंख्यक परम्परावादी या रुढिवादी हम पढ़े लिखो की नज़र मेंसमाज इससे पूर्णतः प्रभावित नही है,  और यही वजह है, संसार की वर्तमान महाशक्ति अमेरिका के आर्थिक सकत का कुछ बहुत ज्यादा असर हमारी अर्थव्यवस्था पर नही है।

ऊपर की थोडी बहुत बातों को समझने के लिए पूर्व और पाश्चात्य के मध्य का अन्तर जानने की कोशिश नितांत आवश्यक है। भौगोलिक और संस्कृतक रूप से विपरीत होने के कारण यहाँ और वहां की जीवन शैली तथा जीवन मूल्य बिल्कुल ही अलग -अलग है। पश्चिम में मनुष्य इस बात पर बल देता है या यूँ कहें कि इसी चेष्टा में जीता है कि अधिकाधिक वैभव संग्रह कर उसका उपभोग कर ले बस जबकि, भारत में निरंतर अपनी जरूरतों को कम से कम रखने की परम्परा रही है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था -“पूर्व और पाश्चात्य का यह द्वंद ,यह पार्थक्य अभी सदियों और चलेगा। “हमारे और उनके बीच की विषमता के सूत्र एक मात्र इसी भोग -उपभोग की दर्शन (थ्योरी) से संचालित होती है। एक चीज बिल्कुल स्पष्ट कि ये महज कहने और आत्मविभुत होते की बात नही है बल्कि अमेरिका में जो कुछ घटित हुआ उसके मूल में जाने पर इस की पुष्टि होती है। भोग-विलास वादी स्वभाव के कारण (जो आधुनिक बाजारवाद ने नए तरीके से प्रोजेक्ट किया है) जिसको बढावा देने में मीडिया ने एक अहम भूमिका अदा की है, २०-२५ वर्ष आगे की पूंजी को ‘क्रेडिट कार्ड’  के जरिये खा –  पका कर मूर्खों ने (जो कल तक क्या आज भी ख़ुद को सबसे बड़ा और विकसित मानते हैं) वहां के बैंको की अर्थव्यवस्था चौपट कर दी कि ‘लेहमैन’ जैसी बड़ी वित्तीय संस्था को बर्बाद होना पड़ा।

भारत में जो भी अस्थिरता आई वह तो अमेरिकी कंपनियों द्वारा पूर्व में निवेश कीगई पूंजी को निकल लेने का परिणाम था। पिछले ५-७ सालों में बेतहाशा दौड़ रही भारतीय अर्थ व्यवस्था ने विदेशी निवेश को कई गुना बढ़ा दिया था, अब अचानक इतनी बड़ी मात्र में बाजार से पूंजी का जाना कुछ न कुछ रंग तो लाएगी। इस दौरान भी भारतीय अर्थव्यवस्था के टिके रहने में भारतीय बहुसंख्यक वर्ग की बचत की प्रवृति ने महती भूमिका निभाई। आज भी हमारा देश गाँव का देश है जहाँ की ६०-६५ % जनसँख्या वैश्विक बाजार के चंगुल से करीब -करीब अछूती है ।शेयर बाजार के इस युग में कई सौ गाँव अब भी बैंकों की पहुँच से बाहर हैं। पैसों से भोग की बढती नक़ल के वाबजूद एक औसत भारतीय थोड़े- थोड़े पैसे जमा करता है, जमा की गई राशिः के बड़े होते ही गहने, जमीन आदि खरीद कर (अपनी-अपनी समझ के हिसाब से) भविष्य सुरक्षित करने में लगा रहता है। एक मजदुर जो ६०-७० रूपये मुश्किल से कमा पाता है वो भी शाम को घर लौटने पर १०-५ रूपये टाट में खोंसना नही भूलता । यही तो हमारी विशिष्ट संस्कृति है जो हमारे जीवन को सुख -दुःख – संतोष की मदद से जीवन को गतिशील बनाये रखता है। लेकिन एक सुनियोजित तरीके से इस विशिष्ट ताकत को हमसे दूर करने का प्रयत्न किया जा रहा है। उदहारण के तौर पर दो विज्ञापनों को देखें तो सारी हकीकत सामने है।

(१) आजकल एक टी वी विज्ञापन में दिखाया जा रहा है किबच्चे विदेश चले जाते हैं तो माँ -बाप घर को बेच डालते हैं। इस के जरिये हमारी मान्यताओं को ग़लत ठहरा कर यह बताने की कोशिश हो रही है कि घर क्या है? कुछ भी तो नही, जब चाहेंगे बन जाएगा। जबकि हम घर को एक वास्तु नही मानते, उसे तो पूर्वजो का धरोहर, उनका आशीर्वाद मानते हैं। अरे जरा, कल्पना तो कीजिये उस व्यक्ति का जिसका अपना घर नही है।

(२) एक अन्य विज्ञापन जिसमे पति, पत्नी के बीच लोन को लेकर बात-चित चल रही होती है तभी पत्नी कहती है सब कुछ बेच सकते हैं तो गहने क्यूँ नही? मुत्थु ग्रुप नमक एक वित्तीय संस्था के इस विज्ञापन में गहनों को परिवार की इज्जत समझने की सोच को ख़त्म करने की साजिश है। भारतीयों की अग्रसोची मानसिकता को रुढिवादी बताया जा रहा है।

ऊपर के दो विज्ञापनों का विश्लेषण कई तरह से किया जा सकता है। बात एक ही है हमें इन चीजो को गहरे से समझना होगा। केवल नक़ल के आधार पर आधुनिक होने की कवायद कब तक? आज हमें छुटकारा चाहिए इस नकलचीपन से। न्याय हो या शिक्षा, राजनीती हो अथवा आर्थिक प्रणाली सब के सब नक़ल पर आधारित! यहाँ तक कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का तगमा लटकाए घुमने वाले इस देश का संविधान भी कट, कॉपी, पेस्ट का नतीजा है। ऐसा लगता नही बल्कि वास्तविकता यही है, बार-बार दूसरो का गुणगान करते – करते हम अपना अस्तित्व ही नकार बैठे हैं।


जयराम चौधरी

बी ए (ओनर्स)मास मीडिया
जामिया मिलिया इस्लामिया
मो: 09210907050

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