घरेलू हिंसा की गहरी होती जड़े

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-ः ललित गर्ग :-
कोरोना के संक्रमण पर काबू पाने के लिए लगाई गई पूर्णबंदी के दौर में व्यापक पैमाने पर लोगों को रोजगार और रोजी-रोटी से वंचित होना पड़ा और इसके साथ-साथ घर में कैद की स्थिति में असंतुलन, आक्रामकता एवं तनावपूर्ण रहने की नौबत आई। जाहिर है, यह दोतरफा दबाव की स्थिति थी, जिसने जीवन में अनेकानेक बदलावों के साथ व्यवहार में निराशा, हताशा और हिंसा की मानेवृत्ति को बढ़ाया। इस दौरान महिलाओं एवं बच्चों से मारपीट, उनकी प्रताड़ना, अपमान आदि की घटनाएं बढ़ी। पति-पत्नी और पूरा परिवार लम्बे समय तक घर के अंदर रहने को मजबूर हुआ, जिससे जीवन में ऊब, चिड़चिडापन एवं वैचारिक टकराव कुछ अधिक तीखे हुए और महिलाओं एवं बच्चों के साथ मारपीट की घटनाएं बढ़ीं।
इन नये बने त्रासद हालातों की पड़ताल करने के लिये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेेक्षण की ओर से देश के बाईस राज्यों और केंद्र प्रदेशों में एक अध्ययन कराया गया जिसमें घरेलू हिंसा के बीच महिलाओं की मौजूदा स्थिति को लेकर जो तस्वीर उभरी है, वह चिंताजनक है और हमारे अब तक के सामाजिक विकास पर सवालिया निशान है। महिलाओं की आजादी छीनने की कोशिशें और उससे जुड़ी हिंसक एवं त्रासदीपूर्ण घटनाओं ने बार-बार हम सबको शर्मसार किया है। भारत के विकास की गाथा पर यह नया अध्ययन किसी तमाचे से कम नहीं है। इस व्यापक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक कई राज्यों में तीस फीसद से ज्यादा महिलाएं अपने पति द्वारा शारीरिक और यौन हिंसा की शिकार हुई हैं। सबसे बुरी दशा कर्नाटक, असम, मिजोरम, तेलंगाना और बिहार में है। कर्नाटक में पीड़ित महिलाओं की तादाद करीब पैंतालीस फीसद और बिहार में चालीस फीसद है। दूसरे राज्यों में भी स्थिति इससे बहुत अलग नहीं है। कोविड-19 महामारी के मद्देनजर ऐसी घटनाओं में तेज इजाफा होने की आशंकाएं भावी पारिवारिक संरचना के लिये चिन्ताजनक है।  संयुक्त राष्ट्र भी कोरोना महाव्याधि के दौर में महिलाओं और लड़कियों के प्रति घरेलू हिंसा के मामलों में ‘भयावह बढ़ोतरी’ दर्ज किये जाने पर चिंता जता चुका है। यह बेहद अफसोसजनक है कि जिस महामारी की चुनौतियों से उपजी परिस्थितियों से पुरुषों और महिलाओं को बराबर स्तर पर जूझना पड़ रहा है, उसमें महिलाओं को इसकी दोहरी मार झेलनी पड़ी है।
कोरोना की पूर्णबंदी खुलने के बाद भी ऐसी घटनाएं चिंताजनक स्तर पर कायम रहना एक गंभीर स्थिति है। इसका मुख्य कारण आर्थिक तंगी, रोजगार और कामकाज का बाधित होना या छिन जाना था। महानगरीय जीवन में तनाव और हिंसा की स्थितियां सामान्यतया देखी जाती हैं। इसकी वजहों के कई कारण हैं। आर्थिक तंगी की वजह से कई लोग अपने भीतर का तनाव परिवार के सदस्यों पर निकालते हैं। महिलाएं और बच्चे उनका आसानी से शिकार बनते हैं। इसके अलावा महात्वाकांक्षाएं भी एक वजह है, जिसके चलते महानगरीय चमकदमक में कई लोग सपने तो बड़े पाल लेते हैं, पर जब वे पूरे होते नहीं दिखते तो उसकी खीझ पत्नी और बच्चों पर निकालते हंै। पूर्णबंदी के दौरान बालविकास मंत्रालय ने घरेलू हिंसा रोकने के उद्देश्य से जागरूकता कार्यक्रमों को और बढ़ाने का प्रयास शुरू कर दिया है। लेकिन सरकारी प्रयासों के अलावा जन सोच को बदलना होगा।

एक टीस से मन में उठती है कि आखिर घरेलू हिंसा क्यों बढ़ रही है? नारी एवं मासूम बच्चों पर हिंसा का यह कहर क्यों बरपाया है? पतियों की हिंसा से बच भी जाये तो बलात्कार, छेड़खानी एवं सामाजिक विकृतियों की आग में वह भस्म होती है। हम भले ही समाज के अच्छे पहलुओं की चर्चा कर लें, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि महिलाओं के प्रति आम सामाजिक नजरिया बहुत सकारात्मक नहीं रहा है। बल्कि कई बार घरेलू हिंसा तक को कई बार सहज और सामाजिक चलन का हिस्सा मानकर इसकी अनदेखी करके परिवार के हित में महिलाओं को समझौता कर लेने की सलाह भी दी जाती है। ऐसे में घरों की चारदिवारी में पलती हिंसा एक संस्कृति के रूप में ठोस शक्ल अख्तियार कर लेती है। महिलाओं पर हो रहे इस तरह के अन्याय, अत्याचारों की एक लंबी सूची रोज बन सकती है। न मालूम कितनी महिलाएं, कब तक ऐसे जुल्मों का शिकार होती रहेंगी। कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी। दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती यह कालिख को कौन पोछेगा? कौन रोकेगा ऐसे लोगों को जो इस तरह के जघन्य अपराध करते हैं, नारी को अपमानित करते हैं, बच्चों को प्रताड़ित करते हैं। दरअसल, यह एक सामाजिक विकृति है, जिससे तत्काल दूर करने की जरूरत है। लेकिन यह तभी संभव है, जब सरकारों की नीतिगत प्राथमिकताओं में सामाजिक विकास और रूढ़ विचारों पर नजरिया और मानसिकता बदलने का काम शामिल हो। माना जाता है कि जिन समाजों में शिक्षा का प्रसार ठीक से नहीं हुआ है, उन्हीं में महिलाओं और बच्चों के साथ हिंसक व्यवहार अधिक होता है। मगर यह धारणा अनेक घटनाओं से गलत साबित हो चुकी है। पढ़े-लिखे और सभ्य कहे जाने वाले समाजों में भी महिलाएं न तो सुरक्षित हैं और न उन्हें अपेक्षित सम्मान हासिल है।
कोरोना संक्रमण के दौरान ही नहीं बल्कि भारत में पिछले कुछ सालों में घर से लेकर सड़क और कार्यस्थल तक महिलाओं के उत्पीड़न एवं हिंसा का मुद्दा राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बना है। मीटू आंदोलन ने इसे और ऊंचाई दी है और खासकर कामकाजी दायरे में यौन शोषण के मुद्दे को केंद्र में ला दिया है। लेकिन गौर करने की बात है कि अभी सारी बहस महिलाओं के सार्वजनिक जीवन को लेकर ही हो रही है। महिलाओं की घरेलू हिंसा के बारे में तो अभी बात शुरू भी नहीं हुई है कि घर के भीतर उन्हें कैसी त्रासद एवं हिंसक घटनाओं को झेलना पड़ रहा है। इस विषय पर चर्चा शायद इस लिए भी नहीं होती कि भारत में घर को एक पवित्र जगह के तौर पर देखा जाता है और इसके भीतरी माहौल को सार्वजनिक चर्चा के दायरे में लाना मर्यादा के खिलाफ समझा जाता है। पुरुष-प्रधान समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्तार तेज है और विवेक अनियंत्रित हैं जिसका परिणाम है नारी एवं बच्चों पर हो रही घरेलू हिंसा, नित-नये अपराध और अत्याचार। पुरुष-प्रधान समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है।
यही वजह है कि आज भी महिलाओं को घर से लेकर कामकाज तक के मामले में सार्वजनिक स्थानों पर कई तरह की वंचनाओं, विकृत सोच और भेदभावों का शिकार होना पड़ता है। यह रवैया आगे बढ़ कर हिंसा की अलग-अलग शक्ल में सामने आता है, जिसे समाज में अघोषित तौर पर सहज माना जाता है। इस मामले पर चिंता तो लगातार जताई जाती रही है, लेकिन आज भी ऐसी संस्कृति नहीं विकसित की जा सकी है, जिसमें महिलाएं अपने अधिकार और गरिमा के साथ सहजता से जी सकें। विडंबना यह है कि इनमें से ज्यादातर महिलाओं को इस तरह की घरेलू हिंसा से कोई खास शिकायत भी नहीं है। मतलब यह कि उन्होंने इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया है। लेकिन क्यों?
घर-आंगन में पिस रही औरतों के अधिकार का प्रश्न बीच में एक बार उठा, जिससे निपटने के लिए घरेलू हिंसा कानून बनाया गया। लेकिन उसका भी अनुपालन इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि प्रायः स्वयं महिलाएं ही परिवार की मर्यादा पर आघात नहीं करना चाहतीं। फिर उन्हें यह भी लगता है कि पति के खिलाफ जाने से उनका जीवन संकट में पड़ सकता है। इसका एक कारण पति पर उनकी आर्थिक निर्भरता होती है लेकिन जो महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होती हैं, वे भी घरेलू हिंसा कानून का सहारा नहीं लेतीं क्योंकि उन्हें यह डर सताता है कि परिवार से अलग होते ही वे न सिर्फ लंपट पुरुषों के बल्कि पूरे समाज के निशाने पर आ जाएंगी। सचाई यह है कि कोई अकेली आत्मनिर्भर महिला भी चैन से अपना जीवन गुजार सके, ऐसा माहौल हमारे यहां अभी नहीं बन पाया है। कुछ महिलाएं अपने बच्चों के भविष्य के लिए घरेलू हिंसा बर्दाश्त करती हैं।
हमें समाज को बदलने से पहले स्वयं को बदलना होगा। हम बदलना शुरू करें अपना चिंतन, विचार, व्यवहार, कर्म और भाव। मौलिकता को, स्वयं को एवं स्वतंत्र होकर जीने वालों को ही दुनिया सर-आंखों पर बिठाती है। घर-परिवार में महिलाओं पर होने वाली घरेलू हिंसा को रोकने के लिये जरूरी है कि एक ऐसे घर का निर्माण करे जिसमें प्यार की छत हो, विश्वास की दीवारें हों, सहयोग के दरवाजे हों, अनुशासन की खिड़कियाँ हों और समता की फुलवारी हो।

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