घट घट अंतर अनहद गरजै : कबीर

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kabirडॉ. मधुसूदन

(एक) कबीर-वाणी की विशेषता:
कबीर जी की विशेषता है संक्षेप, एक लुहार के घाव जैसी शक्तिशाली चोट मारते हैं, और, सारा ज्ञान-सागर गागर में? जी नहीं, एक सीप में ले आते हैं! और चंद शब्दों की सीप पाठक को चकाचौंध कर रख देती है।
विद्वान कहते हैं, “शब्द पेड के, पत्तों जैसे होते हैं; जहाँ वे बहुतायत होते हैं, वहाँ फलरूपी ज्ञान कठिनाई से दिखाई पडता है।” पोप नाम के विद्वान यही कहते हैं। बात सही है; संक्षेप ही बुद्धिमानी और ज्ञान की पहचान है।
फिर कबीर जी के विषय में, कुछ कहावत सुधार कर, कहा जा सकता है, कि *सौ सुनार की और एक कबीर की,* –कबीरजी की ऐसी चोट, जो समग्र आध्यात्मिकता को चंद शब्दों में व्यक्त कर पाठक को आपाद-मस्तक झकझोर कर रख दे। ऐसी रचना में कबीरजी सिद्धहस्त थे; निपुण थे; प्रतिभा-सम्पन्न थे, और साक्षात्कारी भी थे।

(दो) रचना में अलंकार

उनका एक दोहा ही देख लीजिए। कहते हैं,
*रंगी को नारंगी कहे, बने दूध को खोया।
चलती को गाडी कहे, देख कबीरा रोया॥”
कबीर जी की तीखी चोट, और मात्र दो पंक्तियों के संक्षेप में तीन विरोधाभासी सच्चाइयाँ। रंगी(न) को नारंगी कहा, दूध का खोया बन जाना,और चलती हो, उसे गाडी नाम देकर गाड दिया जाना; ऐसे तीन विरोधाभासों को देखकर कबीरजी भी रोते हैं।
नितान्त सशक्त,जकड-बंध, कसी हुयी, मर्मभेदी पंक्तियाँ हैं ये? विशेष, अभिव्यक्ति भी हुई है,दो पंक्तियों के संक्षेप में? रंगी-हो गई नारंगी, यह शब्दालंकार और दूध का-खोया होना, और चलती को-गाडी कह कर गाड देना, ये (अर्थ के)अर्थालंकार के चमत्कार हैं।
वैसे, सभी कविताओं में रचना और स्फुरणा दोनों का अंश होता है। पर कबीर जी अधिकतर स्फुरणा के असामान्य ऋषितुल्य कवि थे। रचना वाले कवि तो अनेक मिलते हैं; कबीर जी स्फुरणा के कवि थे। तनिक सोचिए,कहाँ से आती होगी, कबीर जी की ऐसी प्रेरणा ?

(तीन) कबीर जी कहाँसे प्रेरणा पाते होंगे ?

कहते हैं, अंतरज्ञानी सन्तों को परावाणी से सन्देश आते हैं। जैसे अंधेरे में अचानक बिजली का चमत्कार! संक्षिप्त और चकाचौंध करनेवाला। और उनके शब्दों में सच्चाई की गूंज भी छलकती है।
निम्न पंक्तियों में परावाणी ही प्रमाणित होती है।
*मै कहता हौं आँखन देखी,
तू कागद की लेखी रे॥*
कबीर जी आँखो देखी बात कहते हैं, कागद पर लिखी नहीं। क्या ये परावाणी या साक्षात्कार की पंक्तियाँ नहीं है? कहाँसे देख आये हैं कबीर जी?
दूसरा उदाहरण देखिए।
*मसि कागद छूयो नहीं, कलम गही नहि हाथ।
चारिउ जुग की महातम, मुखहि जनाई बात॥*
बिना कलम, और स्याही, मात्र मुखसे बात करनेवाला कवि, किस प्रेरणा-स्रोत से जुडा हुआ है?

(चार) कबीरजी के शब्द मीठे अंगूर हैं:

कबीरजी के शब्द अंगूर हैं; उन्हें चखने में,पाठकों से परिश्रम भी अपेक्षित है। आप अंगूर खाते हैं,तो,धीरे धीरे चबाकर स्वाद लेते है। बिना चबाए,निगल कर, ढेर सारे अंगूर उदरगत करनेका,खोखला संतोष शायद हो, पर स्वाद के लिए, एक एक अंगूर दांतों तले चबाकर, खट्टे मीठे अंगूरों के अलौकिक स्वाद का आनंद प्राप्त करना होता है।
कबीरजी के शब्दों की रंजकता पाने के लिए जो, बौद्धिक परिश्रम करेगा, वही आनन्द पाएगा। ऐसे अंगूर जैसे शब्दों की भी बानगी प्रस्तुत हैं।

कबीर जी, कहते हैं:
*बिना प्रीति का मानवा कहीं ठौर ना पावै।*
कितनी गहरी बात कबीर जी संक्षेप में, कह गए? मनुष्य वास्तविक प्रेमका भूखा है। पर स्वार्थी मनुष्य प्रेम लेना चाहता है; देना नहीं चाहता। सम्मान पाना चाहता है, दूसरों का अपमान करके। कपटी है; दूसरों की लकीर काट कर छोटी करता है; अपनी लकीर को बडी दिखाने के लिए। फिर ऐसे कपटपूर्ण व्यापार में स्वयं ही धोखा खा जाता है। ऐसा मानव कहीं भी चैन नहीं पाता।
अलग शब्दों में भी कबीर जी कहते हैं।
*जो घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान”
ऐसे भी मसान जैसे लोग हैं, जो सारा जीवन, बिना जिए ही, एक दिन मर जाते हैं।

(पाँच) लीक से हटकर थे कबीरजी :

रूढि और परम्परा से हटकर चलते हुए भी सनातन सत्य सिद्धान्त कबीर जी के दोहो में कूट कूट कर भरे हुए हैं। ईश्वरनिष्ठा, सदाचरण, प्रेम, अहिंसा, इत्यादि, मूल्य कबीर-वाणी में मर्मभेदी अभिव्यक्ति पाते हैं।पण्डित, मुल्ला-काजी, अवधूत इत्यादि ढोंगी स्वार्थ-साधु, जो रूढिवादियों को फाँस कर अपना उल्लू सीधा करने में व्यस्त थे, ऐसे ढोंगियोंपर कबीर-वाणी कोडे ही बरसाती है। एक ही रूढि कबीर जी मानते हैं; सच्चे गुरु की रुढि; जो उनके निम्न शब्दों में व्यक्त होती है।
*गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥*
कबीरजी, गुरु को गोविंद से भी बडा मानते हैं।
पर अंधे गुरु के विषय में विपरित अर्थ भी कबीर वाणी में ही मिलता है।
*जाका गुरु भी अँधला, चेला खरा निरंध
अंधहि अंधा ठेलिया, दोनों कूप पडंत॥*
ऐसा अंधा गुरु और चेला दोनों कूप में जा गिरते हैं।

(छः) सच्ची आध्यात्मिकता का पुरस्कार:

अन्य मान्यताएँ उनकी, संप्रदायातीत और पंथोपपंथातीत है। पर, कबीरजी सच्ची आध्यात्मिकता का पुरस्कार ही करते हैं। स्वयं रूढ-पथों में ना मानते हुए भी, जैसा हमेशा होते आया है; आगे, उन्हीं के नाम पर,कबीरपंथ चल निकता था।
कबीर जी संक्षेप में, ऐसा शीघ्र (शॉर्ट कट) पथ दिखाते हैं, जिस पर, साधक सीधा सीधा अग्रसर हो सकता है।

कहाँ से कबीर जी ऐसी प्रेरणा पाते होंगे ? प्रेरणा का स्रोत क्या होगा? उत्तर ढूँढने के प्रयास से मैंने पाया, कि, ज्ञान दो अलग अलग प्रकारों का होता है। बाहर से बाह्य ज्ञान और अंदर से अंतरज्ञान। बाह्य ज्ञान बाहर लक्ष्य कर पाँच इन्द्रियों द्वारा या उनके अनुप्रयोग (Application) से प्राप्त किया जाता है। आँखो से देखकर, कानों से श्रवण कर, नाक से सूंघकर, किसी अंग से स्पर्श कर, जिह्वा से स्वाद ले कर, ऐसे पाँच इन्द्रियों द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। ऐसे ज्ञान को, अपरा-ज्ञान कहा जाता है। सारा विज्ञान, जैसे भौतिकी, रसायन, गणित इत्यादि बाह्य विषयों का ज्ञान अपरा-विद्या या अपरा-ज्ञान माना जाएगा। यह ज्ञान इन्द्रियों द्वारा ही प्राप्त ज्ञान है। और इब्द्रियाँ भी पाँच (मर्यादित ) होने के कारण ऐसा अपरा-ज्ञान भी स्थूल रूप से मर्यादित है।

(सात ) पश्चिमी मानस विज्ञान की कठिनाई:

पश्चिमी मानस विज्ञान की यही कठिनाई है। कबीर जी के पराज्ञान या अंतरज्ञान का स्रोत समझने में आधुनिक पश्चिमी मानस विज्ञान समर्थ नहीं है। अभी अभी प्रकाशित शोधपत्रों में इस सच्चाई की स्वीकृति भी दिखाई देने लगी है। लेखक की जानकारी में, दो विद्वान *जोसेफ वारन* और *डेब्रा डेविस* अपने शोध पत्र में, पश्चिमी मानस विज्ञान की मर्यादा की स्वीकृति विस्तार सहित देते हैं। उनके अनुसार,पश्चिम का मानस शास्त्र सृष्टि को मन के अंदरसे और पाँच इन्द्रियों की मर्यादा में देखता है।
इन्हीं, इन्द्रियों के अनुभवों की बोध-क्षमता पर, नियम गढकर निरीक्षण से मानस शास्त्र के सिद्धान्त स्थापित करता है। और फिर, इस बाह्य ज्ञान के नियमों पर अंतरज्ञान भी पाना चाहता है।
आप अपना घर भी सही परिप्रेक्ष्य में, देखने के लिए घर के बाहर गए बिना सही सही देख नहीं सकते। अंदर बैठे बैठे खुली,खिडकियों से झाँक कर आप, अपने घर को बाहर से निश्चित ही देख नहीं सकते। अनुमान भी नहीं कर सकते। यही मर्यादा है पश्चिमी मानस की।पर इस विषय पर भी कबीर जी कहते ही हैं।
*भीतर तो भेद्यो नहीं, बाहर कथै अनेक,
जो पै भीतरि लखि परै, भीतर-बाहर एक॥*
भीतर को भेदकर, अर्थात अपने अंदर उतर कर ही, भीतर और बाहर के, अटूट या अखण्ड चेतना-बोध का दर्शन संभव है। भीतर का अर्थ यहाँ अपने अंदर उतरकर देखने से है। और ऐसी देखने की विधि पतंजलि के ध्यानयोग से भी संभव होती है। पर, लगता है; कि, कुछ संतों को परमात्म-सत्ता की स्फुरणा से भी ऐसा ज्ञान पाने की क्षमता प्राप्त होती होगी।
जिसके फलस्वरूप अंदर से भी चेतना-बोध होता है; साथ बाह्य वास्तविकता का ज्ञान तो इन्द्रियजन्य ज्ञान से सहज होता ही रहता है।
हमारे शास्त्रों में इस लिए अपरा और परा विद्या के नामों से इसका क्रमशः उल्लेख किया है।
(आठ) परा और अपरा विद्या:

परा और अपरा ऐसी दो प्रकार की विद्याएँ होती है।
पहले ही कहा गया है; आज पराविद्या का भी वैज्ञानिक पश्चिम के शोध साहित्य में, उल्लेख और चर्चा दिखने लगी है। आरंभ हो चुका है। सामान्य स्तर पर नहीं; पर शोध पत्रों में उल्लेख अवश्य हो रहा है। संक्षेप में, पराविद्या इन्द्रियों से परे ज्ञान को कहते हैं। उदाहरणार्थ हमारे ऋषि मुनियों का ज्ञान पराज्ञान कहा जाएगा। पाँच इन्द्रियों की पकड में आनेवाला ज्ञान अपरा विद्या समझा जाता है। मानव अर्जित सारे भौतिक ज्ञान को अपरा विद्या ही माना जाता है।

(नौ) कठोपनिषद, और पतंजलि योग शास्त्र,

कठोपनिषद, और पतंजलि योग शास्त्र,इस पराज्ञान को प्राप्त करने की विधि बताते है। इन्द्रियों को नियंत्रित कर पहले अंदर अंदर मन में पहुंचे। फिर मन से और भी अंदर, बुद्धि में पहुंचे, और फिर बुद्धि से अंदर आत्मा में जा पहुँचे।
इसी स्थिति में,आत्मा को कबीरजी *कुण्डल में बसी कस्तुरी* कहते हैं, और इसी आत्मा(घट) में कबीर जी के अनुसार *ज्ञान फुहारा उड रहा है।*
कबीर जी जैसी साक्षात्कारी व्यक्ति पराविद्या की अधिकारी है, और ऐसी स्फुरित रचनाएँ करने की सामर्थ्य रखती है। उन्हीं के शब्दों में पढिए:।
*इस घट अंतर अनहद गरजै, इसी में उठत फुहारा!
कहत कबीर सुनो भाई साधो, इसी में साईं हमारा!*
यह कबीर जी की उत्कट और परमोच्च अनुभूति का क्षण प्रतीत होता है। ये रचना के शब्द नहीं, स्फुरणा के हैं। ऐसा ज्ञान फुहारा पराविद्या की प्राप्ति कहा जा सकता है। ज्ञान का कोई भी स्रष्टा नहीं हो सकता। हो सकता है, तो द्रष्टा ही हो सकता है।

(दस) ध्यान योग भी दंतकथा में:

ध्यान योग का उल्लेख, एक दंतकथा में भी आता है, जो निम्न है। कहते हैं; गोरखनाथजी ने कबीर के घर का पता पूछा था, तो पथिक ने बताया
*कबीरा घर शून्य शिखरपे, जहाँ सलहली गैल,
पाँव न टिके पिपलीका के, खल खल लादत बैल॥*
कबीर का घर शून्य शिखर पर (अर्थात सहस्रार चक्र) है। जहाँ जानेवाली गली संकरी, और फिसलनभरी है। उस गली में चींटी भी फिसल जाती है, पर मूरख (खल)वहाँ गाडी(संसार की दौलत)भर कर जाना चाहता है।
*मरम नो मलक* (मर्म का मुल्क) गुजराती पुस्तक का लेखक श्री सुरेश गाला इसी कथा से अपनी पुस्तक आरंभ करता है।
मराठी के भी सिद्धहस्त कवि, स्व. मंगेश पाडगावकर ने कबीर पदों का मराठी अनुवाद, छंद में किया है। प्रारंभ में ४२ पृष्ठों की कबीरजी की जीवनी और साहित्य पर निबंध डाला है। उसमें, कुछ प्रक्षिप्त; और कुछ दंतकथाओं के अंश की भी संभावना है।

(ग्यारह)कबीरजी का पहेलियों, और रूपको में अनपेक्षित ढँग:

कबीर जी कभी पहेलियों से,रूपक से,या अनपेक्षित ढँग से भी पाठक को झकझोर कर रख देने में सिद्ध हस्त थे।
निम्न उदाहरणों में इस की पुष्टि की जा सकती है।

*चींटी चली ससुरालको दशमन काजल लगाय,
हाथी घोडा बगलमें ऊंट गले लटकाय॥*

अब इन पंक्तियों का अर्थ लगाने का प्रयास कीजिए। कठिन है।
अर्थ नहीं पाओ, तो निम्न शब्दार्थ देख लीजिए।
==>चींटी=जीवात्मा, ससुराल= संसार, दशमन= देह के दश द्वार का प्रतीक, काजल= वासना, कर्म, संस्कार, हाथी= क्रोध, घोडा=काम, ऊँट =अहंकार।
जीवात्मा इस संसार में दशद्वारवाला देह लेकर आया है। उसमें वासना है, कर्म है, और संस्कार है। क्रोध है, काम है और अहंकार भी है। तात्पर्य: इतना बोझ उठाकर स्वयं ही जीवन कठिन बना लेता है।
ऐसे कबीरजी भी पहेलियों और रूपकों में लिखकर चमत्कार सर्जते हैं। अर्थ लगाने में बौद्धिक परिश्रम जो होता है, उसी से पठन भी रंजक हो जाता है।

(बारह) अद्वैत वेदान्त की अभिव्यक्ति का दोहा।

अद्वैत वेदान्त को रूपकात्मकता से, दो पंक्तियों मे व्यक्त करती निम्न पंक्तियाँ, मुझे पुनः पुनः बचपन से, मुग्ध कर देती आयी है।
*जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है,बाहिर भीतर पानी
फूटा कुंभ,जल जलहि समाना, यहु तत कथो गियानी॥*

(तेरह) नितान्त हृदयंगम पंक्तियाँ

पर एक गूढ कविता हृदय में घुसकर हृदयंगम हो जाती है। जिस में, कबीर जी की भाषा का लहका भी अवर्णनीय है। अर्थ लगाने मे कुछ परिश्रम होगा, पर फल नितान्त मीठा है।
आत्मा को एक पखेरु मानकर लिखी गयी पंक्तियाँ हैं।
*या तरिवर में एक पखेरू, भोग सरस वह डोलै रे,
वाकी संध लखै नहिं कोई, कौन भाव सों बोलै रे?
दुर्म्म डार तहँ अति घन छाया पंछि बसेरा लेई रे,
आवै साँझ उड़ि जाय सबेरा, मरम न काहू देई रे,
सो पंछी मोंहि कोइ न बतावै जो बोले घटमाँही रे,
अबरन बरन रूप नाहिंरेखा, बैठा प्रेम के छाँही रे,
अगम अपार निरंतर बासा, आवत जात न दीसा रे.
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, यह कुछ अगम कहानी रे,
या पंछी के कौन ठौर है बूझो पंडित ज्ञानी रे.॥*

कुछ शब्दों के अर्थ:
तरिवर=तरूवर, भोग सरस= भोग का रस,
बाकी संध लखै =और किसी से पहचान,
दुर्म्म डार= पेड की डाली, घटमाँही = देह में बसनेवाला,
अबरन बरन=बिना रंग (रूप)का,
ठौर = ठिकाना, बूझो=पहचानो

(चौदह) वैदिक ऋचा:

इस कविता के संदर्भ से, मुझे निम्न वैदिक ऋचा याद आती है।

*द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया
समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोर् अन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्य-
-नश्नन्नन्यो अभि चाकशीति॥* –ऋ.१-१६४-२०
अर्थ: सुन्दर पंखोंवाले दो पंछी,(जो) प्रेम से बंधे हैं। दोनों का एक ही वृक्षपर बसेरा है। एक (नीची डाल पर बैठा) पंछी खट्टा-मीठा फल खाता है;और सुखी-दुखी होता रहता है। पर दूसरा ऊपर की डाल पर बैठा पंछी अविचल और आत्ममुग्ध, शान्त है, केवल (साक्षी बन) नीरखता रहता है। ऊपर का पंछी आत्मन का प्रतीक है, और नीचे बैठा संसार में लिप्त जीव का प्रतीक है। ऐसे दोनों पंछी हर मनुष्य के अंदर होते हैं।
जीव (संसार में लिप्त) फल खाकर सुखी-दुखी होता रहता है। पर ऊपर का पंछी आत्म मुग्ध और आनंद में लीन है। क्या यह साक्षीभाव-रत होने की स्थिति नहीं है? सहज समाधिस्थ संत ऊपर के निर्लिप्त पंछी की तरह रहा करते हैं।

॥कहत कबीर आनंद भयो है, बाजत अनहद ढोल रे॥

10 COMMENTS

  1. बहुत ही सुंदर लेख. धन्यबाद जी. सतगुरु कबीर दास के काव्य की कुछ अनछुवे पहलू पर लिख कर आपने अच्छा काम किया.

  2. सुरेन्दर जी और रमेश जी –दोनों विद्वानों को धन्यवाद देता हूँ। जो समय निकाल कर आलेख पढा और अपनी समीचीन टिप्पणी भी दी।
    मुझे ऐसी टिप्पणियों से अलग दृष्टिकोण भी पता चलता है।
    कृपार्थी–मधुसूदन

  3. घट घट अंतर अनहद गरजै : कबीर—-बहुत सुंदर !!
    Surendar Agarwal
    ===========================================
    घट घट अंतर अनहद गरजै : कबीर
    अच्छा है
    धन्यवाद,
    रमेश जोशी लेखक,

  4. समयाभाव के कारण देर हुई पढ़ने मे | लेख पढ़कर अपने विद्यार्थी जीवन की याद आ गई | आपने विस्तार से शोधपूर्ण तरीके से कबीर जी के साहित्य को बिभिन्न आयामों से देखा | बहुत अच्छा लगा | पाठकों को समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए | मुझे कबीर की यह लाइने बहुत पसंद थी अपने किशोरावस्था मे | एक यहाँ पर
    काकड़ पाथड़ जोड़ि के, मस्जिद लई बनाय | ता चढ़ि मुल्ला बाग देइ , क्या बहरा हुआ खुदाय |
    निंदक नियरे राखिए , आँगन कुटी छवाय | बिन पानी साबुन बिना , मैल साफ हो जाय ||
    कबीर एक बहुत बड़े समाज सुधारक थे | मुझे उनका यह ज्ञान बचपन से बहुत पसंद था | आज भी उनके विचारों की प्रसङ्गिगता समाज मे स्पस्ट रूप से दिखाई देती है |

    • आपकी कबीर जी की चुनी हुयी पंक्तियाँ वास्तव में गहरे अर्थ रखती है। बहुत धन्यवाद। प्रोत्साहन के लिए।—मधु भाई

  5. कः वीरः ? कबीरः !!
    कविवीरः कबीरः ! कविवर्यः कबीरः !!

    कबीरजी बुनकर थे | ताना-बाना जानते थे | दो पङ्क्तियोंमे सबकुछ कहते थे | तानाशाही मस्त जमाते थे | बानेके आडेपनका ऐसा प्रयोग कर देते – पूछो खुदको “आयी बात समझमें ?” देख, कबीरा हँस दिया 🙂 !

    • मनोरंजक पहेली सहित कबीर की व्युत्पत्ति और चूटकुला युक्त टिप्पणी काफी रोचक है। कृपा बनाए रखिए। धन्यवाद।

  6. आदरणीय मधुसूदन भाई ,
    मेल आते ही आलेख पढ़ डाला । निस्सन्देह कबीर-वाणी पर लिखा गया आपका ये आलेख समयसाध्य , परिश्रमसाध्य होने के साथ ही ज्ञानवर्धक और सार्थक भी है । ये ज्ञानचर्चा प्रभावी और सशक्त है , जहाँ कबीर के दोहों का मर्म स्पष्टता से व्याख्यायित है। अनेकानेक साधुवाद !!
    सादर,
    शकुन बहन

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