मनुष्य का कर्तव्य

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मनमोहन कुमार आर्य

                मनुष्य मननशील प्राणी को कहते हैं। मनन का अर्थ है किसी विषय पर उसके सत्य एवं असत्य, उपयोगी एवं अनुपयोगी तथा सार्थक एवं निरर्थक आदि सभी पक्षों पर विचार करना। जब हम मनुष्य के कर्तव्य पर विचार करते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि हमें अपने आप को और संसार को तथा इसमें छिपे हुए रहस्यों को जानना है। हमारे पूर्वज मनीषियों ने सृष्टि के आरम्भ व उसके बाद समय समय पर जब इस विषय पर विचार किया तो यह पाया कि यह संसार जगत में सर्वव्यापक एवं सर्वशक्तिमान एक चेतन सत्ता ने बनाया है। संसार में एक सर्वव्यापक परमात्मा के अतिरिक्त अविनाशी चेतन सूक्ष्म जीव जो एकदेशी एवं अल्पज्ञ हैं उनकी भी अनादि काल से नित्य सत्ता है। हम मनुष्य तथा इतर सभी प्राणियों में चेतन जीवों का वास होता है। वह अपने-अपने शरीर में रहते हैं। वह शरीर के सक्रिय रहते हुए जीवित रहते हैं और जब परमात्मा जीव को प्रेरणा देकर निकाल देता है तो उसकी मृत्यु वा देह का नाश हो जाता है। जीवात्मा मृत्यु के बाद अपने गुण-कर्म-स्वभावानुसार एवं किये हुए कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म को प्राप्त होती है। उसे जन्म प्राप्त कर कर्मों का सुख व दुःखरूपी फल भोगने का अवसर मिलता है। अतः हमें परमात्मा और जीव वा जीवात्मा को जानना चाहिये, यह सब मनुष्यों, स्त्री व पुरुषों का कर्तव्य है।

                जब हम ईश्वर वा परमात्मा एवं जीवात्मा का अध्ययन, चिन्तन व मनन, वेद-दर्शन-उपनिषद आदि का अध्ययन करते हैं तो हमें ईश्वर व जीवात्मा के सत्य वा यथार्थस्वरूप सहित सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का ज्ञान होता है। ईश्वर, जीवात्मा और कारण व कार्य प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करना और परमात्मा तथा अन्य प्राणियों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करना हमारा वा प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। हमें अपने कर्तव्यों को जानने के लिए वेद, दर्शन, उपनिषद एवं सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि एवं वैदिक विद्वानों के वेदानुकूल ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये।

                ईश्वर की प्रतिदिन उपासना करना तथा स्वयं को स्वस्थ काया वाला बनाकर व रखकर वेदविहित कर्तव्यों का निर्वाह करना सब मनुष्यों का कर्तव्य है। हमें पंचमहायज्ञों का प्रतिदिन सेवन वा निर्वाह करना भी आवश्यक है। पांच महायज्ञ हैं 1- ईश्वर का ध्यान व चिन्तन वा सन्ध्या, 2- दैनिक अग्निहोत्र वा देवयज्ञ, 3- पितृयज्ञ, 4- अतिथियज्ञ एवं 5- बलिवैश्वदेव यज्ञ। इसके साथ ही हमें वेदविहित सभी कर्तव्यों का पालन करना चाहिये। हमें वेदविरुद्ध एवं अनुचित कार्यों को नहीं करना चाहिये। काम, क्रोध, चोरी, भ्रष्टाचार, आलस्य, स्वार्थों से युक्त होकर उचित-अनुचित का ध्यान किये बिना अनुचित कार्यों को करना अनुचित, गलत अर्थात् पाप है। इनसे हमने बचना चाहिये।

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