फतवों को दरकिनार करता मुस्लिम युवा

-सलीम अख्तर सिद्दीकी

इस्लाम में फतवे की बहुत मान्यता है। फतवा मुफ्ती से तब मांगा जाता है, जब कोई ऐसा मसला आ जाए जिसका हल कुरआन और हदीस की रोशनी में किया जाना हो। लेकिन पिछले कुछ सालों में ऐसा हुआ है कि फतवों की बाढ़ आ गयी है। इससे एक तो इस्लाम के बारे में गलतफहमियां पैदा हो रही हैं, दूसरे फतवे बेअसर होते जा रहे हैं। दिक्कत यह भी आ रही है कि जब से फतवा ऑन लाइन दिया जाने लगा है, तब से मीडिया का एक वर्ग खबरें क्रिएट करने की नीयत से फतवा मांगता है और फिर उस पर एक बहस चलाता है। ऑन लाइन फतवा देने वाले मुफ्ती को यह पता नहीं चल पाता कि फतवा मांगने वाला दरअसल कोन है? फतवा मांगने के पीछे उसकी नीयत क्या है? मसला किस तरह का है? उसके पीछे जमीनी हकीकत क्या है?

ताजा उदाहरण सहारनपुर का है। सहारनपुर की देवी बालासुदंरी मंदिर मेला कमेटी में एक मुस्लिम प्रतिनिधि भी रखा गया है। इस पर यहां के एक एडवोकेट राघवेन्‍द्र कंसल ने दारुल उलूम देवबंद के मुफ्तियों से एक लिखित सवाल में यह पूछा कि क्या देवी बालासुंदरी मंदिर कमेटी में किसी मुस्लिम का प्रतिनिधि होना शरई ऐतबार से जायज है अथवा नाजायज? यहां सवाल पूछने वाले की नीयत का पता चलता हैं। यदि इस सवाल पर दारुल उलूम कुछ भी राय देता, विवाद होना तय बात थी। यह तो अच्छा हुआ कि मुफ्तियों ने इसका जवाब यह कह कर नहीं दिया कि इस तरह का सवाल सम्बन्धित आदमी को ही पूछना चाहिए। इस सवाल पर अपनी राय देने से बचना यह दर्शाता है कि पिछले दिनों कुछ फतवों पर विवाद होने के बाद दारुल उलूम देवबंद ने फतवे देने में एहतियात बरतना शुरु कर दिया है।

अभी पिछले कुछ दिन पहले कुछ ऐसे फतवे आए हैं, जिससे यह संदेश गया है कि इस्लाम में औरतों को कतई आजादी नहीं है। यहां तक कि वह अपने भरण-पोषण के लिए बाहर काम नहीं कर सकती है। एक फतवे में कहा गया है कि मुस्लिम औरतों को मर्दों के साथ काम नहीं करना चाहिए और न ही अपने साथ काम करने वाले पुरुषों से बातचीत करनी चाहिए। सवाल यह है कि जिस औरत के घर में कोई मर्द कमाने वाला न हो तो वह औरत क्या करे? क्या अपने आप को और अपने बच्चों को भूखा रखे? यदि उसे काम ही ऐसी जगह मिले जहां पुरुष भी काम करते हों तो वह उसकी मजबूरी है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मुसलमानों में कोई ऐसा संगठन है, जो बेसहारा औरतों के भरण-पोषण के लिए फंड रखता हो? जब हमारे पास बेसहारा औरतों के परिवार के भरण-पोषण के लिए कोई व्यवस्था नहीं है तो फिर हम किस तरह से किसी मुस्लिम औरत को काम करने से रोक सकते हैं? यदि परिवार की कोई औरत इत नी काबिल है कि वह कहीं नौकरी कर सके तो इसमें भी क्यों किसी को आपत्ति होनी चाहिए? मंहगाई के इस दौर में लोगों को खर्च चलाना भारी पड़ रहा है। यदि कोई औरत अपने परिवार की आर्थिक जरुरतों को पूरा करने के लिए बाहर बाहर नौकरी करने जाती है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। इस्लाम आदमी को जिन्दा रहने का पूरा हक देता है। कहा गया है कि यदि रसद पहुंचने के सभी रास्ते बंद हो जाएं तो जिन्दा रहने के लिए हराम समझी जाने वाली चीज को भी खाया जा सकता है। यहां तो पुरुषों के साथ काम करने की ही बात है। एक फतवे में कहा गया कि मुसलमानों को बैंक की नौकरी नहीं करनी चाहिए। एक और फतवे में कहा गया कि मुसलमानों को शराब से सम्बन्धित विभागों में काम नहीं करना चाहिए।

इस तरह के फतवे देकर पता नहीं हमारे मुफ्ती और उलेमा क्या संदेश देना चाहते हैं। एक तो वैसे ही मुसलमानों के पास रोजगार के अवसर नहीं है, दूसरे उस पर यह पाबंदी भी लगा दो कि यहां नौकरी मत करो वहां नौकरी मत करो। कभी कहते हैं कि तस्वीर मत खिंचवाओ। टीवी मत देखो। इंटरनेट से दूर रहो। मजे की बात यह है कि यही उलेमा और मुफ्ती इंटरनेट पर फतवे जारी करते हैं। टीवी चैनलों पर बैठकर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। लेकिन आम मुसलमान को इन सब चीजों से दूर रहने की हिदायत देते हैं। यह तो कहा जा सकता है कि टीवी पर अच्छी चीजें देखिए। इंटरनेट से अच्छी जानकारियां हासिल कीजिए। यह ठीक है कि फिल्म, टीवी और इंटरनेट से बेहयाई और बेशर्मी फैली है। लेकिन इन चीजों से फायदे भी तो नुकसान से ज्यादा हैं। एक चाकू आदमी की अहम जरुरत है। लेकिन कुछ लोग उसी चाकू से किसी की जान भी ले लेते हैं। लेकिन क्या चाकू बनाना बन्द कर देना चाहिए?

वक्त के साथ-साथ बदलाव आते हैं। यह अलग बात है कि पिछले बीस सालों में बहुत तेजी के साथ बदलाव हुए है। दिक्कत यही है कि बदलाव के साथ समाज बदलने को तैयार नहीं है। यदि हमारे उलेमा और तथाकथित खाप पंचायतें यह सोचती हैं कि कई सौ साल पहले की सोच, रीति-रिवाज और परम्पराएं आज भी लागू करवा सकते हैं तो वह गलत सोचते हैं। आज का मुस्लिम युवा फतवों से ज्यादा अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ज्यादा ध्यान दे रहा। दिल्ली के कुछ युवाओं ने जिसमें युवतियां भी शामिल हैं, एक साप्ताहिक अखबार से बातचीत में फतवों को तरक्की की राह में रोड़ा बताते हुए दरकिनार कर दिया है। यह अच्छा हो रहा है कि आज का मुस्लिम युवा फतवों को दरकिनार करके जमाने के साथ चलने की कोशिश कर रहा है। कभी-कभी तो लगता है कि हमारे मुफ्तियों को क्योंकि रोजगार की चिंता नहीं है, इसलिए वे एसी कमरों में बैठकर इस तरह के फतवे जारी कर देते हैं, जो जमीनी हकीकत से कोसों दूर होते हैं। जिनका आज के जमाने में कोई औचित्य नहीं है। आज मुसलमानों को फतवों की नहीं, शिक्षा की जरुरत है। रोजगार की जरुरत है।

2 COMMENTS

  1. -सलीम अख्तर सिद्दीकी जी, बहोत बहोत सही लिखा, बिलकुल सही, सोच है आपकी। वक़्तके और देश- विदेश की कल्चर और आबोहवा के साथ भी समझौता करना चाहिए। वही कल्चर टिक पाता है, जो एडॉप्ट और एडॅप्ट करता है, वक़्तकी यही मांग हुआ करती है।हिस्ट्री ऑफ नेचर यही पाठ पढाती है।कहते हैं, डायनासोर बडा पॉवरफूल था, पर उसका दिमाग़ बहुत छोटा था, ताकि बदल न पाया, आज उसका निशान तो है, पर वह जीवित नहीं। इस्लामको इस खतरेसे बचानेके लिए, आपने बताए हुए बाहरी बदलाव पर सोचा जाए।
    आत्मा बदलनेकी बात नहीं, बाहरी आचार बदलनेके बारेमें इस्लामिक स्कॉलर मिल बैठकर सोचे, राह दिखाए। और मिडीया से चौकस रहे।
    ॥एक भलाई चाहक॥

  2. आज मुसलमानों को फतवों की नहीं, शिक्षा की जरुरत है। रोजगार की जरुरत है। सलीम अख्तर सिद्दीकी साहेब आज मुसलमान को शिक्षा की रोजगार की ज़रुरत है यह सौ फ़ीसदी सच है लेकिन फतवों की ज़रुरत नहीं यह कहना सही नहीं होगा. जैसे की आपने भी कह की कुरआन और हदीस की रोशनी में किया फैसले को फतवा कहते हैं. यह कहना की मुसलमान को कुरान और हदीस के फैसले (फतवे) की ज़रुरत नहीं, गुमराह करना होगा.
    समझने की बात यह है की किस मुफ्ती के पास इतना इल्म हैं जो कुरआन और हदीस की रोशनी में फैसला केर के फतवा दे सके. उसके पास जाओ. जाहिलों से फतवा मांगने पे यही हाल होगा जैसा आपने बताया. जाहिल से जब भी कुछ सीखोगे तोह ताफ्रेका पैदा होगा और आलिम से पूछोगे तोह सही राह पाओगे. इसलिये जुंग फतवों के खिलाफ नहीं जहालत के खिलाफ शुरू करें.

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