रिश्तों के मीठे बंधनों और प्यार के धागों का पर्व

0
143

-ललित गर्ग –

रक्षाबंधन एक खूबसूरत त्यौहार है जो प्यार, विश्वास, अपनापन एवं सुरक्षा का प्रतीक है यानी प्यार के धागों एवं मानवीय संवेदनाओं का पर्व। एक ऐसा पर्व जो घर-घर मानवीय रिश्तों में नवीन ऊर्जा का संचार करता है। बहनों में उमंग और उत्साह को संचरित करता है, वे अपने प्यारे भाइयों के हाथ में राखी बांधने को आतुर होती हैं। बेहद शालीन और सात्विक यह पर्व सदियों पुराना है। राखी के दो धागों से भाई-बहन ही नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा नाता रहा है। रक्षाबंधन का गौरव अंतहीन पवित्र प्रेम की कहानी से जुड़ा है। भाई और बहन के रिश्ते को यह फौलाद-सी मजबूती देने वाला है। आदर्शों की ऊंची मीनार है। सांस्कृतिक परंपराओं की अद्वितीय कड़ी है। रीति-रिवाजों का अति सम्मान है।  
इस दिन बहन भाई को तिलक लगाती है और उसके दाहिने हाथ में राखी बांधती है। मिठाई से उसका मंुह मीठा करती है। भाई अपनी बहन की रक्षा की कसम लेता है। उसे यकीन दिलाता है कि उसके सुख-दुख में वह उसके साथ है। इस तरह दोनांे के प्यार और भावनाओें  का आदान-प्रदान होता है। राखी के त्योहार का ज्यादा महत्व पहले उत्तर भारत में था। आज यह पूरे भारत में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इसे नारली पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है। लोग समुद्र मंे वरुण राजा को नारियल दान करते हैं। नारियल के तीन आंखों को भगवान शिव की तीन आंखें मानते हैं। दक्षिण भारत में इसे अवनी अविट्टम के नाम से जाना जाता है। पुराने जमाने में रक्षाबंधन का अलग महत्व था। आवागमन के साधन और सुविधाएं नहीं थीं। इसलिए ससुराल गयी बेटी के लिए यह सावन के महीने का विशेष पर्व था। राखी के बहाने स्वजनों और भाइयों से भंेट की भावना छिपी होती थी। सभी शादीशुदा लड़कियां मायके आती थीं। सखी-सहेलियां आपस में मिलती थीं, नाचती-गाती थी और अपने लगे   हाथ सुख-दुख भी मिल-बांट लेती थीं।
राखी का त्योहार कब शुरू हुआ, इसे ठीक से कोई नहीं जानता। कहते हैं देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तो दानव हावी होते नजर आने लगे। इससे इन्द्र बड़े परेशान हो गये। वे घबराकर वृहस्पति के पास गये। इन्द्र की व्यथा उनकी पत्नी इंद्राणी ने समझ ली थी। उसने रेशम का एक धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर इन्द्र के हाथ में बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इस युद्ध में इसी धागे की मंत्रशक्ति से इन्द्र की विजय हुई थी। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन रेशमी धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है। शायद इसी प्रथा के चलते पुराने जमाने में राजपूत जब युद्ध के लिए जाते थे तो महिलाएं उनके माथे पर तिलक लगाकर हाथ में रेशमी धागा बांधती थीं। इस विश्वास के साथ कि धागा उन्हें विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा।
महाभारत में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को पार कैसे कर सकता हूूं। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। श्रीकृष्ण ने कहा था कि राखी के रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर विपत्ति से बाहर आ सकते हैं। एक अन्य कथा के अनुसार सिंकदर जब विश्वविजय के लिए निकला तो उसकी पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु महाराज पुरू को राखी बांधकर मुंहबोला भाई बना लिया था और उससे सिकंदर को न मारने का वचन ले लिया था। पुरू ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का मान रखा और सिकंदर को जीवनदान दे दिया।
राखी की सबसे प्रचलित और प्रसिद्ध कथा के अनुसार मेवाड़ की विधवा महारानी कर्मावती को जब बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्वसूचना मिली तो वह घबरा गयी। रानी कर्मावती बहादुरशाह से युद्ध कर पाने में असमर्थ थी। तब उसने मुगल शासक हुमायूं को राखी भेजकर रक्षा की याचना की। हुमायूं ने राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंचकर बहादुरशाह के विरुद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती और उसके राज्य की रक्षा की। राखी के बारे में प्रचलित ये कथाएं सोचने पर विवश कर देती हैं कि कितने महान उसूलों और मानवीय संवेदनाओं वाले थे वे लोग, जिनकी देखादेखी एक संपूर्ण परंपरा ने जन्म ले लिया और आज तक बदस्तूर जारी है। आज परंपरा भले ही चली आ रही है लेकिन उसमें भावना और प्यार की वह गहराई नहीं दिखायी देती। अब उसमें प्रदर्शन का घुन लग गया है। पर्व को सादगी से मनाने की बजाय बहनें अपनी सज-धज की चिंता और भाई से राखी के बहाने कुछ मिलने के लालच में ज्यादा लगी रहती हैं। भाई भी उसकी रक्षा और संकट हरने की प्रतिज्ञा लेने की बजाय जेब हल्की कर इतिश्री समझ लेता है। अब राखी में भाई-बहन के प्यार का वह ज्वार नहीं दिखायी देता जो शायद कभी रहा होगा।
इसलिए आज बहुत जरूरत है दायित्वों से बंधी राखी का सम्मान करने की। क्योंकि राखी का रिश्ता महज कच्चे धागों की परंपरा नहीं है। लेन-देन की परंपरा मंे प्यार का कोई मूल्य भी नहीं है। बल्कि जहां लेन-देन की परंपरा होती है वहां प्यार तो टिक ही नहीं सकता। ये कथाएं बताती हैं कि पहले खतरों के बीच फंसी बहन का साया जब भी भाई को पुकारता था, तो दुनिया की हर ताकत से लड़कर भी भाई उसे सुरक्षा देने दौड़ पड़ता था और उसकी राखी का मान रखता था। आज भातृत्व की सीमाओें को बहन फिर चुनौती दे रही है, क्यांेकि उसके उम्र का हर पड़ाव असुरक्षित है। बौद्धिक प्रतिभा होते हुए भी उसे ऊंची शिक्षा से वंचित रखा जाता है, क्योंकि आखिर उसे घर ही तो संभालना है। नयी सभ्यता और नयी संस्कृति से अनजान रखा जाता है, ताकि वह भारतीय आदर्शों व सिद्धांतों से बगावत न कर बैठे। इन हालातों में उसकी योग्यता, अधिकार, चिंतन और जीवन का हर सपना कसमसाते रहते हंैं। इससे भी बड़ी चिंता का विषय यह है कि आज तो कन्या भ्रूणहत्या का रास्ता खोलकर भविष्य में जैसे राखी बांधने की परंपरा का अंत करने की ही साजिश रची जा रही है। इसलिए राखी के इस परम पावन पर्व पर भाइयों को ईमानदारी से पुनः अपनी बहन ही नहीं बल्कि संपूर्ण नारी जगत की सुरक्षा और सम्मान करने की कसम लेने की अपेक्षा है। तभी राखी का यह पर्व सार्थक बन पड़ेगा और भाई-बहन का प्यार शाश्वत रह पायेगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

15,459 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress