“महात्मा हंसराज जी का प्ररेणादायक, आदर्श एवं महनीय जीवन”

0
980


-मनमोहन कुमार आर्य,

                महर्षि दयानन्द सरस्वती, वैदिक धर्म वा आर्यसमाज की विचारधारा को आदर्श मानकर जिस व्यक्ति ने अपना जीवन देश व समाज से अज्ञान, अशिक्षा व अविद्या को दूर करने में समर्पित किया उसे हम महात्मा हंसराज जी के नाम से जानते हैं। जो मनुष्य अपने जीवन में धन-सम्पत्ति एवं अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करता हैउसका जीवन कुछ कष्टमय अवश्य होता है। छोटे-छोटे त्याग के कामों का उतना महत्व नहीं होता जितना अपने अधिकांश व प्रायः सभी सुखों के त्याग करने का होता है। इसी कारण देश के लिये बलिदान देने वालों को सर्वत्र नमन करने सहित उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रखकर उनसे प्रेरणा ग्रहण की जाती है। ऋषि दयानन्द की 30 अक्तूबर, सन् 1883 में मृत्यु होने पर उनके विचारों के अनुरूप शिक्षा का प्रचार करने के लिए जिस स्कूल व कालेज की स्थापना का प्रस्ताव आर्यसमाज, लाहौर की ओर से किया गया था उसको आगे बढ़ाने और सफल करने के लिये लगभग 22 वर्षीय महात्मा हंसराज जी ने 27 फरवरी, सन् 1886 को अपने जीवन-दान करने की घोषणा की थी। इसका सुखद परिणाम यह हुआ था कि आर्यसमाज लाहौर के द्वारा दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल स्थापित हो सका था जिसने समय के साथ उन्नति करते हुए देश से अविद्या दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। महात्मा हंसराज जी नवसृजित स्कूल के प्रिंसिपल बनाये गये थे। महात्मा जी ने डी.ए.वी. स्कूल से आजीवन बिना कोई वेतन लिये तन व मन से स्कूल व कालेज की सेवा का जो महाव्रत लिया था उससे उन्हें, उनके अपने परिवार के सदस्यों सहित उनके अपने भाई व उनके परिवार के सदस्यों को भी कठोर साधना एवं कष्टो का जीवन व्यतीत करना पड़ा। महात्मा जी ने एक गृहस्थी होते हुए अपने इस महाव्रत का पालन करके एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसकी उपमा हमें कहीं दिखाई नहीं देती। एक प्रकार से हम कह सकते हैं कि महात्मा जी ने आर्यसमाज के नौवें नियम का पालन किया जिसमें कहा गया था कि प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। महात्मा जी ने अपने त्यागपूर्ण कार्यों से अपनी नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति सहित धर्म, विद्या एवं संस्कृति तथा सबकी सामाजिक उन्नति में तत्पर होने का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है।

                महात्मा जी का जन्म दिनांक 19-4-1864 को ग्राम बजवाड़ा जिला होशियारपुर में लाला चुन्नीलाल जी के यहां हुआ था। 15 वर्ष की अवस्था में आर्यसमाज, लाहौर के प्रधान लाला साईंदास जी के सत्संग से उन पर आर्यसमाज का रंग चढ़ा। आपने सन् 1885 में गवर्नमेन्ट कालेज, लाहौर से बी0ए0 पास किया था। आप पंजाब में मेरिट में दूसरे स्थान पर थे। उन दिनों पंजाब में भारत के पंजाब, हरयाणा, हिमाचल प्रदेश एवं दिल्ली के कुछ भागों सहित पूरा पश्चिमी पाकिस्तान भी सम्मिलित था। इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि महात्मा हंसराज कितनी उत्कृष्ट प्रतिभा के धनी थे। यदि वह अंग्रेजों की नौकरी करना चाहते तो बड़े से बड़ा पद उनको मिल सकता था। आर्थिक प्रलोभनों में न फंसना और उन पर पूर्णतः विजय पाना अति दुष्कर कार्य है जिसे विरले ही कर पाते हैं। इसी कारण हंसराज जी के नाम के साथ महात्मा शब्द जुड़ा है जो एक वास्तविक महात्मा के सच्चे आदर्श रूप को प्रस्तुत करता है।

                महात्मा हंसराज जी ने 27 फरवरी, 1886 को आर्यसमाज लाहौर में महर्षि दयानन्द जी की स्मृति में स्थापित होने वाले डी.ए.वी. स्कूल व कालेज के प्राचार्य का दायित्व संभालने एवं अपना जीवन-दान देने की घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि वह डी.ए.वी. शिक्षा आन्दालेन के लिये अपना जीवनदान कर रहे हैं और अवैतनिक सेवा देंगे। उनकी इस घोषणा से डी.ए.वी, स्कूल की स्थापना में अत्यन्त लाभ हुआ। एक योग्य शिक्षक एवं प्रबन्धक का निःशुल्क व अवैतनिक मिलना बहुत बड़ी बात थी। इसका सकारात्मक प्रभाव अन्य शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के जीवन पर भी अवश्य पड़ा होगा, ऐसा हम अनुमान करते हैं। महात्मा जी का प्रस्ताव अधिकारियों द्वारा सहर्ष व कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार कर लिया गया था। इसके अनुसार ही दिनांक 1 जून, सन् 1886 को आप डी.ए.वी. स्कूल के मुख्याध्यापक बने। स्कूल की स्थापना से पूर्व आर्यसमाज के लिये त्महमदमतंजवत वि जीम ।तलंअंतजं पत्र का सम्पादन करते थे। आप इसके प्रत्येक अंक में अपना लेख भी देते थे। विद्यार्थी जीवन काल से ही आपने आर्यसमाज के लिये समर्पित भाव से कार्य किया। सन् 1891 में आप आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान बने। इसके दो वर्ष बाद आप आर्य प्रादेशिक सभा के प्रधान बने। स्कूल व कालेज का काम करते हुए तथा अन्य सामाजिक दायित्वों को सम्भालते हुए देश में जब-जब कहीं भूकम्प, दुष्काल, बाढ़, दंगो, महामारी आदि समस्यायें व आपदायें आयीं तो आपने पीड़ित बन्धुओं की सेवा व सहायता के लिये वहां आर्यसमाज के अपने सहयोगियों द्वारा शिविर स्थापित करवाकर लोगों के दुःखों को दूर करने का प्रयास किया। सन् 2011 में डी.ए.वी. स्कूल व कालेज का कार्यभाल सम्भाले हुए आपको 25 वर्ष पूरे हो रहे थे, उस समय डी.ए.वी. कालेज की आर्थिक व्यवस्था भी सन्तोषजनक थी, ऐसे समय में कालेज कमेटी की ओर से पद पर बने रहने की प्रार्थना करने पर भी आपने प्राचार्य पद से त्यागपत्र दे दिया और उससे पृथक हो गये। इसके बाद डीएवी आन्दोलन से प्रेम, लम्बे अनुभव व योग्यता के कारण सन् 1913 में आपको डी.ए.वी. कालेज कमेटी का प्रधान चुना गया। सन् 1914 आपके लिये काफी कष्टदायक रहा। आपकी धर्मपत्नी माता ठाकुर देवी जी का देहान्त हो गया। आपने बड़े धैर्य और आस्तिक भाव से इस वियोग के दुःख को सहन किया। आप इसके बाद के 24 वर्षों के जीवन में भी सक्रिय सामाजिक जीवन व्यतीत करते रहे।

                सन् 1918 में आप पंजाब शिक्षा सम्मेलन के अध्यक्ष बनाये गये। महात्मा हंसराज जी और महात्मा मुंशीराम जी दोनों इतिहास बनाने व इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने वाले महापुरुष हुए हैं। सन् 1923 में महात्मा मुंशीराम जी ने आगरा के पास मलकाना राजपूतों की शुद्धि का चक्र चलाया था। आर्यसमाज के विद्वान, नेता एवं कार्यकर्ता बड़ी संख्या में इस शुद्धि आन्दोलन में सक्रिय थे। आपने महात्मा मुंशीराम जी के साथ इस शुद्धि आन्दोलन में कार्य करके अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसके अगले वर्ष सन् 1924 में आप अखिल भारतीय शुद्धि सभा के प्रधान बनाये गये। वर्तमान समय में इस सभा का एक मासिक पत्र शुद्धि समाचार प्रकाशित होता है। विगत कुछ वर्षों से हमारे लेख इस पत्र में प्रकाशित होते रहते हैं। सन् 1927 में प्रथम आर्य-महासम्मेलन का आयोजन हुआ था। आप इस महासम्मेलन के अध्यक्ष बनाये गये थे। सन् 1933 में पंजाब प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का आपको प्रधान बनाया गया था। सन् 1937 में आप आर्य प्रादेशिक सभा के प्रधान थे। आपने स्वेच्छा से इस पद का भी त्याग कर दिया था।

                महात्मा जी के जीवन में दो अवसर ऐसे आये जब वह फूट-फूट कर रोये। पहली घटना मलाबार के मोपला विद्रोह से सम्बन्ध रखती है। महात्माजी के पास तस तार आया जिसमें सूचना दी गई थी कि मालाबार में खिलाफत-आन्दोलन के जनूनी मुसलमान कार्यकर्ताओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन की दिशा बदल दी और उन्होंने हिन्दुओं पर जघन्य अत्याचार किये। मलाबार में मोपला मुसलमानों ने निर्दोष हिन्दू स्त्री, पुरुषों व बच्चों का नरसंहार किया है। इस घटना का वृतान्त जानकर वह इतना रोए कि उनकी आंखे सूज गईं थी। उन्होंने तब खुशहाल चन्द जी, परवर्ती नाम महात्मा आनन्द स्वामी जी, सहित कुछ अन्य लोगों को मलाबार के पीड़ित लोगों की सहायतार्थ जाने एवं उनके दुःखों के घावों को भरने सहित धर्मान्तरित लोगों की शुद्धि आदि कार्यों के लिये प्रेरित किया था जिसे मिलकर किया गया। गांधी जी ने इस जघन्य घटना पर मौन साधा था तथा विरोध का एक शब्द भी नहीं कहा था। वर्तमान समय में इस स्थान पर आर्यसमाज के लोगों द्वारा एक गुरुकुल भी संचालित किया जा रहा है। मलाबार की इस घटना पर वीर सावरकर जी मोपला विद्रोह के नाम से एक उपन्यास लिखा है। जिसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है। इस घटना को विस्तार से जानने के लिये इस उपन्यास को अवश्य पढ़ना चाहिये। महात्मा जी दूसरी बार तब रोये थे जब वीर स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान हुआ था। दूसरे दिन 24 दिसम्बर को स्वामी अमर स्वामी जी महात्मा जी के पास गये थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी पर चर्चा होने के दौरान महात्मा हंसराज जी फूट-फूट कर रोये थे। यह घटना महात्मा हंसराज जी के स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रति आदर भाव को सूचित करती है। महात्मा हंसराज जी का जीवन अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं से भरा हुआ है। उनसे जुड़ी हुई अनेक प्रेरक घटनाओं है। स्नानाभाव के कारण उन्हें यहां प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। हम प्रयत्न करेंगे कि समय समय पर हम उनके प्रेरणादायक प्रसंग प्रस्तुत करते रहे।

                महात्मा हंसराज जी की दिनचर्या को जानना भी हमारे लिये उपयोगी है। वह प्रातःकाल जल्दी उठा करते थे। सूर्योदय से पूर्व ही वह शौच, स्नान, सन्ध्या तथा यज्ञ आदि कर लिया करते थे। वायु सेवन के लिये महात्मा जी प्रातः बाहर भ्रमण के लिये जाया करते थे। यदा-कदा डम्बल का व्यायाम भी किया करते थे। इसके बाद महात्मा जी स्वाध्याय किया करते थे। ऋषि के ग्रन्थों सहित वेदों का स्वाध्याय करना उनके जीवन का अंग था। वह ठीक समय पर अपने डीएवी कालेज जाया करते थे। वह ऐसे प्राचार्य थे जो अपने विद्यार्थियों को पढ़ाया भी करते थे। वह धर्म शिक्षा भी पढ़ाते थे और हिन्दी न जानने वालों को हिन्दी की वर्णमाला भी सिखाया करते थे। कालेज से घर आकर कुछ समय विश्राम किया करते थे। इसके बाद महात्मा जी कालेज व आर्यसमाज के लोगों से भेंट भी किया करते थे। सांयकाल की सन्ध्या वह छात्रावास में विद्यार्थियों के साथ बैठकर किया करते थे। कालेज से स्वैच्छिक सेवा निवृति लेने के बाद भी वह सायं की सन्ध्या विद्यार्थियों के साथ ही किया करते थे। सायं खाली समय में वह निकटवर्ती आर्यसमाज के उत्सवों में जाया करते थे। रात्रि भोजन के बाद जो विद्यार्थी, मित्र व श्रद्धालु उनसे मिलने आते थे, उनसे बातें भी किया करते थे। कालेज के अवकाश के दिनों में वह दूर व पास के आर्यसमाज के उत्सवों में जाया करते थे।

                सन् 1938 में उनकी आयु का 74 वां वर्ष पूरा होकर 75 वां वर्ष आरम्भ हुआ था। आपने जीवन भर जो कठोर तपस्या व साधना की थी उसके कारण शरीर कमजोर व वृद्ध हो गया था। वह मृत्यु से कुछ समय पूर्व हरिद्वार के मोहन राकेश आश्रम में आये थे जहां उन्हें उदर-शूल का रोग हो गया था। यहां से वह लाहौर लौट आये। कुछ समय हिमाचल प्रदेश सोलन में अपने एक भक्त लाला यशवन्तराय एम.ए. के पास भी रहे। लाभ न होने पर पुनः लाहौर आ गये। योग्य डाक्टरों ने महात्मा जी की चिकित्सा की परन्तु लाभ नहीं हो रहा था। परिवारजनों व भक्तों ने भी उनकी बहुत देखभाल व सेवा की। महात्मा आनन्द स्वामी जी ने उन्हें कहा था कि अभी आपकी बहुत आवश्यकता है। महात्मा जी ने उत्तर दिया होगी! परन्तु जब समय जाता है तो फिर आवश्यकता नहीं देखी जाती। प्रभु की इच्छा पूर्ण होती है। रोग के चलते 15 नवम्बर, सन् 1938 को महात्मा जी का लाहौर में देहावसान हो गया। ‘‘ओ३म् का उच्चारण करते हुए और वेदों के पवित्र मंत्रों का पाठ सुनते हुए वह संसार से चले गये। उनका अन्तिम सन्देश था कि ऊंचे व्यक्तियों के बलिदान से ही यह कार्य (आर्यसमाज सफल) हो सकता है। महात्मा जी के जाने से आर्यसमाज का एक देदीप्यान नक्षत्र अस्तांचल में छिप गया। जब तक यह सूर्य, चन्द्र व पृथिवी है, महात्मा हंसराज जी का यश व कीर्ति अमर रहेगी। हम महात्मा हंसराज जी को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि प्रस्तुत करते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here