गीता की महत्ता और संस्कृत-शिक्षा की उपेक्षा

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मनोज ज्वाला

गीता हमारे राष्ट्र-जीवन को संजीवनी-शक्ति प्रदान करते रहनेवाली ‘सदानीरा’ है। इसमें भारतीय ज्ञान-विज्ञान को व्याख्यायित करनेवाले संस्कृत शास्त्रों-वेदों-पुराणों-उपनिषदों के सार-तत्व विद्यमान हैं। शासनिक उपेक्षा के कारण संस्कृत का पठन-पाठन दुर्लभ होते जाने के कारण प्राचीन भारतीय ग्रन्थों-शास्त्रों से जन-सामान्य की अनभिज्ञता के बावजूद गीता’की सार्वकालिकता-सार्वदेशिकता और सर्वस्वीकार्यता आज भी विद्यमान है। यूरोप को गीता से प्रथम परिचय भारत में व्यापार करने आई ईस्ट इण्डिया कम्पनी और उसके साथ ईसाइयत का प्रचार करने आई चर्च मिशनरियों के माध्यम से तब हुआ, जब कम्पनी के गवर्नर ने उसके एक कर्मचारी चार्ल्स विलिकन्स (1749-1836) के द्वारा सन 1776 में इसका अंग्रेजी-अनुवाद कराया। बाद में एडविन अर्नाल्ड नामक अंग्रेज विद्वान ने भी ‘दी सांग सेलेस्टियल’ शीर्षक से गीता का भाष्य अंग्रेजी में लिखा, जो 1885 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक से गीता यूरोप में दार्शनिक आध्यात्मिक तर्क-वितर्क बहस-विमर्श की कसौटी बन गई। जिस प्रकार विलियम जोन्स (1746-1794) ने ‘मनुस्मृति’ का अनुवाद कम्पनी की कानून-व्यवस्था को सुदृढ़ करवाने के लिए करवाया था, उसी तरह कम्पनी के औपनिवेशिक शासन की जड़ें जमाने के निमित्त भारत की भाव-भूमि समझने के लिए तत्कालीन अंग्रेज गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने इसका अंग्रेजी अनुवाद करवाया था। फ्रेंच विद्वान डुपरो ने 1778 में इसका फ्रेंच में अनुवाद किया तथा इसे ‘भोगवाद से पीड़ित पश्चिम की आत्मा को अत्यधिक शांति देनेवाला’ बताया। जर्मन दार्शनिक श्लेगल ने गीता से प्रभावित होकर कहा था कि ‘यूरोप का सर्वोच्च दर्शन, उसका बौद्धिक अध्यात्मवाद जो यूनानी दार्शनिकों से प्रारम्भ हुआ, प्राच्य अध्यात्मवाद के अनन्त प्रकाश एवं प्रखर तेज के सम्मुख ऐसा प्रतीत होता है जैसे अध्यात्म के प्रखर सूर्य के दिव्य प्रकाश के भरपूर वेग के सम्मुख एक मंद-सी चिंगारी हो, जो धीरे-धीरे टिमटिमा रही है और किसी भी समय बुझ सकती है।’अमेरिका के प्रसिद्ध दार्शनिक विल डयून्ट तथा हेनरी डेविड थोरो और इमर्सन से लेकर वैज्ञानिक राबर्ट ओपन हीमर तक सभी गीता ज्ञान से आलोकित हुए। थोरो स्वयं बोस्टन से 20 किलोमीटर दूर बीहड़ वन में, वाल्डेन में एक आश्रम में बैठकर गीता अध्ययन करते थे। इमर्सन एक पादरी थे, जो चर्च में बाइबिल का पाठ करते थे। परन्तु, रविवार को उन्होंने चर्च में गीता का पाठ प्रारम्भ कर दिया था। विरोध होने पर उन्होंने गीता को ‘यूनिवर्सल बाइबिल’ कहा था। उन्होंने गीता का अनुवाद भी किया था। वैज्ञानिक राबर्ट ओपनहाबर ने 16 जुलाई, 1945 को अमेरिका के न्यू-मैक्सिको रेगिस्तान में जब अणु बम का प्रथम परीक्षण किया गया तो उसके विस्फोट से अनन्त सूर्य सदृश ज्वालाओं को देखकर उसे गीता के विराट स्वरूप का दर्शन हुआ और वह त्यागपत्र देकर गीता-भक्त बन गया था। टी.एस. इलियट ने गीता को ‘समस्त मानवीय वांग्मय की अमूल्य निधि’ बताया है। संसार की विभिन्न सभ्यताओं के विशेषज्ञ टायनवी ने स्वीकार किया है कि ‘अणुबम से विध्वंस की ओर जाते पाश्चात्य जगत को पौर्वात्य, भारतीय तत्वज्ञान अर्थात गीता को आत्मसात करना पड़ेगा, जो समस्त जड़-चेतन के भीतर आत्मा की व्यापकता व अमरता का साक्षात्कार कराता है।’ मृत्यु-शैय्या पर पड़े प्रसिद्ध जर्मन विद्वान शोपनहावर को गीता पढ़ने से जीवनदान मिला था। उसने कहा था कि ‘भारत मानव जाति की पितृ-भूमि है।’ जर्मनी के ही एक विश्व-प्रसिद्ध विद्वान कांट, जो भूगोल व खगोल का अध्यापक था, उसके जीवन की दिशा गीता पढ़कर इस कदर बदल गई कि वह दर्शन-शास्त्र का पंडित बन गया। नोबल पुरस्कार-प्राप्त फ्रेंच विद्वान रोमां रोलां को स्वीकार करना पड़ा कि ‘गीता ने यूरोप की अनेक आस्थाओं को धूल-धूसरित कर मानव जाति की दार्शनिक-आध्यात्मिक बौद्धिकता को नवदृष्टि प्रदान की है।’ एक अंग्रेज विद्वान ने तो यहां तक कहा है कि ‘जिस देश में गीता मौजूद है, वहां क्रिश्चियनिटी और बाइबिल का प्रचार करना व्यर्थ है।’ लेकिन ब्रिटेन पर औपनिवेशिक साम्राज्यवाद और वेटिकन सिटी पर ईसाई विस्तारवाद का भूत सवार था। इस कारण भारत में ब्रिटिश शासन का अत्याचार और मिशनरियों का बाइबिल प्रचार साथ-साथ चलता रहा।कालान्तर बाद उसी यूरोपीय औपनिवेशिक अंग्रेजी शासन के विरूद्ध जनजागरण-आंदोलन के निमित्त प्रेरणा-विचारणा ग्रहण करनेवाले लोकमान्य तिलक ने गीता-रहस्य लिखकर जन-मानस को अंग्रेजी आतंक-अन्याय-अत्याचार के विरूद्ध स्वराज्य के लिए प्रेरित किया, तो महात्मा गांधी ने गीता के अनासक्त कर्म-योग को अपने विचारों के सम्प्रेषण-प्रवचन का माध्यम बनाकर स्वराज-स्वतंत्रता को जन-जन की आकांक्षाओं से जोड़ दिया। बंकिमचन्द्र के उपन्यास ‘आनंदमठ’ से उत्तेजित होकर अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने की बाबत सशस्त्र क्रांतिकारी बने नौजवानों की प्रेरक-शक्ति गीता ही थी। राष्ट्र की संस्कृति व स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व न्योछावर कर देने का भाव जगाने में लोकमान्य तिलक रचित ‘गीता रहस्य’ का योगदान सर्वाधिक था। यह सचमुच आश्चर्य चकित करनेवाला तथ्य है कि बर्मा के मंडाले जेल में कालापानी भुगतते हुए तिलक ने नवम्बर 1910 से मार्च 1911 के बीच मात्र एक सौ पांच दिनों में ही बारह सौ दस पृष्ठों का यह भाष्य-ग्रंथ लिख दिया था। उन दिनों लोकमान्य के गीता-भाष्य से राष्ट्रधर्म के लिए आत्म-बलिदान की भावनाओं का जागरण हुआ, तो गांधीजी के गीता-प्रवचन से सत्य और असत्य के बीच संघर्ष में सत्य की जीत के प्रति आश्वासन पुष्ट हुआ। अनगिनत क्रांतिकारियों ने गीता से ही प्रेरणा ग्रहण कर भारत-राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए फांसी के फंदों को गले लगा लिया। गीता के विविध भाष्यों के प्रभाव से देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध जाग्रत हुई राष्ट्रीय चेतना और क्रांतिकारियों की आत्मोत्सर्गी भावना से ब्रिटिश हुक्मरानों को यह संदेह होने लगा था कि इसमें कहीं बम-बारूद बनाने और विद्रोह-बगावत भड़काने के सूत्र-समीकरण तो नहीं भरे हुए हैं। जांच कराने पर पता चला कि इसमें तो अन्याय-अत्याचार के विरूद्ध युद्ध-कर्म बनाम कर्म-योग ज्ञान-योग व भक्ति-योग विषयक ‘विचार-बम’ भरे पड़े हैं।गीता वास्तव में प्राचीन भारतीय ज्ञानधारा का सबसे धवल स्रोत है। आदि शंकराचार्य ने इसे अपने ‘प्रस्थानत्रयी’ में स्थान दिया है। उन्होंने प्रस्थानत्रयी के अन्तर्गत वेदान्त सूत्र, एकादश उपनिषदों (ईशावास्य, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर, छान्दोग्य व बृहदरण्यक) के साथ गीता को भी सम्मिलित किया और इन सभी पर भाष्य लिखा। शंकराचार्य के बाद कोई ऐसा संप्रदाय प्रवर्तक, आचार्य या दार्शनिक भारत में नहीं हुआ जिसने अपने मत का प्रतिपादन करने के लिए गीता का आश्रय न लिया हो। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, भास्कराचार्य, वल्लभाचार्य, श्रीधर स्वामी, आनन्द गिरि, संत ज्ञानेश्वर आदि मध्यकालीन आचार्यों ने भी तत्कालीन युगानुकूल आवश्यकतानुसार भगवद्गीता के ऐसे-ऐसे भाष्य-भाषण व व्याख्यान-विश्लेषण प्रस्तुत किए कि शासन-संचालित धर्मान्तरण की आंधी में भी हमारा समाज पूरी तरह स्खलित नहीं हुआ। राष्ट्र की सांस्कृतिक अक्षुण्णता कायम रही। गीता के तत्व-ज्ञान और उसके विविध भाष्यों से हुए लोक-शिक्षण के कारण ही कुरान और बाइबिल नामक दोनों तथाकथित आसमानी किताबें हमारे देश के जन-मन और राष्ट्र-जीवन में जड़ें नहीं जमा सकी और उन दोनों ‘आसमानी किताबियों’ के धर्मान्तरण अभियान उनकी राज-सत्ता से संरक्षित होने के बावजूद असफल ही रहे। हमारे राष्ट्र का इस्लामीकरण और ईसाईकरण नहीं हो सका। थोड़े-बहुत परिमाण में लोग धर्मान्तरित हुए भी तो उन आसमानी किताबों के आकर्षण से अथवा उनके किसी ज्ञान (जो उनमें है ही नहीं) से प्रभावित होकर नहीं, बल्कि उन किताबवादियों की राज-सत्ता से पीड़ित-प्रताड़ित होकर हुए। गीता के तत्व-ज्ञान की ऊर्जा के बदौलत ही सदियों तक हम आसमानी किताबियों के जेहादी जंग व धर्मान्तरण अभियान से टक्कर लेते रहे। उनके मुगलिया सल्तनत और औपनिवेशिक शासन से भी मुक्त हो सके। अतएव गीता के ज्ञान और संस्कृत के पठन-पाठन को व्यापक बनाने के प्रति समाज और शासन दोनों को गम्भीर पहल करनी चाहिए।

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