मनुष्य का परिचय

0
337

-मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य का परिचय क्या है? हम मनुष्य हैं और अपने जीवनकाल में अनेक स्थानों पर हमें अपना परिचय देना होता है। हम वहां कहते हैं कि मेरा अमुक नाम है, मैं अमुक मात-पिता की सन्तान हूं। मैं अमुक स्थान पर रहता है। मेरी शिक्षा दीक्षा बी.ए. या एम.ए. अथवा विज्ञान स्नातक या स्नात्कोत्तर है। डाक्टर या इंजीनयर हूं। स्वपोषक व्यवसायी या सरकारी अधिकारी आदि हूं। ऐसे कुछ वाक्य और भी बोले जाते हैं। हम समझते हैं इन शब्दों वा वाक्यों में हमारा अधिकांश परिचय आ जाता है। जिसको परिचय बताया जाता है वह भी इससे सन्तुष्ट हो जाता है। वास्तविकता यह भी है कि अपने बारे में इससे अधिक हम जानते भी नहीं हैं। प्रश्न है कि क्या यह हमारा वास्तविक व पूर्ण परिचय है? यह हमारा पूर्ण परिचय नहीं है। इस परिचय में बहुत से तथ्य नदारद हैं। हम जब वैदिक शास्त्र व ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि हम शरीर नहीं अपितु आत्मा है। हमारी आत्मा एक चेतन तत्व है। हमारा शरीर प्रकृति के परमाणुओं से बना हुआ एक जड़ पदार्थ है जो समय के साथ पुराना व बूढ़ा होगा और अन्त में इसकी मृत्यु होगी और यह नष्ट हो जायेगा। जिस प्रकार रथ में रथ व सारथी होता है उसी प्रकार से हमारा शरीर एक रथ के समान है जिसमें सारथी की भूमिका में हमारी आत्मा हैं। हमारी आत्मा अर्थात् हम इस शरीर को जैसा चाहते हैं वैसा ही यह चलता है। आत्मा व मनुष्य के लिए दो मार्ग हैं एक श्रेय मार्ग है और दूसरा प्रेय मार्ग है। श्रेय मार्ग ईश्वर की ओर ले जाता और आत्मा का कल्याण करता है वहीं प्रेय मार्ग मनुष्य को ईश्वर के विपरीत संसार की ओर ले जाता है जो कल्याण का मार्ग न होकर परिणाम में दुःख व अवनति का मार्ग होता है। मनुष्य का जन्म आत्मा और परमात्मा को जानने व परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के लिए ही हुआ है।

 

मनुष्य को तीन ऋणों से उऋण होना होता है। यह ऋण है परमात्मा का ऋण, ऋषियों सहित माता-पिता का ऋण और राष्ट्र का ऋण। परमात्मा का ऋण इस कारण से है कि उसने हमारे व हमारे समान जीवात्माओं के सुख व अपवर्ग के लिए यह संसार व इसमें नाना प्रकार के सुख भोग की सामग्री को बनाया है। उस परमात्मा ने ही हमें ऋषि, विद्वान व माता-पिता सहित सगे संबंधी आदि कुटुम्बी प्रदान किये हैं। इस कारण से हम परमात्मा के भी ऋणी हैं और ऋषियों, विद्वानों व माता-पिता आदि ज्ञानवृद्ध जनों के भी ऋणी हैं। परमात्मा ने हमें वेदों का ज्ञान दिया है जिससे इस संसार को यथार्थ रूप में जाना जाता है। यदि वह वेदों का ज्ञान न देता तो आदिकाल में हमारे पूर्वज भाषा व ज्ञान को प्राप्त न कर पाते अर्थात् उन्हें ईश्वर, आत्मा व संसार का यथार्थ ज्ञान न होता। यह ज्ञान आरम्भ में वेद से ही हुआ, अतः संसार की समस्त मानव जाति परमात्मा की ऋणी है। माता-पिता ने हमें जन्म दिया, दूसरा विद्या रूपी जन्म हमें आचार्यों, गुरुओं व विद्वानों आदि से हुआ। अतः इन महानुभावों के भी हम ऋणी हैं। यह पृथिवी हमारी माता के समान है। अथर्ववेद में इसे माता के नाम से ही सम्बोधित किया गया और स्वयं को भूमि का पुत्र कहा गया है। अतः एक पुत्र के माता- पिता के प्रति जो कर्तव्य होते हैं, वही कर्तव्य हमारे भी भूमि माता के प्रति हैं। हमारी भूमि माता हमारा राष्ट्र है। जिस मनुष्य में देश भक्ति न हो वह देश का शत्रु कहलाता है। हमें देशभक्त बनना है न कि देश का शत्रु। इन सभी ऋणों से भी हमें निवृत्त व उऋण होना है। शास्त्र बतातें हैं कि इसके लिए हमें पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान प्रतिदिन करना है। ऐसा करके ही हम इन तीन ऋणों से उऋण हो सकते हैं। यह पंचमहायज्ञ सन्ध्या, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ हैं। इन पंच महायज्ञों की विधि विधान का पुस्तक ऋषि दयानन्द सरस्वती जी ने लिखा है। पंचमहायज्ञों की पुस्तक को आर्यसमाज या आर्य साहित्य विक्रेता से लेकर देखा जा सकता है और इसके अनुसार इन यज्ञों को सभी को दैनन्दिन करना भी चाहिये।

 

मनुष्य जड़ शरीर नहीं अपितु इस रथ रूपी शरीर में निवास करने वाला चेतन आत्मा है। यह आत्मा अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अमर, अविनाशी, सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम है। यह कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। आत्मा अग्नि से जलता नहीं, वायु से सूखता नहीं, न यह बच्चा होता है, न युवा और न ही वृद्ध होता है। हमारी यह सृष्टि प्रवाह से अनादि व अन्तरहित है। रात्रि व दिवस के समान यह सृष्टि भी निरन्तर बनती बिगड़ी रहती है। ईश्वर से इसकी रचना होती है व यथा समय उसी से प्रलय होती है। प्रलय के बाद पुनः इसकी सृष्टि व रचना होती है। यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और हमेशा चलता रहेगा। यह सृष्टि मनुष्यों के कर्मों के फल भोग के लिए बनती है अर्थात् परमात्मा इसे बनाता है। अतः मनुष्य हमेशा से जन्म लेता आया है और अनन्त काल तक इसके जन्म व मृत्यु होती रहेगी। कुछ मनुष्य भाग्यशाली होते हैं जो वेदज्ञान को प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण करते हैं। वह मृत्यु होने पर मुक्त हो जाते हैं और लम्बी अवधि के लिए जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त रहते हैं। वह दुःखों से सर्वथा रहित होते हैं। मुक्ति में अनन्त आनन्द है जो ईश्वर के सान्निध्य से मुक्त जीवात्माओं को प्राप्त होता है। मुक्ति की अवधि पूरी होने पर मुक्त जीवात्माओं का पुनः मनुष्य योनि में जन्म होता है। यह सब जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव व उसके अस्तित्व के प्रमाण हैं।

 

ऋषि दयानन्द जी वेदादि शास्त्रों के शीर्षस्थ विद्वान थे। उन्होंने लिखा है कि आत्मा चेतनस्वरूप है। जीवात्मा का स्वभाव पवित्रता व धार्मिकता आदि है।  जीव के सन्तानोत्पत्ति करना, उन सन्तानों का पालन करना, शिल्पविद्या आदि अच्छे बुरे कर्म करना कर्तव्य व अकर्तव्य आदि हैं। न्याय दर्शन के आधार पर आत्मा के लिंग बताते हुए वह कहते हैं कि जीवात्मा पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा करता है तथा दुःखादि की अनिच्छा करता है। इसके अतिरिक्त वैर, पुरुषार्थ, बल, आनन्द, विलाप, अप्रसन्नता, विवेक, पहिचानना आदि इसके लिंग व चिन्ह हैं।  प्राणवायु को बाहर निकालना, प्राण को बाहर से भीतर को लेना, आंख को बन्द करना, आंख को खोलना, प्राणों को धारण करना, निश्चय, स्मरण और अहंकार करना, पैरों से यत्र तत्र आना-जाना व चलना, सब इन्द्रियों को विषयों में चलाना, भिन्न-भिन्न प्रकार की क्षुधा अर्थात् भूख, प्यास, हर्ष, शोकायुक्त होना, ये जीवात्मा के गुण हैं। जीवात्मा के यह गुण परमात्मा से पृथक हैं। इन्हीं गुणों से आत्मा की प्रतीती होती है अर्थात् यह गुण आत्मा का परिचय हैं।

 

अतः हमारा पूरा परिचय तभी होता है जब हम अपनी आत्मा के गुणों का भी उल्लेख करें। यदि हम आत्मा के गुणों को नहीं जानते और परिचय पूछने पर उनकी किंचित चर्चा नहीं करते तो हमारा परिचय कराना अपूर्ण परिचय होता है। अतः हमें अपनी आत्मा के गुणों व उसके चिन्हों को अवश्य जानना चाहिये। इन्हें जानकर ही हम विज्ञ व विप्र होते हैं। जीवात्मा को जानकर हमें ईश्वर को भी जानना होता है। ईश्वर का ज्ञान भी वेद, वैदिक साहित्य, उपनिषद आदि सहित सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय आदि के द्वारा ठीक-ठीक होता है। यह जान लेने पर हमें अपना कर्तव्य ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना सहित ज्ञान प्राप्ति कर तीन ऋणों से उऋण होने के लिए प्रयत्न व पुरुषार्थ करना निश्चित होता है। संक्षेप से हमने यहां आत्मा के गुणों आदि की चर्चा की है। आशा है पाठक इससे लाभान्वित होंगे। ओ३म् शम्।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,673 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress