भारत में भाषा का मसला (१)


विश्व के अधिकांश राष्ट्रों की कोई एक राष्ट्रभाषा है, भारत की नहीं। मजे की बात यह है कि भारत के अधिकांश लोगों को यह तथ्य पता नहीं है कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। जब हम लोगों से पूछते हैं कि भारत की राष्ट्रभाषा कौन सी है तो अच्छे पढ़े लिखे लोगों से भी जवाब मिलता है- हिन्दी। हजारों में कोई एक आध व्यक्ति इस तथ्य से परिचित है कि भारत की अभी तक कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। वस्तुतः भाषा के मसले पर बात करना तो दूर अधिकांश लोगों को यह विषय विचारणीय भी नहीं लगता।

हम सबकी भी अभिलाषा है कि भारत की भी एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए लेकिन भारत की अन्य समस्याओं की तरह भाषा का मसला भी  बहुत पेचीदा है। इस मामले को किसी एक भाषा को आगे रखकर हल कर पाना असंभव नहीं तो बहुत मुश्किल अवश्य है। 

बहुसंख्यक लोग चाहते हैं कि  हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त हो लेकिन जैसे ही वे हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रयास करते हैं वैसे ही हम अन्य भारतीय भाषाओं को हिन्दी के विरोध में और अंग्रेजी के पक्ष में खड़ा पाते हैं। अन्य भारतीय भाषाओं को हिन्दी से क्या भय है, हमें समझना होगा और समझ कर उन भाषाओं को हिन्दी के भय से मुक्त करना होगा। इसलिए हमें  तय करना होगा कि  हम चाहते क्या हैं?

हम भारत के लिए एक राष्ट्रभाषा चाहते हैं या हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं। यदि हम भारत के लिए एक राष्ट्रभाषा चाहते हैं तो यह एक उचित अभिलाषा है लेकिन यदि हम हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं तो इसका औचित्य सिद्ध करना आवश्यक है।

भारत के संविधान में 22 भाषाएं सूचीबद्ध है जिन्हें संवैधानिक भाषाओं का दर्जा प्राप्त है। यदि हम हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं तो हमें बताना होगा कि अन्य 21 संवैधानिक भाषाओं के मुकाबले में हिन्दी ही क्यों भारतीय राष्ट्रभाषा बनने के योग्य है

हम हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा क्यों बनाना चाहते हैं?

क्योंकि हिन्दी बहुसंख्यक वर्ग की भाषा है,

क्योंकि हिन्दी हमारी मातृभाषा है,

क्योंकि हिन्दी हमारी क्षेत्रीय भाषा है,

क्योंकि हिन्दी हमारे दैनंदिन व्यवहार की भाषा है,

क्योंकि हम बचपन से हिन्दी बोलते आए हैं, इसलिए हमें हिन्दी से लगाव है,

क्योंकि हिन्दी हम बचपन से बोलते आए हैं इसलिए हमें वह सरल लगती है

क्योंकि हिन्दी हमारी भाषा है इसलिए हमें उसके प्रति सम्मान है,

क्योंकि हिन्दी हमारी भाषा है इसलिए हम उसे ही सर्वश्रेष्ठ भाषा मानते हैं।

अपनी भाषा के पक्ष में ये सारे तर्क जायज़ और स्वीकार्य होते यदि भारत में केवल हिन्दी ही प्रचलन में होती लेकिन ऐसा न है, न हो सकता है। 

वसुधैव कुटुंबकम् की धारणा पर सृजित हमारा भारत देश विविध भाषाओं, विविध संस्कृतियों, विविध धर्मों, विविध जीवन शैलियों, विभिन्न जातियों का समूह है। अतः यहां हमें यह भी तो विचार करना ही होगा कि भारत में जो गैर हिन्दी भाषी लोग हैं उन्हें भी तो अपनी भाषा के प्रति ऐसा ही लगाव है, ऐसा ही सम्मान है जैसा कि हमें हिन्दी के प्रति है। क्या यह कहना न्यायपू्र्ण होगा कि हम तो हिन्दी के पक्ष में यह सारे तर्क रखें, यह सारे आग्रह रखें लेकिन भारत में जो अन्य भाषाएं बोलने वाले हैं वह अपनी भाषा के प्रति सब आग्रहों को  हिन्दी के पक्ष में छोड़ दें? यह तो दुराग्रह  ही कहा जाएगा। इस आग्रह के चलते भारत आज तक एक राष्ट्रभाषा पा नहीं सका है और कभी भी पा सकेगा इसमें मुझे संदेह है

यदि हम भारत की एक राष्ट्रभाषा चाहते हैं तो 

सभी भारतवासियों को किसी भाषा विशेष को ही राष्ट्रभाषा बनाने का आग्रह छोड़ना होगा।

भाषा के मुद्दे पर आपसी लड़ाई छोड़कर सभी 22 भाषाओं के बोलने वालों को, व्यवहार करने वालों को सर्वग्रासी अंग्रेजी के विरुद्ध एकजुट होना होगा,

भारत की सभी भाषाओं को एक दूसरे में समरस होने के लिए हिलने मिलने की पूरी आजादी और वातावरण देना होगा।

तब कहीं जाकर हम भारत की एक राष्ट्रभाषा पाने में सफलता प्राप्त कर पाएंगे।

कहावत है कि बिल्लियों की लड़ाई में अक्सर बंदर का ही भला होता है। इसी तरह अगर भारत की विभिन्न भाषाओं के बोलने वालों ने अपनी-अपनी भाषाओं को आगे रखने के लिए, अपनी-अपनी भाषाओं के पक्ष में आग्रह ना छोड़े, एकजुटता नहीं दिखाई तो इससे किसी और का नहीं केवल और केवल अंग्रेजी का ही भला होने वाला है। अंग्रेजी के वर्चस्व का अर्थ है भारत की केवल भाषा ही नहीं भारत की संस्कृति, भारत के दर्शन, भारत की जीवन शैली भारत की परंपराएं, भारत की विविधता

सबका विनाश यानी भारत का सर्वनाश। ऐसा हुआ तो भारत, भारत नहीं रह जाएगा वह पूरी तरह इंडिया हो जाएगा। इंडिया का मतलब है गुलामी, गुलामी और गुलामी।

हमें चयन करना होगा कि हम भारत को एक स्वतंत्र और मजबूत राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं या हम इंडिया होना चाहते हैं। यदि हम भारत को एक स्वतंत्र और मजबूत राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो हमें अपने आग्रह छोड़ कर एकजुट हो जाना चाहिए। समझदारी इसी में है।

ब्र. विजयलक्ष्मी

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