आशुतोष
संतों भाई, आई ज्ञान की आंधी।
भ्रम की टाटी सबै उड़ाणी, माया रहे न बाकी।
आंधी तो आंधी है। वह जब आती है तो सब कुछ उड़ा ले जाती है। ऊंचा-नीचा, अच्छा-बुरा, उजला-काला, रात-दिन, कुछ नहीं देखती। सामने तिनका हो या पूरा पेड़, वह उसे उड़ा ले जाने की कोशिश करती है। तिनके नाजुक भी होते हैं और हल्के भी। जिसमें अपना वजन नहीं होता वह हवाओं के सहारे ही उड़ते हैं। जमीन से जुड़ाव खत्म होने के बाद तिनकों की यही नियति होती है। यह उड़ान नहीं भटकाव है। मिट्टी में मिल जाने की प्रक्रिया है।
वृक्ष अपनी जड़ों को धरती में गहरे तक उतार देता है। धरती से यह रिश्ता ही उसे जीवनी शक्ति देता है। उसके अंदर प्राण का संचार करता है। उसे आंधी-तूफानों के सामने सीना तान कर खड़े होने का हौंसला देता है।
आंधी में ताकत है। वेग है। जो भी सामने आये उसे अपने साथ उड़ा ले जाने का जुनून है। सब कुछ तहस-नहस कर देने का माद्दा है।
कबीर ने आंधी के इस चरित्र को आध्यात्मिक रहस्यवाद में पिरोया है। माया के अंधेरे में ज्ञान का उजाला फैलाने की साधना भारत की ऋषि परम्परा में जीने वाले महापुरुष करते रहे हैं। ज्ञान की आंधी चला कर भ्रम की टाटी उड़ाने वाले को ही लोग गुरु मानते हैं। उनका अनुगमन करते हैं। मानते हैं कि वह गुरू ही उन्हें बेहतर जीवन का मार्ग दिखायेंगे। भ्रम दूर होगा, सत्य से साक्षात्कार होगा।
पश्चिम की दुनियां में ऐसे संतों का अब अकाल ही है, लेकिन भारत में आज भी सच्चा गुरु खोज लेना बहुत कठिन नहीं है। प्रोद्योगिकी के चलते इसमें और अधिक सुविधा हो गयी है। अब टेलीविजन पर देख कर ही लोग गुरु का चुनाव कर लेते हैं। गुरू भी इसी माध्यम से उनका मार्गदर्शन करते हैं।
लाखों लोग गत कुछ वर्षों से टीवी चैनलों पर देख कर गुरुदेव को अपना गुरू मान चुके थे। उनसे प्रेरणा लेकर वे सुबह-सुबह टीवी देख कर उनके द्वारा बतायी गयी यौगिक क्रियाओं को दोहरा कर अपनी स्थूल काया को कामचलाऊ बनाने में सफल रहे थे। योग के बीच में बाबा के वचन भी उन्हें आध्यात्मिक ऊंचाई और राष्ट्रीय चेतना में सराबोर कर रहे थे।
सुबह का एक घंटा गुरुदेव को समर्पित कर दिन भर दुनियांदारी की तमाम तिकड़मों के बीच संतुलन बिठाते हुए लोग सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। लेकिन यही स्थिति है जब माया घेरती है। माया ने अपना जाल रचा। गुरु और शिष्य, दोनों ही उस लोक की ओर बढ़ते-बढ़ते ठिठक गये। इस लोक में जब चारों ओर नजर घुमाई तो कष्ट में जीते, भूख और गरीबी से त्रस्त करोड़ों आकुल-व्याकुल लोगों को अपने चारों ओर पाया।
गुरुदेव ने नेत्र मूंदे और पता लगा लिया कि यह लोग भाग्य के मारे अभिशप्त लोग नहीं हैं। भगवान की इन पर पूरी कृपा है। इनकी सम्पत्ति का अपहरण तो उन सफेदफोशों ने किया है जिन्हें कलियुग में नेता और व्यापारी कहते हैं। इसी परमावस्था में उन्हें यह भी आभास हुआ कि उनमें भी परमात्मा की दिव्य अंश हैं और इस नाते भगवान की ‘परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय च दुष्कृताम’ की प्रतिज्ञा पूरी करने का दायित्व उनका है।
गुरुदेव ने देश भर में घूम-घूम परिवर्तन की अलख जगायी और जब उन्हें यह भरोसा हो गया कि अब युद्धभूमि तैयार हो चुकी है तो उन्होंने ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’ युद्ध की घोषणा कर दी और देश भर में फैले अपने शिष्यों को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित दिव्य लीला का साक्षी बनने का निमंत्रण भेज दिया। द्वापर में धर्मयुद्ध का साक्षी बनने से वंचित सभी आत्माओं ने इस निमंत्रण को हाथों-हाथ लिया। नियत तिथि को लोगों के हुजूम रामलीला मैदान में जुटने लगे।
गुरुदेव ने भ्रष्टाचारियों का नाम ले-ले कर यज्ञकुंड में आहुतियां डालनी प्रारंभ कीं। इस लोक के महारथियों तक जब यज्ञ की ज्वालाएं पहुंचने लगीं तो सब व्याकुल हो गये। पहले उन्हें लगा कि मामला केवल सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांगने का है। प्रधानमंत्री ने गुरुदेव के प्रति आदर प्रकट करते हुए कहा कि देश में अब लोकतंत्र आ चुका है। सत्ता पर सबका हक है। लूट के माल में भी जो वाजिब हिस्सा बनता है उस पर समझौता हो सकता है। गुरुदेव ने इस विकृत सोच को धिक्कारते हुए हिस्सेदारी का प्रस्ताव वापस कर दिया।
प्रधानमंत्री ने स्थिति की गम्भीरता को समझा। वह समझ गया कि गुरुदेव का इरादा हिस्सेदारी नहीं रंगदारी वसूलने का है। प्रधानमंत्री स्वयं साधु स्वभाव का था और व्यर्थ के संघर्ष से बचता था। उसने पेट खराब होने का हवाला देते हुए ‘कंट्रोल रूम’ संभालने से इनकार कर दिया और मंत्रिमंडल को खुद ही कुछ जुगत लगाने को कहा।
मंत्रियों का एक दल ओढ़ी हुई विनम्रता के साथ गुरुदेव के पास गया और उनसे यज्ञ बन्द करने का निवेदन किया। गुरुदेव ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि एक समय भारत सोने की चिड़िया था जिसे वर्तमान शासन ने दरिद्र बना दिया है। बंद कमरे में मंत्रियों ने गुरुदेव के सामने सोने के पहाड़ और डॉलरों के झरनों का खाका खींचा और यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि नीतियां सही दिशा में जा रहीं हैं। उन्हें बताया गया कि हजारों साल पहले जिस प्रकार साधू नामक वैश्य की नौका में स्वर्णमुद्राएं भरी रहती थी किन्तु वह उसे लता-पत्रादि कहता था, वही स्थिति अब भी है। उन्होंने गुरुदेव को बाबा रामदेव का उदाहरण भी दिया जिनका सन्यासी होते हुए भी हजारों करोड़ रुपये का आर्थिक साम्राज्य है। तमाम तर्कों के बाद भी गुरुदेव अविचलित रहे।
अब तक गुप्तचरों द्वारा मामला राजमहिषी के पास पहुंच चुका था। उन्होंने मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए गालियां देने में प्रवीण सामंत को बुलाया और गुरुदेव को समझाने के लिये कहा। सामंत ने स्वयं जाने के बजाय अपने घर पर ही पत्रकारों को बुलाया और गुरुदेव के विरुद्ध गालियों की बौछार शुरू कर दी।
उसने उनकी नासमझी पर व्यंग्य करते हे कहा कि समृद्धि सदैव से सामंतों के पास ही रही है। आज भी उन सहित सभी सामंत पूरी राजसी शान-शौकत के साथ रह रहे हैं। गुरुदेव जिन भिखारियों के लिये समृद्धि की मांग कर रहे हैं उनके पास वह कभी नहीं थी। सामंत ने यह भी याद दिलाया कि वे योग के गुरु हैं और उन्हें अपने शिष्यों को कंद-मूल-फल खाकर जीवित रहने का उपदेश देना चाहिये। इसके लिये समृद्धि की कोई जरूरत नहीं।
कहा गया है कि ज्ञान जहां से भी मिले लेना चाहिये। लेकिन माया प्रभावी होने के कारण गुरुदेव ने उनके द्वारा दिये जा रहे ज्ञान की ओर से आंखें फेर लीं। नतीजा यह हुआ कि वे सामंत के उपदेश में छिपी चेतावनी को भी न समझ सके।
‘ज्ञाननामाग्रगण्य’ गुरुदेव माया को न समझ सके और नारद जैसे मोह में पड़े रहे। इस मोहावस्था में ही उन्हें लगा कि वे मनुष्य से वृक्ष बन गये हैं। दूर कहीं काली आंधी उठी है और उनकी ओर बढ़ रही है। आंधी के थपेड़े उन्हें उखाड़ डालना चाहते हैं। छोटे-छोटे तिनके जो कल तक उनके ही अंग थे आज हवा के झोंकों पर सवार होकर उन पर प्रहार कर रहे हैं। अचानक वे जागे तो देखा हजारों पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान उनकी यज्ञशाला को घेर चुके थे। युद्ध का दृश्य सामने था। देखते ही देखते यज्ञशाला का विध्वंस हो गया। घायलों की कराह और महिलाओं और बच्चों का क्रंदन गूंज रहा था।
मोहावस्था समाप्त हो चुकी थी। सूरज की पहली किरण ने मायाजाल को चीर दिया था। हरिद्वार में पावन गंगा के तट पर बैठे गुरुदेव सारी स्थिति पर चिंतन कर रहे थे। रात को आयी आंधी सच में ज्ञान की आंधी थी। उनके सभी भ्रम दूर हो चुके थे। भारत दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र बन गया है। लोकतंत्र में जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिये सरकार चुनी जाती है। वह देश को लोककल्याणकारी शासन देती है। इस शासन में सबको समान अधिकार प्राप्त होते हैं। सबको न्याय मिलता है। पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी जनता के सेवक होते हैं। सत्ता पर समाज का नियंत्रण होता है आदि सभी बातों की निस्सारता का वे अनुभव कर चुके थे।
भागीरथी का जल हाथ में लेकर उन्होंने आचमन किया तो सारा विचलन समाप्त हो चुका था। उन्हें याद आयी दो हजार वर्ष पूर्व की घटना जब इसी गंगा के तट पर पाटलिपुत्र में धननन्द द्वारा आर्य चाणक्य का भरे दरबार में अपमान किया था। वे समझ गये कि मदान्ध सत्ता के मूलोच्छेद का समय आ गया है। नये संकल्प के साथ वे अपने आश्रम की ओर बढ़ चले।
यह कथा आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व लिखी गयी थी। पुरातत्वविदों के अनुसार जिस शिलालेख पर यह कथा लिखी मिली है वह ईसा से लगभग 2011 वर्ष बाद का है। दिये गये विवरण से पता चलता है कि उस समय भारत में महिलाओं जैसा संकोची कोई पुरुष प्रधानमंत्री था। उसकी सत्ता से इतर पुरुषों की तरह दबंग एक अन्य महिला का विवरण भी मिलता है जो संभवतः मंत्रिमण्डल में न होते हुए भी सत्ता का केन्द्र थी। उसके जाति अथवा कुल-गोत्र का कोई विवरण नहीं प्राप्त होता है जबकि तत्कालीन भारत की राजनीति में जाति का उल्लेख बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था।
आआदर्नीय..
आशुतोष भाई…
सादर नमन ,
वाकई आपने बहुत ही सही लिखा है, मई उस ज़माने में इस देश का एक देशभक्त नागरिक था;
आगे ये हुआ की एक और मोर्य साम्राज्य बना ये संत तो होते ही बावले थे… बाबा का नाम अमर हो गया आज सारी धरती पर जो योगेन्द्र है सब बाबा के अनुयायी है …