विज्ञान और अध्यात्म में संबंध

 डा. बी. पी. शुक्ल

वैज्ञानिक आध्यात्मवाद को समझने के लिए हमें इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि हमारे समक्ष जो विश्व ब्रह्माण्ड है, वह मूलतः दो सत्ताओं से मिलकर बना है- एक जड़ व दूसरा चेतन। जड़ सत्ता अर्थात् पदार्थ का अध्ययन विज्ञान का विषय है जबकि चेतन सत्ता (आत्मा-परमात्माश् का अध्ययन अध्यात्म का विषय है। अतः इस ब्रह्माण्ड को पूरे तौर से समझने के लिए हमें इन दोनों ही सत्ताओं को ध्यान में रखना होगा।

भारतवर्ष में अध्यात्म और विज्ञान का सदा से समन्वय रहा है। वेद एवं वैदिक वाग्म्य विज्ञान और अध्यात्म को साथ-साथ लेकर चलते हैं, फिर चाहे आयुर्वेद हो अथवा वास्तु। पश्चिमी देशों में भी एक लम्बे अर्से तक विज्ञान एवं अध्यात्म साथ-साथ रहे। प्रत्येक वैज्ञानिक ग्रन्थ में परमात्मा की चर्चा पाई जाती थी। सर आइजेक न्यूटन ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्रिन्सपिया’ में परमात्मा की चर्चा करते हुए लिखा है कि परमात्मा ने इस ब्रह्माण्ड की रचना की और इसे एक संवेग प्रदान किया, जिसके कारण वह गतिशील है। उन्होंने यह भी लिखा कि ब्रह्माण्डरूपी नाटक के मंच पर जब कोई विकृति पैदा होती है, तो परमात्मा स्वयं उसे ठीक करता है। यह भाव कुछ इसी तरह का है जैसा की गीता में कहा गया है-

‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

परित्रणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।’

अध्यात्म और धर्म के बीच संबंधों की उपेक्षा का पहला उदाहरण प्रफांस में मिलता है जब वहां के प्रख्यात गणितज्ञ पियरे साइमन डी लाप्लास जो की सम्राट नेपोलियन के एक वैज्ञानिक सलाहकार थे, ने एक ग्रंथ लिखा जिसका नाम था, ‘सेलेशियल मिकैनिक्स्’। न्यूटन के नियमों का हवाला देते हुए, इस ग्रन्थ में उन्होने लिखा कि भविष्य कीे घटनाओं को हम उतनी ही परिशुद्धता से जान सकते हैं, जितनी परिशुद्धता से हम भूतकाल की घटनाओं को जानते हैं। उन्होंने लिखा कि यदि कोई व्यक्ति ब्रह्माण्ड के सभी कणो की स्थिति और वेग को जान सके, तो उसके लिये कुछ भी अनिश्चित नहीं रह जायेगा और उसकी आंखों के सामने भविष्य उसी तरह उपस्थित हो जायेगा जैसा कि भूतकाल। उन्होंने नेपोलियन को इस ग्रन्थ की एक प्रति भेट की, जिसे पढ़ने के बाद सम्राट ने लाप्लास से कहा कि आपने आकाशीय पिण्डों पर इतना विशाल ग्रन्थ लिखा है किन्तु इसमें एक बार भी परमात्मा की चर्चा नहीं की है। लाप्लास का उत्तर था, ‘श्रीमन् मुझे इस परिकल्पना की कोई आवश्यकता महसूस नहीं हुई।’

विज्ञान और अध्यात्म दोनों के लिए यह एक ऐसी घटना थी, जिसने उनके बीच एक दीवार खड़ी कर दी। जहां एक ओर इससे पूर्व दोनों एक दूसरे के पूरक के रूप में कार्य कर रहे थे, अब एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हो गए। यद्यपि दोनों ही मानवता के हित में कार्यरत थे, किन्तु एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। परिणाम यह हुआ कि विज्ञान पर अध्यात्म का अंकुश नहीं रहा और वह स्वत्रंात रूप से इस प्रकार कार्य करने लगा कि नैतिक मूल्यों के प्रति उदासीन हो गया। दूसरी ओर विज्ञान से पृथक होने पर अध्यात्म अवैज्ञानिक मार्ग पर चल पड़ा और उसमें रूढ़िवादिता एवं अंधविश्वास का बाहुल्य हो गया। स्वाभाविक है कि समाज पर इसका कुप्रभाव पड़ा। आध्यात्मिक लोग विज्ञान के उपकरणो- जैसे लाउडस्पीकर, मोटर कार, रेलगाड़ी, वायुयान आदि का उपयोग तो करते थे किन्तु विज्ञान को जी भरकर कोसते थे। उनका उद्घोष था कि समाज के पतन के लिए विज्ञान ही उत्तरदायी है। दूसरी ओर वैज्ञानिक जगत के लोगों ने अध्यात्म को पांेगा पन्थी एवं ढांेग करार देना प्रारम्भ कर दिया। यह अत्यन्त ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति थी। दोनों ही सत्य के अन्वेषी होते हुए भी एक दूसरे पर कीचड़ उछालने लगे और इस द्वन्द्व की चरम परिणति उस समय हुई, जब दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के क्षणो में जापान के दो नगर, हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका ने परमाणु बम गिराए। इसकी विभीषिका से सभी परिचित हैं। आज तक भी पीढ़ी दर पीढ़ी पर इन बमों के विस्फोट से उत्पन्न रेडियो धर्मिता विद्यमान है और मानव, जीव-जन्तु एवं वनस्पतियां उसके दुष्प्रभाव का शिकार बनी हुई हैं। सम्पूर्ण विश्व में इस घटना के कारण एक बहस छिड़ गई कि अन्तरात्मा के बिना विज्ञान सभी राष्ट्रों का सर्वनाश कर देगा। स्कूल, कालेज और प्रतियोगी परीक्षाओं में भी इस विषय पर निबन्ध लिखे जाने लगे। आइन्सटाइन बहुत ही गम्भीर हो गए थे और उन्होंने कहा कि ‘धर्म के बिना विज्ञान अन्धा है और विज्ञान के बिना धर्म लगड़ा।’

इसे मानवता का सौभाग्य ही कहेंगे कि विनोभा भावे जैसे सन्त ने विज्ञान एवं अध्यात्म के संगम तथा सहयोग की ओर मानवता का ध्यान आकृष्ट किया। इसी के साथ बीसवीं सदी में एक ऐसे महामानव का जन्म हुआ जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जान की बाजी लगाते हुए, अन्ततोगत्वा आध्यात्मिक जगत की ओर उन्मुख हुए और उन्होंने विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय करते हुए, एक नई विधा को जन्म दिया, जिसका नाम है ‘वैज्ञानिक आध्यात्मवाद’। यह महामानव थे, युग ट्टषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जिन्होंने गायत्री और यज्ञ को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया। इसके अतिरिक्त शान्तिकुंज, ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान जैसी वैज्ञानिक अनुसंधान प्रयोगशाला के निर्माण के साथ-साथ ‘युग निर्माण योजना’ जैसे महत्त्वाकांक्षी आन्दोलन को जन्म दिया। इसके लिए उन्होंने ‘अखण्ड ज्योति’ जैसी अध्यात्म परक मासिक पत्रिका को सन् 1936 से प्रारम्भ किया, जो आजतक अनवरत रूप से साधकों का मार्गदर्शन कर रही है।

12 सितम्बर सन् 1946 ई. को उनके जीवन में अति महत्वपूर्ण घटना घटी। ब्रह्ममुहूर्त का समय था, जो कि उनके लिए सदा विशिष्ट रहा था। युग ट्टषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य की चेतना-चिन्तन में निमज्जित थी। पर यह दिन कुछ विशेष था। हिमालय की ट्टषि सत्ताओं एवं सद्गुरूदेव स्वामी सर्वेश्वरानन्द की सूक्ष्म अनुभूतियों की शृंखला के साथ उनके चिदाकाश में दो शब्द- ‘वैज्ञानिक अध्यात्म’ महामंत्र की तरह ध्वनित हुए। यह वैज्ञानिक अध्यात्म के महामंत्र का प्रथम साक्षात्कार था। ऐसा साक्षात्कार कराने वाली दिव्य अनुभूतियों के बाद हमेशा ही उनके अंतर्जगत एवं बाह्य जगत में घटनाओं का एक क्रम चल पड़ता था।

उन दिनों डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी शान्तिनिकेतन में हिन्दी प्राध्यापक के रूप मे कार्यरत थे। उन्हें अखण्ड ज्योति पत्रिका एक परिजन ने भेंट की। अखण्ड ज्योति के उद्देश्य, लेखनशैली की नवीनता तथा प्रस्तुतीकरण ने, उन्हें बहुत प्रभावित किया। द्विवेदी जी ने पं. श्रीराम शर्मा आचार्य को शान्तिनिकेतन में पधारने का आमंत्रण दिया। जब वे शान्तिनिकेतन पहुंचे, तो संयोगवश उसी दिन वहां भारत के प्रख्यात् वैज्ञानिक एवं नोबेल फरस्कार विजेता प्रो. सी.वी. रमन का व्याख्यान आयोजित किया गया था। द्विवेदी जी के साथ आचार्यश्री भी प्रो. सी.वी. रमन का व्याख्यान सुनने के लिए व्याख्यान कक्ष में पहुंचे। प्रो. रमन ने अपने उद्बोधन में कहा, ‘‘बीसवीं सदी विज्ञान की सदी बन चुकी है। कोई देश इसके चमत्कारों के प्रभाव से अछूता नहीं है। जो आज हैं, वे कल नहीं रहेंगे। परन्तु विज्ञान का प्रयोग मानव हित में हो, यह चुनौती न केवल समूचे विज्ञान के सामने, बल्कि समूची मानवता के सामने है। वैज्ञानिकता, विज्ञान एवं वैज्ञानिकों को हृदयहीन व संवेदनहीन नहीं होना चाहिए। वे हृदयवान हों, संवेदनशील हों, इसके लिए उन्हें अध्यात्म का सहचर्य चाहिए।’’ प्रो. सी.वी. रमन का प्रत्येक शब्द मर्मस्पर्शी था। आचार्यश्री ने प्रो. रमन का उनके उत्तम व्याख्यान के लिए आभार व्यक्त किया। प्रो. रमन ने कहा, ‘‘बात आभार की नहीं, बात क्रियान्वयन की है।’’ इस पर आचार्यश्री बोले, ‘‘क्रियान्वयन तो अध्यात्म-क्षेत्र में भी होना है। उसे भी विज्ञान का सहचर्य चाहिए। विज्ञान के प्रयोग ही उसे मूढ़ताओं, भ्रांतियों एवं अंधपरम्पराओं से मुक्त करेंगे।’’ इस बात का वहां उपस्थित सभी ने समवेत समर्थन किया। तब प्रो. रमन ने कहा, ‘‘बीसवीं सदी भले ही विज्ञान की सदी हो पर इक्कीसवीं सदी वैज्ञानिक आध्यात्मवाद की सदी होगी।’’ ‘वैज्ञानिक अध्यात्म’ इसी का साक्षात्कार तो तरुण तपोनिष्ठ आचार्यश्री ने अपने समाधि-शिखरों पर किया था। उस दिन इस पर सभी मनीषियों की व्यापक परिचर्चा हुई और वहां से वापस आने पर वैज्ञानिक अध्यात्म के मंत्रदृष्टा आचार्यश्री ने जनवरी, सन् 1947 में वैज्ञानिक अध्यात्म पर एक विशेषांक प्रकाशित किया, जिसके प्रथम पृष्ठ की अंतिम पंक्ति में उन्होंने लिखा था, ‘‘अखण्ड ज्योति के पाठकों! स्मरण रखो, सबसे पहले जिसे पढ़ने और हृदयंगम करने की आवश्यकता है, वह वैज्ञानिक आध्यात्मवाद ही है। यही ट्टषियों का विज्ञान है।’’

वैज्ञानिक आध्यात्मवाद को समझने के लिए हमें इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि हमारे समक्ष जो विश्व ब्रह्माण्ड है, वह मूलतः दो सत्ताओं से मिलकर बना है- एक जड़ व दूसरा चेतन। जड़ सत्ता अर्थात् पदार्थ का अध्ययन विज्ञान का विषय है जबकि चेतन सत्ता (आत्मा-परमात्माश् का अध्ययन अध्यात्म का विषय है। अतः इस ब्रह्माण्ड को पूरे तौर से समझने के लिए हमें इन दोनों ही सत्ताओं को ध्यान में रखना होगा। सामान्यतः किसी भी विषय का अध्ययन न तो केवल भौतिक है और न ही केवल आध्यात्मिक। सत्य की खोज के लिए हमें, विज्ञान एवं अध्यात्म दोनों पर विचार करना होगा और यही वैज्ञानिक आध्यात्मवाद का मूल है।

4 COMMENTS

  1. I really like your article. I would like to ask you one question.
    Why the spirituality is not “HUMAN-CENTERED” in India??
    Most of the people feel that spirituality only concerns with reaching to the GOD…..
    Most of the people don’t even realize that they can invoke the power hidden in them by meditation , yoga and other practices.
    They just go to temples regularly which is expected (according to them).
    But one should know the meaning of everything which he/she does.
    What do you think about this?

  2. डॉ शुक्ल जी धन्यवाद इस लेख के लिए परन्तु में एक बात कहना
    चाहूँगा की इस जगत में जड़ जैसी
    चीज कुछ भी नहीं है सब चैतन्य हे यह तो विमर्श हे उस चैतन्य ब्रह्म का गुरुबानी में एक सबद हे -सब गोविन्द हे सब गोविन्द हे गोविन्द
    बिन नहीं कोई …
    यह गोविन्द अर्थात
    चैतन्य ब्रह्म ही हे यह सारा दृश्य या
    अद्रश्य जगत उसी से परिपूर्ण हे इस लिए जड़ या चेतन जैसी कोई
    दृष्टि नहीं हे विज्ञानं
    आज कहता हे यह सारा ब्रह्माण्ड उर्जा
    कणों से बना हे
    अध्यात्म उससे भी
    सूक्ष्म चैतन्य तत्त्व
    की बात करता हे
    वह कहता हे सारा जगत चैतन्य से बना हे अभी उसे और आगे दिस्कोवर
    करना हे …धन्यवाद
    बिपिन कुमार सिन्हा

  3. विज्ञानं और अध्यात्म में बुनियादी अंतर है जिसे समझने की जरुरत है विज्ञान अध्यन का विषय है और जो अध्यात्म तो सुनने और समझने और अनभव ही है

  4. आदरणीय डॉ. बी.पी. शुक्ल जी ,
    बहुत ही जानकारी पूर्ण एवं सुंदर लेख है , आशा है आगे भी आपसे बहुत कुछ पढने को मिलेगा|
    धन्यबाद

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