मंत्र है, साक्षात शिवशक्ति

 आत्‍माराम यादव पीव

              हमारा देश अनादिकाल से ज्ञान-विज्ञान की गवेषणा, अनुशीलन एवं अनुसंधान का प्रमुख केन्द्र रहा है जिसमें विद्या की विभिन्न शाखाओं में हमारे ऋषिमुनियों-ज्ञानियों ने धर्म दर्शन, व्याकरण, साहित्य, न्याय, गणित ज्योतिष सहित अनेक साधनाओं का प्रस्फुटन किया है जिनमें मंत्र, तंत्र और यंत्र का भी विशिष्ट स्थान है। शास्त्रोक्तानुसार समस्त जगत की सृष्टि ’’अक्षर’’ अर्थात पराशक्तिरूप ’’शब्दब्रम्ह’’ से हुई है जिससें ही तंत्र,मंत्र और यंत्र का का प्रादुर्भाव हुआ है। वेदान्त दर्शन के सूत्र में लिखा है कि-’’अक्षरमम्बरान्तधृतेः’’’ अक्षर शब्द को परबम्ह परमात्मा का वाचक कहा है और अक्षर नाम से परब्रम्ह परमात्मा का वर्णन मिलता है, अन्य किसी का नहीं। पृथ्वी द्युलोक के अलावा भूत-भविष्य एवं वर्तमान जिसमें सब के सब निमेष, मुहुर्त, दिन रात काल आदि सभी भूतों में समाहित है और ये सभी आकाश में ओतप्रोत है,उस तत्व को ब्रम्हवेत्ता ’’अक्षर’’ कहते है। ’’अक्षर’’ आकाशपर्यन्त सब भूतों को धारण करने वाला क्रिया परमेश्वर ही है, जो सब पर शासन करने वाला कहा गया है, अतः सिद्ध होता है कि ’’अक्षर’’ परब्रम्ह परमात्मा का ही स्वरूप हैं। तीन मात्राओं वाला ’’ओम’’ शब्दाक्षर स्वयं में एक महामंत्र है, जो ब्रम्हसाक्षात्कार कराता है। त्रिमात्रा सम्पन्न ओमकार मंत्र का  ध्येय पूर्ण परमात्मा ही है जिसमें समस्त ब्रम्हाण्ड समाहित है, ब्रम्ह के नगररूप, मनुष्य शरीर में कमल के आकार वाला एक हृदय है जिसमें सूक्ष्म आत्मा का निवास है और आत्मा सब पापों से रहित, जरामरणवर्जित, शोकशून्य, भूख-प्यास से रहित सत्यकाम तथा सत्यसंकल्प है। यही आत्मा  अमृत, अभय, और ब्रम्ह है, जिस शरीर में यह निवास करती है, उस शरीर का वासी आत्मा-परमात्मा के प्रति जिज्ञासु रहता है, जब वह मंत्रों के ज्ञेय तत्व की ओर अग्रसर हो परमब्रम्ह की प्राप्ति द्वारा मोक्ष को कदम बढ़ाता है तब साधना की यह पूर्णता आत्मा को पूर्ण परमात्मा बना देती है।

श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 8 के श्लोक 3 में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि-’’अक्षरं ब्रम्ह परमं स्वभावोध्यात्ममुचत्ये। भूतभावोभ्दकरो विसर्गः कर्मसच्चितः।। सच्चिदानन्द ब्रम्ह अक्षर है अर्थात उसकी सत्ता ज्ञानस्वरूप है और आनन्दमयी है, परन्तु अहं व इदं दोनों भाव से अतीत होने के कारण परम भाव कहलाता है। ब्रम्ह अक्षर है जिसमें दो भावों का उदय होता है एक आध्यात्म दूसरा अधिभूत। अध्यात्म भाव सच्चिदानन्द ब्रम्ह का स्वरूप है अविनाशी और अपरिणामी भी। अधिभूत भाव क्षर और परिणामी है जिसमें सारा जगत बनता, बिगड़ता है।। दुर्गाशप्तशती में इसी प्रकार के प्रमाण मिलते है और लिखा है कि -त्वं स्वाहा, त्वं स्वधा त्वंहि वषटकारः।।73।। अर्थात हे देवि तू ही स्वाहा है, तू ही स्वधा है और तू ही वषटकार स्वरात्मिका है, सब स्वर तेरे ही स्वरूप है। ’’सुधा त्वमक्षरे नित्ये निधा मात्रात्मिका स्थिता, अर्धमात्रा स्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः। दु.श.74।। हे नित्ये ! ओ अक्षरौ! अकार, इकार अथवा उकार और मकार की तीनों मात्राओं के रूप में और अनुस्वार स्वरूपी अर्धमात्रा में भी तू नित्य स्थित है।
शिवसूत्र विमर्शिनी में चित्त को मंत्र कहा गया है। वस्तुतः चित्त शक्ति, स्व पद से उतरकर संकोच को अंगीकार कर चित्त का रूप ग्रहण करती है। स्वतंत्रात्यमक स्वरूप की संकोच दशा ही चित्त है और विकास अवस्था ही चिति। चित्त जब बाह्य जगत को विस्मरण कर अंर्तमुखी होकर चिदृपता के साथ अभेद विमर्श करता है, चित्त की यही गुप्त मंत्रणा चित्तशक्ति  को मंत्र से अविभूत कर देती है और आराधक का चित्त आराध्य में लीन हो जाता है तभा आराध्य की माया कालुष्य से रहित मंत्र भी चित्तशक्ति में समाविष्ट हो जाता है।  ’’मंत्र’’ शब्द के गर्भ में मनन की परिव्याप्ति है और शब्द के मूल अक्षर, बीजाक्षर या गंभीर परिचिन्तन का उपक्रम मनुष्य को अतल गहराईयों में ले जाकर मंत्रात्मक विद्या को पूर्ण सिद्धि प्रदान करता है। जो साधक, या मनीषी इन मंत्रों में अन्तर्निहित असीम शक्ति को, मंत्रसाधना द्वारा प्राप्त कर स्वयं का आत्मोन्नयन करें तथा देह से परे आध्यात्म में लय हो जाये वह ही सच्चा सिद्ध होता हैं और अगर यही सिद्ध पुरूष मंत्र विद्या की सिद्धि पाने के पश्चात भी अपने भौतिक अभिसिद्धियों से परे रहते हुये अपने तत्वज्ञ और सिद्धियों का प्रयोग दैहिक भोग के लिये न करके समाज के उत्कर्ष में लग जाये तो वह इस लोक में सब कुछ पा जाता है, पर ऐसी आत्मायें इस धरा पर न के बराबर है।

मंत्र, तंत्र और यंत्र आदि का क्रम बहुत प्राचीन माना है जिसका प्रमाण अनेक शास्त्रों में मिलता है तथा इन मंत्रों को अथर्ववेद की रचना भी कहा गया है जिसमें मांत्रिक प्रयोगों का विस्तीर्ण से विवेचन किया गया है। वेदपरक साहित्य में मंत्र एवं तंत्र विद्या  पर अनेक ग्रन्थ रचे गये एवं उनकी विविध व्याख्यायें सहित उन्हें पृथक-पृथक भेदों में विरेचित किया है जिसमें वैष्णव, शैव और शाक्त मुख्य कहे गये है। आदिगुरू श्रीशंकराचार्य द्वारा अपंचसारतत्व नामक तान्त्रिक ग्रंथ में भौतिक तथा  अध्यात्मिक विश्व के उदभव, विकास तथा विस्तार की विस्तृत चर्चा है जिसमें सारा विश्व वर्णमयी भगवती पराशक्ति के ’हकार’ से उद्भूत होना बताया है तथा अंत में उसी पराशक्ति में लीन होना कहा है। समस्त जगत की सृष्टि अक्षर अर्थात शब्दब्रम्ह से हुई है इसलिये यह शब्दब्रम्हअर्थस्वरूपा बिन्द्धात्मिका ’परावाक;; कहा गया है जो मूलाधार में स्थित पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी के रूप में स्थूल सूक्ष्मादि समस्त अर्थो में अभिव्यंजित है। वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर बीज मंत्र है जो शक्ति की विभिनन आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का रूप है।  
मंत्र परिचय- मंत्र वस्तुतः तंत्र पूजा पद्धति का प्राण है और ’शब्दब्रम्ह’ माना है। वर्णमाला के इक्यावन अक्षर ब्रम्हाण्ड की प्रमुख शक्तियों के मूल माने गये है और प्रत्येक अक्षर बीज मंत्र है जो शक्ति की विभिन्न     आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का स्वरूप है। मंत्र तीन प्रकार के बताये गये है, एक मानवीय, एक आसुरी मंत्र, और तीसरा देवी मंत्र। पहले प्रकार का मंत्र भूत,प्रेत, पिशाच, दूसरे प्रकार का यक्ष,गंदर्भ आदि के वासनालोक, तामसिक लोक के सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं से संबंधित है तथा तीसरा मंत्र राजसी एवं सात्विक लोक की देवी-देवताओं  एवं दिव्य आत्माओं से संबंधित है। इन तीनों प्रकार के मंत्रों के अलग-अलग सिद्धान्त है और सिद्धान्तों के अनुसार क्रिया पद्धतियॉ है जिससे इन्हें सिद्ध किया जाता है।

सुप्रसिद्ध तांत्रिक योगी भास्कर राय ने ’’ललितासहस्त्रनाम’’ ’पन्चाशत्पीठनि की व्याख्या करते हुये लिखा है कि मातृ/माता के 51 शक्तिपीठ है इसलिये मातृका न्यास भी तदनुरूप 51 है। तंत्र के अनुसार वर्णमाला के ’’अ’’ से लेकर ’’ज्ञ’ तक के अक्षरों को ’’मातृका ’’ कहा गया है जो साक्षात शक्ति के स्त्रोत है और इन्हीं मातृका वर्णो में ही सभी मंत्रों का मूल है। मातृका शब्द का अर्थ है माता। माता जो समस्त वाड्मय की जननी है। समस्त मंत्र वर्णात्मक है और शक्तिस्वरूप भी है। यह मातृका की ही शक्ति है और यह शक्ति शिव की है। आनन्द सूत्र में कहा गया है कि-’’शिवशक्तयात्मकं ब्रम्ह’’ अर्थात शिव और शक्ति दोनों का मिश्रित नाम ही ब्रम्ह है। तभी समस्त मंत्रों को साक्षात शिवशक्ति स्वरूप में प्रतिष्ठित किया गया है , शिव स्वयं पार्वती से कहते है- सर्वे वर्णात्मका मंत्रास्ते च शक्त्यात्मकाः प्रियं। शक्स्ति मातृका श्रेया सा व ज्ञेया शिवात्मिका।। ऐसे ही मंत्रों को अचिन्त्य शक्तिस्वरूप भी कहा गया है क्योंकि मंत्र ही है जो शक्तिसम्पन्न होते है। शिव या पुरूष दार्शनिक शब्द के रूप में व्यापक भाव से ’’आत्मा’’ के लिये ही प्रयुक्त होता है। शिव शब्द का अर्थ साक्षी चैतन्य है एवं पुरूष का भी अर्थ यही है -’’पुरे शेते यः सः पुरूषः।’’ अर्थात प्रत्येक सत्ता में जो साक्षीबोध सोया हुआ है, उसे ही पुरूष कहा जाता है। 

आत्‍माराम यादव पीव 

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