इलाहाबाद में कुंभ से निकलकर तरह-तरह की खबरें आ रही हैं. लेकिन जो अबतक की सबसे बड़ी खबर आई वो ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुंभ में गंगा स्नान किया और कुंभ क्षेत्र में काम कर रहे सफाई कर्मचारियों के पांव धोए. उनके विरोधी इसके राजनीतिक निहितार्थ निकालने की कोशिश भी कर रहे हैं लेकिन इसे सतही तौर पर ना देखते हुए भारत में समय-समय पर हुए सामाजिक समरसता के प्रयासों के आइने से देखना बेहतर होगा.
एक आस्थावान हिंदू के नाते प्रधानमंत्री मोदी ने प्रयागराज के कुंभ में गंगा स्नान किया और साथ ही वहां काम कर रहे सफाई कर्मचारियों से मुलाकात की. पीएम ने कुंभ में सफाई अभियान की तारीफ करते हुए कहा कि 22 करोड़ लोगों के बीच सफाई बड़ी जिम्मेदारी थी. ये सफाईकर्मी बिना किसी की प्रशंसा के चुपचाप अपना काम कर रहे थे. लेकिन इनकी मेहनत का पता मुझे दिल्ली में लगातार मिलता रहता था. जब प्रधानमंत्री मोदी स्वयं प्रयागराज पहुंचे तो उन्होंने इन सफाई कर्मचारियों का सम्मान कुछ अलग तरीके से किया. उन्होंने इनके पांव धोए और शाल देकर सम्मान किया. समाज के सबसे कमजोर तबके से आने वाले इन लोगों का प्रधानमंत्री द्वारा इस तरह सम्मान किया जाना श्रम का सम्मान है, देश के लोकतंत्र और संविधान का सम्मान है जो देश के हर नागरिक को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है. देश के प्रधानमंत्री जब इस तरह के कदम उठाते हैं तो लोगों को भी ध्यान आता है कि हमारे सामने जो कुछ बेहतर तरीके से दिख रहा है उसके पीछे कौन सी शक्तियां काम कर रही है. जब दिव्य कुंभ, भव्य कुंभ की बात देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हो रही है तो उस कुंभ को स्वच्छ रखने का काम इस हजारों सफाई कर्मचारियों के वजह से ही संभव हुआ. वैसे भी प्रधानमंत्री मोदी स्वच्छता को लेकर विशेष आग्रह रखते हैं और स्वच्छता के लिए काम करने वालों को वो स्वच्छाग्रही कहते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो किया वो भारत में समरसता की गौरवशाली परंपरा को ही आगे बढ़ाता है और उन लोगों को एक करारा जवाब देता है जो देश में अलग-अलग स्तर पर खाई पैदा करना चाहते हैं. भगवान राम और निषादराज का संबंध हमें मालूम है कि कैसे श्रीराम ने निषादराज को अपना मित्र बना लिया था. जंगल में विचरते राम ने शबरी के झूठे बेर खाकर समरसता की एक मिसाल कायम की थी. वहीं मध्यकाल में प्रयागराज से कुछ दूर काशी में संत रामानंद हुए जिन्होंने भारतीय समाज के सत्व को जीवंत रखने के लिए हर संभव प्रयास किया. उन्होंने समाज को एक रखने के लिए अलख जगाने का काम किया. शिष्य बनाते वक्त किसी की कभी जाति नहीं देखी. उनके शिष्यों में कपड़े बुनने वाले कबीरदास, चमड़े का काम करने वाले रैदास, जाट समाज के धन्ना, सेन नाई जैसे दर्जनों लोग थे जिन्होंने बाद में भक्ति आंदोलन को एक सामाजिक आंदोलन बना दिया और समाज में फैली तमाम तरीके की रूढ़ियों पर तीखा वार अपनी वाणी और कृतित्व से किया. रामानंद कहते भी थे – ‘जात-पांत पूछे नहीं कोई, हरि को भजे से हरि का होई’।
भारत के मूल चिंतन में जातीय विषमता जैसी कोई चीज पहले थी ही नहीं. लेकिन प्रकारांतर में समाज में एक रूढ़ि की तरह जाति जुड़ती चली गई. अगर जाति भी बहुत पहले से चली आ ही होती तो कुंभ में भी वैसी व्यवस्थाएं दिखती होतीं. लेकिन अनंत काल से चले आ रहे कुंभ के इस महापर्व में घाट पर स्नान करते एक व्यक्ति ने दूसरे की जाति नहीं पूछी. संतों के सत्संग में कौन बैठा वो संत को नहीं मालूम. वो तो बस परम ब्रह्म से संबंध जोड़ने का मार्ग बताता रहा. सभी के लिए गंगा वहां मां थी और गंगा ने भी कभी अपने बच्चों को साथ भेद नहीं किया.
भारत की सनातन परंपरा को चिरंतन बनाए रखने का एक मार्ग है कुंभ. कुंभ का अर्थ सिर्फ गंगा स्नान से नहीं बल्कि ये एक सामाजिक, वैचारिक और आध्यात्मिक कुंभ भी है. यहां समाज के अलग-अलग वर्ग के लोग देश, दुनिया के कोने-कोने से आते हैं. यहां विचार मंथन होता है और आध्यात्मिकता में गोते लगाए जाते हैं. कुंभ सबका है और सब कुंभ के हैं.
कुम्भ में सफाई कर्मचारियों का इस तरह सम्मान करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्री राम और संत रामानंद की परंपरा को आगे बढ़ाया है. समरसता के ये कदम ही आगे आने वाली समस्याओं का समाधान कर सकते हैं. ऐसा संदेश प्रधानमंत्री के इस कदम से लिया जा सकता है. सत्ता और संपत्ति के साथ-साथ सम्मान में भी सबकी भागीदारी सुनिश्चित करना हम सबकी जिम्मेदारी है जिसकी शुरुआत प्रधानमंत्री ने इस तरह की है.
साभार : academics4namo.com