मोदी के ‘नए भारत’ में कैसे सुनिश्चित होगा सामाजिक न्याय

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगस्त क्रांति के 75 साल पूरे होने के अवसर पर देशवासियों के बीच एक नए भारत (न्यू इंडिया) के निर्माण की बात कही. उन्होने कहा कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से अगले पांच साल तक लगातार अंग्रेजों के खिलाफ कुछ ना कुछ होता रहा जिसमें हर देशवासी किसी ना किसी स्तर पर जुड़ा था. आम लोगों ने मान लिया था कि अब स्वतंत्रता का लक्ष्य दूर नहीं और 1947 में वो लक्ष्य पूरा भी कर लिया गया. प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि अगर इसी तरह अगले पांच साल भी हर देशवासी कुछ मुद्दों को लेकर अपना योगदान करे तो एक नए भारत निर्माण का निर्माण हो सकता है. इसके लिए सभी अपनी रुचि के विषय चुन सकते हैं प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सुझाए गए कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर काम करके एक नए भारत के निर्माण में अपना योगदान दिया जा सकता है – भ्रष्टाचार मुक्त भारत, स्वच्छ भारत, गरीबी मुक्त भारत, आतंकवाद मुक्त भारत, सांप्रदायिकता मुक्त भारत और जातिवाद मुक्त भारत. अगले पांच साल इन विषयों पर काम करके निश्चय ही एक नए भारत का निर्माण हो सकता है जो समृद्ध, समर्थ, समरस होगा और राष्ट्र परमवैभव की ओर अग्रसर हो सकेगा.

इस लेख में प्रधानमंत्री मोदी के सपने के नए भारत के एक महत्वपूर्ण पहलू पर चर्चा की गई है जो जातिवादमुक्त भारत के मुद्दे से जुड़ा है. इसमें इस विषय पर विचार किया गया है कि नए भारत में जातीय वैमनस्यता कैसे कम होगी, सामाजिक न्याय कैसे सुनिश्चित होगा, समतामूलक और समरस भारत का निर्माण कैसे होगा.

समानता

कहना ना होगा कि समानता एक शाश्वत मूल्य है. कोई भी सभ्यता, समाज और राज्य प्रगति नहीं कर सकता अगर एक मूल्य के रूप में समानता का वहां स्थान नहीं है. पिछले कुछ सौ सालों में ऐतिहासिक कारणों से भारत में असमानता इतने भीतर तक घुस गई कि भारत की सैकड़ों साल की गुलामी का एक बड़ा कारण बनी. विखंडित भारतीय समाज बार-बार गुलाम होता रहा. हालांकि ये समाज लड़ता रहा और इसी संघर्ष का नतीजा है कि हजारों साल की सभ्यता कम या ज्यादा आज उसी तरह पूरे भू-भाग में मिलती है. यहां ये स्पष्ट कर देना जरूरी है कि असमानता भारतीय सभ्यता के मूल तत्वों में से नहीं हो सकती क्योंकि कोई भी सभ्यता 5000 साल से ज्यादा समय तक तमाम संकट आने के बावजूद अस्तित्व में नहीं रह सकती अगर वो असमानता और शोषण पर आधारित हो.

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो समूह में रहना पंसद करता है. जाति इसी तरह का एक सामाजिक समूह है. बस फर्क इतना है  कि एक सामाजिक समूह के रूप में जाति क्षैतिज (वर्टीकली) बंटी हुई है जब कि सभी सामाजिक समूहों को उर्ध्वाधर (हॉरिजॉन्टली) बंटा होना चाहिए. जातिवाद एक बुराई है जो जाति के आधार पर भेदभाव और छुआछूत को बढ़ावा देती है.

भारत में जाति वो है जो जाती नहीं. अगर जाति सच्चाई है तो जातिवाद बुराई है. जातिवाद एक मानसिक स्थिति है जिसमें आर्थिक लाभ, सामाजिक प्रतिष्ठा और जातीय दंभ की मिलावट होती है. मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी जातीय श्रेष्ठता को खत्म करने की जरूरत है. डॉ अंबेडकर ने अपनी एक पुस्तक में जाति खत्म करने की बात कही थी. हमें आधुनिकता से पहले अपने कुछ कथित मूल्यों, परंपराओं और रीति रिवाजों और आचार-विचार पर गौर करना चाहिए जो कभी-कभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जातिवाद को बढ़ावा देता है.

समाज, बाजार और राज्य का रुख

राज्य की प्रकृति के दो तत्व हैं – एक जो लोकतांत्रीकरण को बढ़ावा देता है और दूसरा जो जड़ता को बनाए रखना चाहता है. अगले पांच साल में हमें प्रयास करना होगा कि राज्य के वो तत्व अधिक मजबूत हों जो कि सामाजिक लोकतांत्रीकरण को बढ़ावा देते हैं. चुनावी राजनीति के स्तर पर हमने निचले स्तर तक लोकतांत्रीकरण होते देख लिया है. इससे लोकतंत्र मजबूत होकर उभरा है. राजनीतिक क्षेत्र से इतर सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में लोकतांत्रीकरण के प्रभाव को देखना अभी बाकी है. राज्य को इसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए.

राज्य को अधिक जवाबदेह बनाने का काम समाज करता है. समाज से निकले बहुत सारे अभियान और आंदोलन राज्य को मजबूर करते हैं और उसे अधिक लोकतांत्रिक बनाते हैं. इसलिए हमें समाज की शक्ति को और मजबूत बनाना होगा और प्रयास करने होंगे कि समाज राज्य की निरकुंशतावादी प्रवृत्ति पर लगाम लगाए. वैसे समाज के स्तर पर भी बड़ा मंथन होता रहा है. यही भारत की असली ताकत भी है. बुद्ध, शंकर, भक्ति आंदोलन, आर्य समाज, अंबेडकर आदि इसी समाज से निकले वो कारक तत्व हैं जिन्होंने समाज और राज्य को गहरे तक झंकृत किया. समाज शक्ति के तमाम दबावों में ही राज्य सही ढंग से आगे बढ़ सकता है और सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण के एजेंडे को आगे बढ़ा सकता है.

एक तीसरा पहलू बाजार का है जो अतंरराष्ट्रीय जुड़ाव भी रखता है. ऐसा जुड़ाव राज्य और समाज के साथ देखने को कम मिलता है. आज भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से काफी कुछ जुड़ चुका है. उपभोक्ता की तलाश में बाजार भी नीचे तक पहुंच रहा है. बाजार चाहता है कि उन लोगों के हाथ में भी पैसा आए जो अभी तक हाशिए पर थे क्योंकि उनकी संख्या सबसे ज्यादा है और यहां परिपूर्णता भी नहीं आई है. सीके प्रहलाद ने इस विषय को लेकर बहुत ही बेहतरीन किताब फॉर्च्यून एट द बॉटम ऑफ पिरैमिड लिखी थी. उसमें उनका कहना है कि बाजार सुचारू ढंग से तभी रह पाएगा जब सबसे अंतिम पायदान के व्यक्ति को बाजार का हिस्सा बनाया जाए. उसके साधन संपन्न बनाया तभी वो उपभोक्ता बन पाएगा. सप्लाई-डिमांड भी तभी ठीक ढंग से चल पाएगी जब सबसे बड़े तबके की तरफ से डिमांड आती रहे.

बाजारवाद के इस युग में समाज की सच्चाइयां तेजी से बदल रही है. आज दलित और पिछड़े वर्ग में एक बड़ा क्रीमी लेयर और मध्यवर्ग खड़ा हुआ है जिसे आज भी राजनीतिक संरक्षण, आरक्षण और बाजार का लाभ मिल रहा है. लेकिन दलित और पिछड़े समाज का एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो आज इन लाभों से वंचित है. संख्या कम होने के कारण इनकी राजनीतिक उपयोगिता बहुत कम रही है. ये किसी दायरे का हिस्सा नहीं बन पाए जिसकी वजह से राजनीतिक संरक्षण नहीं मिला और इनकी अपनी कोई लीडरशिप भी नहीं खड़ी हो पाई. आज ये आरक्षण और बाजारवाद दोनो से बहुत अछूते रह गए हैं. आने वाले पांच सालों में जहां शहरीकरण, बाजारीकरण और भूमंडलीकरण बहुत बढ़ेगा तो ये अतिवंचित समाज और नीचे जा सकता है क्योंकि इनमें शिक्षा, कौशल और पूंजी का अभाव रहेगा. यानी हाशिए के वंचित समाज में भी दो वर्ग खड़े होंगे. शहर और बाजार में रहने वाला दलित समाज मुख्यधारा का हिस्सा बनेगा जिसकी अपनी जरूरतें रहेगी. कहने का आशय ये है कि अगले पांच सालों में सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण के मायने भी बदलते नजर आएंगे.

इस बीच तकनीकी विकास भी तेजी से हो रहा है. आज ऑटोमेशन और रोबोटिक्स तकनीकी जिस तेजी से बढ़ रही है उसे देखकर वर्ड इकॉनमिक फोरम ने कहा है कि 2021 तक वो सभी कौशल काफी हद तक काम के नहीं रह जाएंगे जो हमने अपने युवाओं को सिखा रहे हैं. जाहिर है कि इस तकनीकी उन्नयन का सबसे अधिक असर उन पर पड़ेगा जो पायदान में सबसे पीछे हैं. हम अपने वंचित समाज के युवा शक्ति का सशक्तीकरण कैसे करेंगे इस पर हमें सोचना होगा. अगले पांच साल या उसके आगे आने वाले समय में हमें ये समझने होगा कि समाज, राज्य और बाजार सामाजिक न्याय के विमर्श और जाति के प्रति कैसे रुख रखेंगी. इनकी प्रवृत्ति क्या होगी.

जाति और सामाजिक न्याय विमर्श

सामाजिक न्याय से अवसर और सम्मान की समानता सुनिश्चित होती है. सत्ता, संपत्ति और सम्मान में बराबरी का हिस्सा ही सामाजिक न्याय है. नए भारत के निर्माण की आधारशिला सामाजिक न्याय के बिना नहीं रखी जा सकती. लेकिन आज की सामाजिक न्याय की राजनीति दरअसल जाति प्रतिनिधित्व की राजनीति बनकर रह गई है जो एक समय तक जरूरी भी थी. लेकिन २१वीं सदी में दलित और पिछड़े समाज का युवा पहचान के साथ-साथ बेसिक शिक्षा और नौकरी के साथ-साथ दूसरे बड़े सपने भी देख रहा है. आज सामाजिक न्याय का विमर्श पहचान की राजनीति तक केंद्रित है. पिछले कुछ दशकों में कांग्रेस के कमजोर होने के बाद सामाजिक न्याय की राजनीति इस देश में खड़ी हुई. कांग्रेस की पैट्रम-क्लाइंट की राजनीति ने देश में दलित और पिछड़ों की स्वतंत्र राजनीति खड़ी नहीं होने दी. डॉ. अंबेडकर जो कर पाए वो इसलिए कर पाए क्योंकि उन्होने अपना कद कांग्रेस के बाहर रहकर पहले बड़ा किया बाद में संविधान सभा और अंतरिम कांग्रेस सरकार के सदस्य बने.

डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रयासों से जैसा भारतीय संविधान सामने आया उसे हम एक सामाजिक मुक्ति का दस्तावेज कह सकते हैं. हालांकि संविधान के प्रावधान ढंग से लागू नहीं हुए नहीं तो बात कुछ आगे बढ़ती. जो सामाजिक न्याय की राजनीति पहचान की राजनीति तक सीमित रह गई है वो अपने अगले चरण में प्रवेश करती. डॉ अंबेडकर कुछ ऐसा ही चाहते थे. वो एक समरस, प्रगतिशील, लोकतांत्रिक, समतामूलक और आधुनिक भारत चाहते थे. जहां सभी को प्रतिष्ठा और अवसर की समानता, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय और व्यक्ति की गरिमा के लिए पर्याप्त स्थान हो.

नए भारत में सामाजिक न्याय का स्वरूप

प्रधानमंत्री मोदी के आवाहन के बाद न्यू इंडिया की वेबसाइट पर हर सेक्शन में सैकड़ों रिस्पांस आए. जातिमुक्त भारत वाले सेक्शन में भी कई बेहतरीन सुझाव देखने को मिले. इसमें से अधिकतर का कहना था कि जातिवाद खत्म होना चाहिए. कुछ सुझाव ऐसे थे – उपनाम हटा दें, जाति पर आधारित आरक्षण खत्म करें, आर्थिक आधार पर आरक्षण हो, जाति के आधार पर भेदभाव ना करने का संकल्प, जाति वाले कॉलम में भारतीय का विकल्प दें, जाति आधारित आरक्षण खत्म करने से पहले जाति की राजनीति खत्म की जाए, किसी जाति विशेष का होना अपने आप में सैकड़ों सालों से मिला आरक्षण है, शहरी क्षेत्रों में भी जातिवाद कम नहीं हुआ है, हम सब अपनी जाति लिखने लगें – हिंदू, जातिवाद भारत की तरक्की में बहुत बडी बाधा है इस समस्या को पैदा करने वाले हमारी सरकारें है, सामाजिक औऱ आर्थिक असमानता ही जातिवाद का कारण है, दलित और पिछड़ी जातियों के अमीर लोगों को आरक्षण का लाभ देना बंद करना चाहिए, अपनी जाति में शादी मत कीजिए, अगली चार पीढ़ी में जातिवाद खत्म हो जाएगा, जाति को पूंजी से खत्म कीजिए, उद्यमिता को बढ़ावा दिया जाए, स्कूलों में जैसे स्वच्छता के बारे में बताया जाता है वैसे जाति को एक अपराध बताया जाए, मंदिरों में जाति के आधार पर प्रतिबंध ना हो, हर गांव पंचायत में शिकायत केंद्र खोले जाएं जहां शिकायत सुनी जाए और उसका निवारण हो, जिलाधिकारी कार्यालय से इन शिकायत केंद्रों की निगरानी हो, समाज मेंसमानता सुनिशचित करने के हर स्तर पर प्रयास हों तभी जातिवाद खत्म होगा.

कुछ और सुझाव

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में सामाजिक कल्याण मंत्रालय का नाम सामाजिक न्याय और अधिकारिता रखा गया था. इसके पीछे यही सोच थी कि कल्याण करने के भाव से नहीं करना है बल्कि समाज के उस वर्ग के लिए न्याय सुनिश्चित करना है जो अब तक इससे वंचित है और सिर्फ न्याय सुनिश्चित नहीं करना बल्कि उन्हें सशक्त भी बनाना है. निश्चय ही ये एक अच्छा प्रयास था. अब इस नए भारत को समतामूलक और समरस बनाने के लिए कुछ और भी प्रयास करने पड़ेंगे. सबसे पहले एक मैकेनिज्म तैयार करना पड़ेगा जिसमें दलित आरक्षण सही लोगों तक पहुंचे. ये जानना पड़ेगा कि पिछले 70 सालों में आरक्षण का लाभ किसको मिला, किसको नहीं मिला. दलित समाज के समृद्ध लोगों में ऐसा वातावरण बनाया जाए कि वो खुद अपने समाज के वंचित लोगों के लिए आरक्षण छोड़ें. दलित समाज में भी क्रीमी लेयर का प्रावधान कर सकते हैं. दलित आरक्षण के अंदर अलग अलग कैटेगरी तैयार करना. क्वारटाइल सिस्टम एक अच्छा तरीका हो सकता है. उदाहरण- दिल्ली के रहने वाले दलित को बहराइच के दलित से कम प्वाइंट. लखनऊ की अच्छी आय वाले दलित को सांगली के कम आय वाले दलित से कम प्वाइंट.

हरिजन, अनुसूचित जाति और दलित राजनीति से आगे के विमर्श की रूपरेखा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तैयार कर दी है जिसमें उद्यमिता को बढ़ावा देने की बात है. डिक्की जैसे संगठनों को बढ़ावा देकर वंचित और पिछड़े समाज के युवाओं को कौशल विकास और उद्यमिता के लिए प्रेरित करना. स्कूल पाठ्यक्रम में वंचित समाज के संत, महापुरुष, योद्धाओं की कहानियां, कविता और लेख शुरुआत से ही पढ़ाना शुरू करना. आज अंबेडकर की स्वीकार्यता बढ़ी है. इस श्रंखला में और लोगों को जोड़ना.

केंद्र सरकार और राज्य सरकार के सभी प्रतिष्ठानों में बैकलॉग के सभी पद जल्द से जल्द भरने की कोशिश करना. इसके बाद ही खुले मन से नए विकल्पों को तलाश किया जा सकता है. आज जब लाखों की संख्या में दलित और पिछड़े समाज के युवा उच्च और व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं तो सभी को सरकारी नौकरी दे पाना कठिन है. इसलिए नए विकल्पों पर विचार करना चाहिए जहां दलित और पिछड़े समाज के युवाओं को अवसर की समानता हो. ओबीसी समाज में भी ऐसा वातावरण बनाना कि वो क्रीमी लेयर में आने पर आरक्षण छोड़ें.

केंद्र और राज्य सरकार को हर जिले में सामाजिक न्याय केंद्र खोलने चाहिए. ये केंद्र क्षेत्र के वंचित समाज के लोगों और उनके मुद्दों की पहचान करेंगे. विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच शिकायतों और झगड़ों का सुलह से निपटारा करेंगे. वंचित समाज के लोगों को उनसे जुड़ी स्कीम के बारे में बताएंगे. वंचित समाज के लोगों को मुफ्त कानूनी और मनोवैज्ञानिक सलाह देंगे. हर राज्य के किसी एक सामाजिक विज्ञान अध्ययन संस्थान को इन केंद्रों का नोडल केंद्र बनाया जा सकता है. हर हफ्ते इन केंद्रों के कामों की रिपोर्ट राज्य स्तरीय नोडल सेंटर पर आएगी और एक फाइनल रिपोर्ट हर हफ्ते मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय भेजी जा सकती है. इन केंद्रों के माध्यम के सरकार कोई भी प्रयोग और दखल समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए कर सकती है. इस तरह देश के हर जिले के सामाजिक प्रोफाइल, आवश्यकताओं और बदलावों पर नजर रखी जा सकती है और उन पर कार्रवाई की जा सकती है. जैसे कृषि विज्ञान केंद्रों ने खेती से जुड़ी जानकारी और उन्नत यंत्रों को आम किसान तक पहुंचाया उसी तरह सामाजिक न्याय केंद्र भी एक सोशल लैव की तरह काम करेंगे जो सामाजिक विकास का अध्‌ययन करेंगे और सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण सुनिश्चित करने में मदद करेंगे.

अगले पांच साल अगर ऐसा वातावरण बनाया जिसमें पहचान की राजनीति से आगे बढ़कर सामाजिक न्याय एक समतामूलक, समरस और आधुनिक समाज की तरफ जा सके तो नए भारत के निर्माण में ये एक बड़ा योगदान होगा. यहां ये कहने में कोई हर्ज नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दिशा में विभिन्न योजनाओं द्वारा जो पहल की है वो सामाजिक न्याय के विमर्श को पहचान से आगे सवर्वसमावेशी विकास की तरफ ले जाने वाली हैं. उनके नेतृत्व में भारतीय राज्य निश्चित ही अधिक लोकतांत्रिक होकर उभरा है. उन्होंने समाज की शक्ति को पहचानते हुए हर योजना में जनभागीदारी सुनिश्चित करने की कोशिश की है. उन्होने सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण को अगले स्तर पर ले जाते हुए उसे बाजार से जोड़ा है जिसके तहत दलित चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री जैसे संगठन मजबूती से खड़े हो रहे हैं. स्टैंड अप इंडिया, दलित वेंचर कैपिटलिस्ट फंड, वनबंधु, सुकन्या समृद्धि, रोशनी, सुगम्य भारत जैसी तमाम योजनाओं से हाशिए का समाज मुख्यधारा में आकर मजबूत हो रहा है. राज्य, समाज और बाजार को सही ढंग से साधते हुए मोदी सरकार सामाजिक न्याय की एक ऐसी नई परिभाषा गढ़ रही है जिसका सपना डॉ. अंबेडकर ने देखा था. हम आशा कर सकते हैं कि अगले पांच साल में ये प्रक्रिया तेजी से बढ़ेगी और नए भारत का सपना साकार होगा.

साभार : Academics4Namo.com

1 COMMENT

  1. India need a Human University where people are taught how to live like a human being .
    Many culture teach their followers to kill human beings .And never get punished even .

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