एक बार फिर समूची दुनिया आतंकवाद के कायराने कुकृत्य का गवाह बनी। धार्मिक उन्माद के खिलाफ बेबाकी से लिखने वाली पत्रिका शार्ली अब्दो के दफ्तर पर हमला कर 12 लोगों की हत्या सामान्य हत्या नहीं अपितु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हत्या थी।ऐसा पहली बार नहीं हुआ था-इससे महज एक दशक पहले नीदरलैंड के फिल्म निर्माता ने ‘सबमिशन’ नामक फिल्म बनाई।यह फिल्म इस्लाम में महिलाओं की चिंताजनक स्थिति , उनके साथ बुरे व्यवहार व पितृसत्तात्मकता पर प्रहार करती है परंतु एक इस्लामी चरमपंथी द्वारा उसकी हत्या कर दी गई।इसके पश्चात पत्रकारों, कार्टूनिस्टो व फिल्म निर्माताओं पर धमकियों का सिलसिला शुरू हो गया।आज हमारे समक्ष ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
यहां से एक बहस शुरू होती है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां तक न्यायोचित है?जिसका साधारण सा उत्तर है कि जब तक हम दूसरों के अधिकारों का हनन न करें।इसी संबंध में पोप फ्रांसिस का वक्तव्य सटीक है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हर हाल में रक्षा होनी चाहिए लेकिन लोगों की भावनाओं का ध्यान रखते हुए।यह बात स्वीकार्य है कि अल्लाह की तस्वीर बनाना इस्लामिक भावनाओं को भडकाना है परंतु यह कहां तक उचित है कि ऐसा करने वालों को मौत के घाट उतार दिया जाए।इससे पहले भारत में एम.एफ हुसैन ने हिन्दू देवी-देवताओ के नग्न चित्र उकेरा तब हिन्दू धर्मावलंबियो ने भी विरोध प्रदर्शन कर लोकतंत्र में विश्वास रखते हुए अपनी आहत भावनाओं के लिए कानून का सहारा लिया।लेकिन फ्रांस की इस घटना से इस्लामिक चरमपंथी ताकतों की विचारधारा का अनुमान लगाया जा सकता है जो कि धर्म के नाम पर समाज में विद्वेष व घृणा के गहरे बीज बो रही है।
अधिकतर इस्लामिक शासित राष्ट्र आज धर्म के रूढियों को बढावा देने वाले विचारों को ईशनिंदा व शरीयत जैसे कानूनों का जामा पहना कर जीवित रखा है।सैमुअल पी. हंटिगटन ने सभ्यता के टकराव का सिद्धांत पेश किया जिसके अंतर्गत अरब के लोगों और सामान्य रूप से मुसलमानों की राजनीतिक निष्ठा आधुनिक पश्चिमी लोकतंत्र के ढांचों से मेल नहीं खाती।धर्म के नाम पर सर्वाधिक उन्माद अगर इस्लाम में है तो इसका कारण है कि आप इस धर्म में धार्मिक रूढियों एवं कुरीतियों को लेकर एक स्वस्थ्य बहस नहीं कर सकते।यह एक प्रमुख कारण है कि जहां पश्चिम व भारत जैसे लोकतांफत्रिक राष्ट्रों में राष्ट्र सर्वोपरि होता है वहीं इस्लाम मे धर्म व धार्मिक प्रश्न सर्वोपरि होते हैं।राष्ट्रीय राजनीति में धर्म की सेंध ने ही सारे हालात बिगाड रखे हैं।पुनर्जागरण के इतने वर्षों बाद भी यह धर्म आज तक उन्हीं मध्ययुगीन रूढियों से चिपका हुआ है जिसे यह अपनी परम्परा समझने की भूल करता है।
एक ओर जहां शार्ली अब्दो के समर्थन में निकाली गई रैलियों में दुनिया भर के ताकतवर नेताओं का हुजूम था तो वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान जैसे राष्ट्र में इस पत्रिका के कार्टूनिस्टो को आतंकी बताकर वास्तविक आतंकियों को ‘हीरोज’ की संज्ञा दी जा रही है।इस्लाम के इस तरह की मानसिकता उसके कट्टरता की परिचायक है।यही कारण है आज इस्लाम के नाम पर लोग मारे जा रहे हैं, महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा रहा है और इराक में यजीदियो को फांसी पर लटकाया जा रहा है।
बोको हराम , आई एस या अन्य इस्लामिक आतंकी संगठन आज अपने आप को इस्लाम का पर्याय समझने की भूल कर रहे हैं।उसकी गलत व्याख्या कर आपस में ही मारामारी कर रहे हैं।धार्मिक मामलों में मनुष्य प्रवृत्ति के अनुसार अपने ही धर्म के लोग सदैव अधिक हितकर प्रतीत होते हैं तब इस मुश्किल समय में जबकि दुनिया इस्लामिक चरमपंथियों से जूझ रही है, इस्लामिक धर्मगुरुओं का यह कर्तव्य दिखाई देता है कि कुरआन की सही व्याख्या कर उसके अमन के संदेश को प्रसारित करें।इस्लाम को आज जिस नजरिए से देखा जाने लगा है इससे यह नकारात्मक नजरिया भी बदलेगा।इस धर्म को अपने पुराने केंचुल को छोडना होगा नहीं तो कट्टर लोग इस धर्म व अन्य धर्म के बीच और अधिक दूरी पैदा करने की कोशिश करेंगे जिससे बहुत संभव है कि स्थिति और भी ज्यादा हिंसक और अराजक हो।
अनुराग सिंह ‘ शेखर ‘
किसी समाज मैं तीसरे आदमी की दखल से हालात और ज्यादा बिगड़ेंगे. अमेरिका ने इराक मैं दखल दिया,आणविक हथिया र तो मिले नहीं बल्कि ,आतंकवादी गुटों का जन्म आरम्भ,लीबिया मैं अमेरिका ने हस्तक्षेप किया आज लीबिया मैं कई आतंकवादी गुट सक्रीय है. असर अल बशर के खिलाफ आतंकवादी या विद्रोहियों को मदद मिली परिणाम क्या हुआ? तीसरे समाज या विचारधारा ने दखल देना ही नहीं चाहिए. आखिर फ्रांस की पत्रिका ने कार्टून छापकर कौनसा लोकहितकारी कार्य किया?यदि उसे अभिव्यक्ति की स्वत्रंता से इतना अधिक लग्गाव था तो मुस्लिम देशों मैं जो गरीबी है,पिछड़ापन है,उसके बारे मैं लिखता. पवित्र पुस्तको,हदीसों से अंश लेकर मुस्लिम विदवानो से सलाह कर रूढ़ियों को दूर करने हेतु लेख लिखता। लेकिन पत्रिकाएं भी अपनी बिक्री बढ़ने के लिए ऐसे कृत्य करती हैं. फ्रांस की इस पत्रिाका की बिक्री ४०००० से अधीन नहीं थी. किन्तु इस घटना के बाद लोग पुनः प्रकाशन के दिन अलसुबह से ही कतारों में खरीदी हेतु खड़े हुए थे। अतः केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी पैगम्बर किसी धर्म के अनुनाईयों को ठेस पहुँचाना कहाँ तक उचित है?