विधायक नहीं जनादेश हो गया है अगुआ या है बंधक!

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लिमटी खरे

भारत में लोकतांत्रिक परंपराएं हैं। लोकतंत्र का पारदर्शी होना ही इसकी मूल भावना या यूं कहा जाए कि स्पंदन है तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। आजादी के उपरांत सात दशकों में नैतिकता का पतन भी पूरी तरह हो चुका है। जनता के द्वारा जिस व्यक्ति पर विश्वास करते हुए उसे अपना प्रतिनिधि चुना जाता है वही अगर अगुआ हो जाए या बंधक बना लिया जाए तो इसे क्या माना जाएगा! देश के हृदय प्रदेश में जिस तरह का हाई वोल्टेज सियासी ड्रामा चल रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। प्रदेश के चुने हुए 22 विधायक अचानक ही गायब हो जाते हैं! इन विधायकों को भारी भरकम सुरक्षा दी गई है। एक सुरक्षा कर्मी इनकी सुरक्षा के लिए चौबीसों धंटे तैनात रहता है। इसके बाद भी अगर विधायक अचानक ही किसी को बिना बताए गायब हो रहे हैं तो यह सुरक्षा एजेंसियों, पुलिस, खुफिया तंत्र के लिए बड़ा सवालिया निशान है। देखा जाए तो जनादेश प्राप्त विधायक ही अगर इस तरह से लंबे समय से गायब हैं तो इसे विधायकों का नहीं जनादेश का गायब होना माना जा सकता है।

मध्य प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा के बीच जिस तरह की सियासी मारकाट मची हुई है, वह किसी से छिपी नहीं है। होली के अवसर पर धुरैड़ी से ही सियासी अस्थिरता बनी हुई है। कांग्रेस और भाजपा के द्वारा अपने अपने दावे किए जा रहे हैं। इसी बीच देश की शीर्ष अदालत की चौखट तक भी दोनों दलों ने दस्तक दे दी है। चुने हुए नेताओं की सियासी निष्ठा उनका नितांत निजी मामला हो सकता है पर चुने हुए नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें जिस जनता ने जनादेश दिया है, उसकी भावना का भी वे सम्मान जरूर करें।

भारत देश को अनेकता में एकता का प्रतीक माना जाता है। भारत की सांस्कृतिक, एतिहासिक, पुरातात्विक, राजनैतिक विभिन्नताओं के बाद भी यह देश एक सूत्र में कैसे बंधा है यह बात विश्व भर में कौतुहल क कारण रहता आया है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओ में सूबों का योगदान भी बहुत ही अहम माना जा सकता है। जब भी इस तरह का गतिरोध पैदा होता है, जैसा मध्य प्रदेश में चल रहा है, तो उसका असर न केवल उस प्रदेश वरन देश पर भी पड़ता है। इससे वह सूबा तो विकास के मामले में पिछड़ता ही है, इसके साथ ही देश पर भी इसका व्यापक असर पड़ता है।

कुछ समय पूर्व कर्नाटक में इसी तरह की घटना घटी थी। 1996 में केशुभाई पटेल गुजरात में भाजपा की सरकार के मुखिया थे, उसी दौरान बलशाली क्षत्रप शंकर सिंह बघेला के द्वारा 46 विधायकों को अपने साथ लिया गया और एक अलग गुट बना लिया गया था। इन विधायकों को उस दौर में संरक्षण मिला था मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाले सूबे में। इन विधायकों को खजुराहो के चंदेला होटल में सुरक्षित रखा गया था। इन विधायकों से जब भी किसी भाजपा के नेता द्वारा बातचीत की कोशिश की जाती, उसे रोक दिया जाता। इस दौरान भी भाजपा के नेताओं को रोकने के लिए बल का प्रयोग किया गया था। आज इतिहास दोहराता ही दिख रहा है। 1996 में भाजपा के विधायकों को कांग्रेस की सरपरस्ती में मध्य प्रदेश में संरक्षण मिला था तो अब कांग्रेस के बागी विधायकों को कर्नाटक में भाजपा की सरकार के चलते संरक्षण मिला हुआ है।

इस पूरे नाटकीय घटनाक्रम में कांग्रेस और भाजपा के आला नेताओं को इस बात की परवाह नहीं दिख रही है कि जनता ने जिन विधायकों को चुना है उन विधायकों को उनके नेता के प्रति निष्ठा को देखते हुए नहीं चुना है। निश्चित तौर पर विधान सभा चुनावों में उनके अलावा खड़े अन्य उम्मीदवारों में मतदाताओं ने अपने भविष्य को इन नेताओं के हाथों सौंपने में ही भलाई समझी होगी। जो नेता आज विधायकों को कथित तौर पर अगुआ कर रहे हैं, या बंधक बना रहे हैं, अथवा जो बन रहे हैं, उन्हें जनादेश का सम्मान करना चाहिए।

इस पूरे घटनाक्रम ने प्रदेश में पुलिसिंग, खुफिया तंत्र की कलई भी खोलकर रख दी है। देश में आतंकवाद, अलगाववाद, जरायम पेशा लोगों से जनता को सुरक्षित रखने की जवाबदेही इन्ही सारे तंत्रों पर आहूत होती है। अगर इस तरह के तंत्र के द्वारा अपने सूबे में चुने हुए विधायकों को सुरक्षित न रखा जा पाया हो तो जनता किस पर और कैसे भरोसा करे! हर विधायक को एक सुरक्षा कर्मी दिया जाता है। सुरक्षा कर्मी को यह निर्देश होते हैं, कि वह अपने विधायक के साथ साए की तरह रहे। इसके अलावा खुफिया तंत्र भी प्रदेश में कई स्तर के हैं।

आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि अपने गनमेन, स्थानीय पुलिस, उसके सूचना संकलन, खुफिया तंत्र के अनेक स्तरों के चक्रों को एक दो नहीं वरन 22 विधायकों ने एक साथ कैसे भेद दिया! जो विधायक कथित तौर पर अगवा किए गए हैं, या बंधक बनाए गए हैं, उनके सुरक्षा कर्मी कहां हैं! क्या सुरक्षा कर्मियों से इस संबंध में पूछताछ की गई! कहा तो यहां तक भी जा रहा है कि प्रदेश के पुलिस प्रमुख के सर पर इस विफलता का ठीकरा फोड़ते हुए उनके स्थान पर विवेक जोहरी को पुलिस का प्रमुख बनाया गया है।

वैसे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इस बारे में विचार करना जरूरी है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे बड़े चेहरे ने कांग्रेस का त्याग क्यों किया! उनके कांग्रेस से विलग होने के बाद अब प्रदेश स्तर के क्षत्रप चाहे जो कह लें पर इस पूरे प्रकरण से कांग्रेस को जो क्षति हुई है, उसकी भरपाई जल्द होती नहीं दिख रही है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ग्लेमरस नेता हैं, उनका प्रभाव उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक है। उनके अनुयाईयों की भी खासी तादाद है। अगर 22 विधायक एक साथ गायब हुए तो इसे भी सामान्य बात नहीं माना जा सकता है। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को इस बारे में विचार करना ही होगा कि अगर उसके द्वारा अब भी युवा नेतृत्व को तैयार नहीं किया गया तो पार्टी का आने वाला भविष्य बहुत सुनहरा नहीं माना जा सकता है।यह सब कुछ देश के हृदय प्रदेश में घट रहा है, पर यह मध्य प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। मध्य प्रदेश के अलावा आने वाले समय में यह अन्य सूबों में भी दोहराया जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस संबंध में पूर्व चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी के द्वारा कही गई बात को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है, जिसमें उनके द्वारा कहा गया है कि अगर कोई निर्वाचित प्रतिनिधि निर्वाचन के पांच साल के अंदर दलबदल करते हैं तो उन्हें आने वाले छः सालों तक चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए। अगर किसी ने एक सियासी दल की रीति नीति से प्रभावित होकर चुनाव जीता है और उनके बाद उसका मतभेद या मनभेद किसी नेता विशेष से हो जाता है तो उसके पार्टी छोड़ने का ओचित्य समझ से परे ही है। इसके लिए पूर्व चुनाव आयुक्त के द्वारा कही गई बात को गंभीरता से विचार करते हुए उस पर अमल करते हुए उसे कानून की शक्ल दे दिया जाना चाहिए।

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लिमटी खरे
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