नागरिकता विधेयक की जरूरत

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प्रमोद भार्गव

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने तमाम विवादों के बावजूद नागरिकता संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी है। पिछली लोकसभा में यह विधेयक पारित हो गया था, लेकिन राज्यसभा में अटक गया था। इस कारण इसे संशोधित रूप में केंद्रीय कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। यह विधेयक नागरिकता अधिनियम 1955 के प्रावधानों को बदलने के लिए संसद में पेश किया जाना है। इसके कानूनी रूप में आ जाने के बाद पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से प्रताड़ित होकर भारत आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और इसाई धर्मों के प्रवासियों के लिए भारतीय नागरिकता प्राप्त करने में आसानी होगी। अभी तक विदेशी नागरिक को भारतीय नागरिकता हासिल करने के लिए 11 साल भारत में रहना अनिवार्य था, जिसे घटाकर छह साल किया गया है। इसमें प्रवासी मुस्लिमों को नागरिकता देने का प्रावधान इसलिए नहीं है, क्योंकि वे भारत में घुसपैठियों के रूप में आसानी से आजीविका के संसाधन प्राप्त करने के लिए आए हैं। जबकि अन्य धर्मावलंबियों को अल्पसंख्यक होने के कारण प्रताड़ित कर पलायन को मजबूर किया गया। हालांकि, इस विधेयक का पूर्वोत्तर राज्यों में कड़ा विरोध हो रहा है। उन राज्यों के लोगों को आशंका है कि इस संशोधन से राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन (एनआरसी) से पैदा हुई समस्याएं सुलझने की बजाय और उलझ जाएंगी।विपक्षी दल धार्मिक आधार पर भेदभाव के रूप में नागरिकता विधेयक की आलोचना कर चुके हैं। इसमें श्रीलंका और नेपाल के घुसपैठी मुस्लिमों को भी शामिल करने की मांग उठ रही है। राजनीति की भिन्नता के चलते कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, सपा, राजद, माकपा, बीजद और असम में भाजपा की सहयोगी असम गण परिषद इस विधेयक के विरोध में हैं। अकाली दल, जद (यू), अन्नाद्रमुक सरकार के पक्ष में हैं। विपक्षी दल इस कोशिश में रहेंगे कि लोकसभा और राज्यसभा से यह विधेयक किसी भी सूरत में पारित न होने पाए। वे उसी तरह का हल्ला मचाएंगे, जैसा तीन तलाक,  अनुच्छेद-370 व 35 ए को खत्म करते वक्त मचाया था। विपक्ष ने इसे विभाजनकारी और सांप्रदायिक करार देना शुरू कर दिया है। दरअसल, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान ऐसे मुस्लिम बहुल देश हैं, जिनमें गैर-मुस्लिम नागरिकों पर अत्याचार और स्त्रियों के साथ दुष्कर्म किए जाते हैं। चूंकि ये देश एक समय अखंड भारत का हिस्सा थे। इसलिए इन तीनों देशों में हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध और पारसी बड़ी संख्या में रहते थे। 1947 में जब भारत से अलग होकर पाकिस्तान नया देश बना था, तब वहां 20 से 22 प्रतिशत गैर-मुस्लिमों की आबादी थी, जो अब घटकर दो प्रतिशत रह गई है। पाकिस्तान से अलग होकर जब बांग्लादेश वजूद में आया था, तब वहां बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे मुक्ति संग्राम के जवानों ने गैर-मुस्लिम स्त्री व पुरुषों के साथ ऐसे दुराचार व अत्याचार किए कि वे भारत की ओर पलायन करने को मजबूर हुए। बांग्लादेश के समाज के मिजाज पर निगाह रखने वाले समाजशास्त्री इस्माइल सादिक, रॉबिन डिसूजा व पुरंदर देवरॉय बहुत पहले लिख चुके हैं कि ‘वहां के समाज का बड़ा हिस्सा धार्मिक अल्पसंख्यकों की आजादी को पसंद नहीं करता है। इन समुदायों के पर्व-त्योहारों पर वहां के लोग इसलिए आक्रामक हो उठते हैं, ताकि वे अपने पर्वों को मनाने से डरें।‘ हम सब जानते हैं कि अफगानिस्तान के आतंकवादियों ने वामियान की चट्टानों पर उकेरी गईं, भगवान बुद्ध की मूर्तियों को तोपों से सिर्फ इसलिए उड़ा दिया था, क्योंकि वे भिन्न धर्म से संबंध रखती थीं। इससे पता चलता है कि इन देशों में बहुसंख्यक धर्मावलंबी दूसरे धार्मिक समुदायों को कतई पसंद नहीं करते हैं। इन्हीं समस्याओं से छुटकारा पाने की दृष्टि से गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में घोषणा की है कि ‘पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता पत्रक (एनआरसी) लागू करेंगे।‘ शाह की यह घोषणा बेहद महत्वपूर्ण है। बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार से बड़ी संख्या में मुस्लिम घुसपैठियों ने आकर देश के आजीविका के संसाधनों पर तो कब्जा कर ही लिया है, देश के जनसंख्यात्मक घनत्व को बिगाड़कर मूल निवासियों के लिए बड़ी चुनौती बन रहे हैं। असम में कुछ समय पहले जारी एनआरसी सूची के बाद बवाल मचा हुआ है, क्योंकि यहां 19.6 लाख लोगों के नाम एनआरसी की अंतिम सूची में नहीं आए। नतीजतन अब इन्हें अपनी अपील पर न्यायाधिकरण द्वारा सुनवाई किए जाने का इंतजार है। दरअसल, असम में स्थानीय बनाम विदेशी नागरिकों का मसला राज्य के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन को लंबे समय से झकझोर रहा है।हालांकि राष्ट्रीय नागरिक पंजी तैयार करना बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा है। इसके लिए निर्धारित वर्ष 1971 है। जिन लोगों के पास 1971 के पहले की पहचान के दस्तावेज होंगे, उन्हें ही देश का मूल्यनिवासी माना जाएगा। इन दस्तावेजों में भूमि, भवन, राशनकार्ड, हथियार लाइसेंस, पासपोर्ट, मूल निवासी, जन्म व विवाह प्रमाण-पत्र, अंक सूची, डिग्री अथवा अदालती दस्तावेज ऐसे आधार होंगे, जो व्यक्ति की नागरिकता प्रमाणित करेंगे। इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि पूरे देश की निर्दोष सूची कैसे बनेगी? असम में लोगों से 24 मार्च 1971 से पहले जारी कोई ऐसा दस्तावेज मांगा गया था, जिससे यह प्रमाणित हो सके कि उनके पूर्वज इस तारीख से पहले वहां रहते थे। उन लोगों के लिए ऐसे दस्तावेज जुटाना मुश्किल है, जो गरीबी के दायरे में रहते हुए भूमि अथवा भवन के मालिक नहीं हैं। क्योंकि 1971 से पहले आधार एवं मतदाता पहचान-पत्र की अनिवार्यता वोट डालने के लिए नहीं थी। साफ है, देश के नागरिक को अपनी पहचान साबित करने के लिए दस्तावेज प्राप्त करने में कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। इससे सरकारी मशीनरी को भी नागरिकों से जूझना पड़ेगा। आम आदमी के लिए 1971 के पहले के निवासी होने के प्रमाण के लिए मतदाता सूची ही एक ऐसा प्रमाण हैं, जो आसानी से व्यक्ति या उसके पूर्वजों की नागरिकता सिद्ध कर सकता है। लेकिन 1971 से पहले की मतदाता सूचियां राज्य सरकारों के पास सुरक्षित हैं भी अथवा नहीं, यह सवाल कालांतर में सामने आएगा। बहरहाल, भारतीय नागरिकता विधेयक का कानूनी रूप में आना देशहित के लिए बेहद जरूरी है।(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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