1817 का पाइक विद्रोह भी कहलाता है प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

प्रमोद भार्गव
                आदिवासी असंतोष के प्रतीक रहे ओडिशा के ‘पाइक विद्रोह‘ को भी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का दर्जा प्राप्त हैं। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की शोषणकारी नीतियों के विरुद्ध ओडिसा में पाइक जनजाति के लोगों ने जबरदस्त सषस्त्र एवं व्यापक विद्रोह किया था। इस संग्राम के परिणामस्वरूप कुछ समय के लिए ही सही पूर्वी भारत में फिरंगी सत्ता की चूलें हिल गईं थीं औा उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था। पाइक ओडिशा की एक पारंपरिक भूमिगत रक्षा सेना के रूप में सेवारत रहती थी। 1857 के सैनिक विद्रोह से ठीक 40 साल पहले 1817 में अंग्रेजों के विरुद्ध इन भारतीय नागरिकों ने जबरदस्त सशस्त्र विद्रोह किया था। इसके नायक बख्शी जगबंधु थे। इस संघर्ष को भी कई इतिहासकार आजादी की पहली लड़ाई मानते हैं।
इस स्वतंत्रता संघर्ष को ऐतिहासिक स्वीकार्यता देने के लिए ओडिअसंतोष के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने 2017 में केंद्र सरकार को पत्र लिखकर मांग की थी कि वास्तविक इतिहास लिखने के क्रम में 2018 के नए सत्र से एनसीआरटी की इतिहास संबंधी पाठ्य पुस्तक में ‘पाइक विद्रोह‘ का पाठ जोड़ा जाए। तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बयान देकर स्पष्ट किया था कि ‘1817 का पाइक विद्रोह ही प्रथम स्वतंत्रता संग्राम है।‘ उन्होंने यह भी कहा था कि ‘1857 का सिपाही विद्रोह किताबों में यथावत रहेगा। लेकिन देश के लोगों को आजादी का असली इतिहास भी बताना जरूरी है।‘ वैसे भी यदि घटनाएं और तथ्य प्रामाणिक हैं तो ऐसे पृष्ठों को इतिहास का हिस्सा बनाना चाहिए, जो बेहद अहम् होते हुए भी हाशिये पर हैं। पाइक विद्रोह के 2017 में दो सौ साल पूरे होने पर  इसका द्विशताब्दी समारोह मनाने के लिए केंद्र ने ओडिअसंतोष सरकार को दो सौ करोड़ रुपए दिए थे।
                आदिवासियों की जब भी चर्चा होती है तो अकसर हम ऐसे कल्पना लोक में पहुंच जाते हैं, जो हमारे लिए अपरिचित व विस्मयकारी होता है। इस संयोग के चलते ही उनके प्रति यह धारणा बना ली गई है कि वे एक तो केवल प्रकृति प्रेमी हैं, दूसरे वे आधुनिक सभ्यता और संस्कृति से अछूते हैं। इसी वजह से उनके उस पक्ष को तो ज्यादा उभारा गया, जो ‘घोटुल‘ और ‘रोरुंग‘ जैसे उन्मुक्त रीति-रिवाजों और दैहिक खुलेपन से जुड़े थे, लेकिन उन पक्षों को कमोबेष नजरअंदाज ही किया, जो अपनी अस्मिता के लिए आजादी के विकट संघर्ष से जुड़े थे ? भारतीय समाजषस्त्रियों और अंग्रेज साम्राज्यवादियों की लगभग यही दोहरी दृष्टि रही है। देश के इतिहासकारों ने भी उनकी स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी लड़ाई को गंभीरता से नहीं लिया। नतीजतन उनके जीवन, संस्कृति और सामाजिक संसार को षेश समाज से जुदा रखने के उपाय अंग्रेजों ने किए और उन्हें मानवशस्त्रियों के अध्ययन की वस्तु बना दिया। दूसरी तरफ अंग्रेजों ने सुनियोजित ढंग से आदिवासी क्षेत्रों में मिशनरियों को न केवल उनमें जागरूकता लाने का अवसर दिया, बल्कि इसी बहाने उनके पारंपरिक धर्म में हस्तक्षेप करने की छूट भी दी। एक तरह से आदिवासी इलाकों को ‘वर्जित क्षेत्र‘ बना देने की भूमिका रच दी गई। इस हेतु बहाना यह बनाया गया कि ऐसा करने से उनकी लोक-संस्कृति और परंपराएं सुरक्षित रहेंगी। जबकि इस हकीकत के मूल में आदिवासियों की बड़ी आबादी का ईसाईकरण करना था। इस कुटिल उद्देश्य में अंग्रेज सफल भी रहें।
                ये उपाय तब किए गए, जब अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देने के लिए पहला आंदोलन 1817 में ओडिशा के कंध आदिवासियों ने किया। दरअसल 1803 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठाओं को पराजित कर ओडिअसंतोष को अपने आधिपत्य में ले लिया था। सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेजों ने खुर्दा के तत्कालीन राजा मुकुंद देव द्वितीय से पुरी के विश्व विख्यात जगन्नाथ मंदिर की प्रबंधन व्यवस्था छीन ली। मुकुंद देव इस समय अवस्यक थे, इसलिए राज्य संचालन की बागडोर उनके प्रमुख सलाहकार व मंत्री जयी राजगुरू संभाल रहे थे। राजगुरू जहां एकाएक सत्ता हथियाने को लेकर विचलित थे, वहीं मंदिर का प्रबंधन छीन लेने से उनकी धार्मिक भावना भी आहत हुई थी। नतीजतन उन्होंने आत्मनिर्णय लेते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध जंग छेड़ दी। किंतु कंपनी की कुटिल फौज ने राजगुरु को हिरासत में ले लिया और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के आरोप में बीच चैराहे पर फांसी पर चढ़ा दिया। इस निर्लज्ज प्रदर्शन को अंग्रेज यह मानकर चल रहे थे कि जिस बेरहमी से राजगुरु को फांसी के फंदे पर लटकाया गया है, उससे भयभीत होकर ओडिअसंतोष की जनता घरों में दुबक जाएगी और भविश्य में बगावत नहीं करेगी। लेकिन हुआ इसके उलट। निर्दोष राजभक्त राजगुरु की फांसी के बाद जनता का लहू उबल पड़ा। घुमसुर के 400 पाइक आदिवासी प्रतिशोध की उग्र भावना से आक्रोषित हो उठे। परिणामस्वरूप इन विद्रोहियों ने खुर्दा में प्रवेश करके जगह-जगह अंग्रेजों पर हमले शुरू कर दिए। ब्रिटिश राज्य के प्रतीकों पर आक्रमण करते हुए पुलिस थाने, प्रशासकीय कार्यालय और राज-कोअसंतोषलय आग के हवाले कर दिए। घुमसुर वर्तमान में गंजम और कंधमाल जिले का हिस्सा है। 
                पाइक मूल रूप से खुर्दा के राजा के ऐसे खेतिहर सैनिक थे, जो युद्ध के समय शत्रुओं से लड़ते थे और शांति के समय राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने का काम करते थे। इस कार्य के बदले में उन्हें निशुल्क जागीरें मिली हुई थीं। इन जागीरों से राज्य कर वसूली नहीं करता था। शक्ति-बल से सत्ता हथियाने के बाद अंग्रेजों ने इन जागीरों को समाप्त कर दिया। यही नहीं कंपनी ने किसानों पर लगान कई गुना बढ़ा दी। जो लगान पहले फसल उत्पादन के अनुपात में एक हिस्से के रूप में ली जाती थी, उसे भूमि के रक्बे के हिसाब से वसूला जाने लगा। जिस कौड़ी का मुद्रा के रूप में प्रचलन था, उसकी जगह ‘रौप्य‘ सिक्कों को प्रचलन में ला दिया। जो लोग खेती से इतर नमक बनाने का काम करते थे, उसके निर्माण पर रोक लगा दी। इतनी बेरहमी बरतने के बावजूद भी न तो अंग्रेजों की दुष्टताथमी और न ही पाइकों का विद्रोह थमा। लिहाजा 1814 में अंग्रेजों ने पाइकों के सरदार बख्शी जगबंधु विद्याधर महापात्र, जो मुकुंद देव द्वितीय के सेनापति थे, उनकी जागीर छीन ली और उन्हें पाई-पाई के लिए मोहताज कर दिया।
                अंग्रेजों के ये ऐसे जुर्म थे, जिनके विरुद्ध जनता का गुस्सा भड़कना स्वाभाविक था। फलस्वरूप बख्षी जगबंधु के नेतृत्व में पाइकों ने युद्ध का षंखनाद कर दिया। देखते-देखते इस संग्राम में खुर्दा के आलावा पुरी, बाणपुर, पीपली, कटक, कनिका, कुजंग और केउझर के विद्रोही असंतोष मिल हो गए। यह संग्राम कालांतर में और व्यापक हो गया। 1817 में अंग्रेजों के निरंतर अत्याचारों के चलते घुमसुर, गंजम, कंधमाल, पीपली, कटक, नयागढ़, कनिका और बाणपुर के कंध संप्रदाय के राजा और आदिवासी समूह बख्षी जगबंधु द्वारा छेड़े गए संग्राम का हिस्सा बन गए। इन समूहों ने संयुक्त रणनीति बनाकर एकाएक अंग्रेजों पर आक्रामण कर दिया। तीर-कमानों, तलवारों और लाठी-भालों से किया यह हमला इतना तेज और व्यापक था कि करीब एक सौ अंग्रेज मारे गए। जो शेष बचे वे शिविरों से दुम दबाकर भग निकले। एक तरह से समूचा खुर्दा कंपनी के सैनिकों से खाली हो गया। जनता ने अंग्रेजी खजाने को लूट लिया। खुर्दा स्थित कंपनी के प्रअसंतोषसनिक कार्यालय पर कब्जा कर लिया। इसके बाद इन स्वतंत्रता सेनानियों को जहां-जहां भी अंग्रेजों के छिपे होने की मुखाबिरों से सूचना मिलीं, इन्होंने वहां-वहां पहुंचकर अंग्रेजों को पकड़ा और मौत के घाट उतार दिया।
                किंतु अंग्रेज आसानी से हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने अंग्रेज सैनिकों के नेतृत्व में देषी सामंतों की सेना को एकत्रित किया और पाइक स्वतंत्रता सेनानियों पर तोप व बंदूकों से हमला बोल दिया। इस तरह के घातक हथियार पाइकों के पास नहीं थे। गोया, दूर से विरोधियों को हताहत करने का जो तरीका अंग्रेजों ने अपनाया, उसके सामने विद्रोहियों के पराजित होने का सिलसिला शुरू हो गया। अंग्रेजों ने जिस सेनानी को भी जीवित पकड़ा उसे या तो फांसी दे दी अथवा तोप के मुहाने पर बांधकर उड़ा दिया। अंततः इस संग्राम के नायक बख्षी जगबंधु को 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें कटक के बरावटी किले में बंदी बनाकर रखा गया। जहां 1829 में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। तत्पश्चात भी 1817 में शुरू हुआ यह स्वतंत्रता संग्राम 1827 तक रुक-रुक कर छापामार हमलों के रूप में सामने आता रहा। निसंदेह पूर्वी भारत में उपजा यह विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया बड़ा संग्राम था। यह 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के ठीक 40 साल पहले हुआ था। इस लिहाज से इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की श्रेणी में रखना इस आंदोलन के सेनानियों का सम्मान है। लेकिन यह स्थिति तब और बेहतर होगी, जब 1857 के पहले अन्य स्वतंत्रता आंदोलनों को भी इसमें असंतोषमिल कर लिया जाए।
                पाइक विद्रोह के समतुल्य ही अंग्रेजों से 1817 में भील आदिवासियों का संघर्ष छिड़ा था। फिरंगी हुकूमत के अस्तित्व में आने से पहले ही भीलों का राजपूत असंतोषसकों से झगड़ा बना रहता था। ज्यादातर भील पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों के रहवासी थे। खेती-किसानी करके अपनी आजीविका चलाते थे। राजपूतों की राज्य व भूमि विस्तार की लिप्सा ने इन्हें उपजाऊ कृशि भू-खंडों से खदेड़ना शुरू कर दिया। भीलों को पहाड़ों और बियावान जंगलों में विस्थापित होना पड़ा। हालांकि वे चरित्र से स्वाभिमानी और लड़ाके थे, इसलिए राजपूतों पर रह-रहकर हमला बोल कर अपने असंतोषके ताप को ठंडा करते रहे।
भारत में जब अंग्रेज आए तो ज्यादातर सामंत उनके आगे नतमस्तक हो गए। नतीजतन अंग्रेज राजपूत सामंतों के सरंक्षक हो गए। गोया, भीलों ने जब संगठित रूप में खानदेश के सामंतों पर आक्रमण किया तो अंग्रेजों ने राजपूतों की सेना के साथ भीलों से युद्ध कर उन्हें खदेड़ दिया। बाद में यही संघर्ष ‘भील बनाम अंग्रेज‘ संघर्ष में बदल गया। इसलिए इसे ‘खानदेश विद्रोह‘ का नाम दिया गया। इस विद्रोह से प्रेरित होकर भीलों का विद्रोह व्यापक होता चला गया। 1825 में इसने सतारा की सीमाएं लांघ लीं और 1831 तक मध्यप्रदेश के वनांचल झाबुआ क्षेत्र में फैलता हुआ मालवा तक आ गया। अंततः 1846 में अंगेज इस भील आंदोलन को नियंत्रित करने में सफल हुए, तत्पषचात 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ। लिहाजा 1817 में पाइक विद्रोह के समानांतर जितने भी 1857 के पहले तक अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष हुए हैं, यदि उन्हें जोड़कर 1857 पहले के स्वतंत्रता संग्राम की मान्यता दी जाती है, तो यह इन संग्रामों में षहीद हुए देशभक्तों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। वैसे भी आजादी की लड़ाई के जो भी अनछुए पहलू हैं, उन्हें समग्रता से प्रस्तुत करने की जरूरत है। इतिहास की ये प्रस्तुतियां इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि यह संघर्ष भारतीय जन-जातियों की अस्मिता से जुड़े राष्ट्रीय प्रसंग हैं। 

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