प्रधानमंत्री नें जन-मन को अभिब्यक्त किया है

COURTS प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोंदी नें गत दिनों न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेंलन में न्यायपालिका के लिये स्पष्ट और बेबाक बातें बहुत ही सलीके से कहीं। प्रधानमंत्री नें कानूनीं प्रक्रिया में बड़े बदलावों के जरूरत पर बल दिया । पेचीदा कानूनों को हटानें पर जोर दिया । प्रधानमंत्री का कहना था कि जजों के ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेंदारी है, क्योंकि भगवान नें उन्हें पवित्र काम के लिये चुना है। यह सब बातें तो अपनीं जगह पर हैं, महत्वपूर्ण बात यह कि उन्हेांने यह भी कहा न्यायपालिका को ताकतवर तो होना ही चाहिये इसके साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि वह एकदम् सही भी हो। प्रधानमंत्री के कहनें का आशय यह कि न्यायपालिका ताकतवर है, इसमें कोई दो मत नहीं। उनका कहनें का आशय यह भी कि न्यायपालिका को ताकतवर होना ही चाहिये। लेकिन न्यायपालिका को इसके साथ एकदम सही भी होना चाहिये। उनके कहनें का आशय यह कि न्यायपालिका ‘‘अति स्वतंत्र कहुं बन्धन नाहीं’ की तर्ज पर असीम ताकतवर तो है, पर उसे एकदम सही नहीं कहा जा सकता। तभी तो उन्होंने न्यायालयों को ताकतवर होनें के साथ सर्वोत्तम होनें पर जोर दिया, और इसके लिये न्याय प्रणाली में गुणात्मक सुधार की जरूरत बताई ताकि न्याय प्रणाली पर लोगों के विश्वास में कमी न आ सके । प्रधानमंत्री इस तरह से यह बताना चाह रहे हैं कि न्याय प्रणाली में कहीं-कहीं लोगों के विश्वास में कमियां हैं तभी तो उन्होंनें स्पष्ट शब्दों में न्यायाधीशों से कहा कि यदि आप कोई गल्ती करते हैं तो कोई समाधान नहीं है। क्योंकि आपसे ऊपर कोई नहीं है। इसलिये उन्होनें सिर्फ स्व-मूल्यांकन पर ही जोर नहीं दिया, बल्कि इस बात पर भी जोर दिया कि न्याय प्रणाली की खामियों और समस्याओं को दूर करनें के लिये एक आंतरिक- तंत्र विकसित करना चाहिये । प्रधानमंत्री नें यह चेतावनीं भी दी कि अगर जजों से गलती हो तो कुछ नहीं बचेगा।

बिडम्वना यह कि कई बार कहनें के बावजूद न्यायपालिका नें अपनें लिये कोई उपचार – संहिता अब तक नहीं बनाई। स्पष्ट है- प्रधानमंत्री के कहनें का आशय यह कि यदि कार्यपालिका और ब्यवस्थापिका गलती करती हैं तो न्यायपालिका उन्हें सुधार सकती है। लेकिन न्यायपालिका की गलती को कौन सुधारे? क्योंकि न्यायपालिका निरंकुश की हद तक ताकतवर हो गई है। सर्वोच्च हो गई है, जबकि संविधान निर्माताओं का उद्देश्य स्पष्ट तौर पर अमेरिकन संविधान की तरह यह था कि ब्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच चेक ऐन्ड बैलेन्स अर्थात निरोध और सन्तुलन का सिद्धान्त लागू होना चाहिये। लेकिन बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि भारतीय न्यायपालिका के बारे में ऐसा नहीं है । वह स्वतः अपनीं नियुक्ति करती है, स्थानान्तरण करती है। जहां तक इन्हें हटानें का प्रश्न है, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के जजों के लिये संसद में महाभियोग चलानें के अलावा और किसी किस्म की कार्यवाही का प्रावधान ही नहीं है। अब जहां तक महाभियोग की प्रक्रिया का सवाल है वह इतनीं दुष्कर है कि स्वतंत्र भारत में एक बार भी उसका समुचित रूप से प्रयोग नहीं हुआ। अब जब केन्द्र की मोंदी सरकार न्यायपालिका की इस सर्वोच्चता और निरंकुशता को रोंकनें के लिये ‘‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ बिल पास करती है, तो न्यायपालिका समेंत दूसरे कई लोग इसका इस तरह से विरोध करते हैं कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला है। जबकि यह मात्र संविधान की उस भावना को लागू करनें का प्रयास है, जिसके तहत न्यायपालिका पर भी चेक ऐन्ड बैलेन्स का सिद्धान्त लागू होना चाहिये । ‘‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ से तात्पर्य सिर्फ इतना ही कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियां और स्थानान्तरण न्यायपालिका स्वतः न करके यह आयोग करेगा। इसके साथ ही यह जजों के विरूद्ध शिकायतें भी सुन सकेगा और कार्यवाही भी कर सकेगा। ऐसा हो भी क्यों न ! क्योंकि जज कोई आसमान से उतरे देवदूत नहीं हैं, वह भी इसी समाज से आते हैं और जो बुराइयां समाज में हैं उससे भला न्यायाधीश भी कैसे असंपृक्त रह सकते हैं ? दूसरी बडी़ बात यह कि ‘‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ में जो 6 सदस्य होगे, उसमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ दो और सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश यानीं कुल तीन सदस्य न्यायपालिका से ही हांेगे। इसके साथ विधि एवं न्याय मंत्री को छोंड़कर जो दो और सदस्य चुनें जायेगे उसमें भी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका होगी। इतना ही नहीं सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इस आयोग के अध्यक्ष भी हांगे। इस तरह से ‘‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ में न्यायपालिका की प्रभावी भूमिका होगी। अलबत्ता सब कुछ न्यायपालिका ही नहीं होगी, होना भी नहीं चाहिये। जैसा कि कहा गया है – ‘‘ सम्पूर्ण सत्ता सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है’’। इसीलिये चेक ऐन्ड बैलेन्स ’’ का सिद्धान्त ही आदर्श है। बिडम्वना यह है कि बावजूद इसके ‘‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ के गठन की वैधानिकता का प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के लिये लंबित है। अब एक तरफ तो सर्वोच्च न्यायालय यह कह रहा है कि ‘‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ के गठन पर कोई रोंक नहीं है, दूसरी तरफ उसे संवैधानिक पीठ के पास सुनवाई के लिये भेजा जा रहा है। दुर्भाग्य से यदि सर्वोच्च न्यायालय इसे अवैधानिक घोषित करता है, तो इसका मतलब यही निकलेगा कि न्यायपालिका दूसरों को तो नियंत्रित करना चाहती है, पर स्वतः – निरंकुशता और स्वेच्छाचारी रहना चाहती है। और इस तरह से जज सही गलत कुछ भी करंे, वह अपना विशेषाधिकार मानती है। बेहतर होता कि सर्वोच्च न्यायालय स्वतः आगे बढ़कर ‘‘न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ के गठन का स्वागत करता ।

असलियत यह है कि न्यायपालिका अपनें को सबसे ऊपर मानती है, इसलिये उसनें भरसक प्रयास किया कि सूचना का अधिकार उस पर लागू न हो। सुप्रीम कोर्ट नें ही अपनें एक फैंसले में सूचना के अधिकार को भोथरा कर दिया, जिसके तहत किसी भ्रष्टाचार या घोटाले से सम्बंधित जानकारी को निजी बता दिया गया। यद्यपि लोकहित की शर्त रखी गई पर इस फैंसले की आड़ में कई भ्रष्ट एवं घोटालेबाज अधिकारियों को संरक्षण मिल रहा है, क्योंकि अब उनके घोटालों की जानकारी देना सूचना आयोग के विवेक का विषय हो गया। सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशान्त भूषण सर्वोच्च न्यायालय के कई चीफ जस्टिसों को भ्रष्ट बता चुके हैं। एक पूर्व चीफ जस्टिस जी बालकृष्णन जो वर्तमान् में मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष हैं, उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार और भाई – भतीजा वाद के प्रमाणित आरोप हैं। उक्त न्यायालयों केें कई जजों के कई गंभीर कारनामें सामनें आ चुके हैं। अभी कुछ महीनें पहले म0प्र0 हाई कोर्ट के प्रशासकीय जज पर एक महिला ए.डी.जे. को तरह-तरह से परेशान करनें का मामला आया था, जिसकी सर्वोच्च न्यायालय जांच भी करवा रहा है। इसके अलावा भी कई जज भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं, पर जैसा कि प्रधानमंत्री नें कहा कि अवमानना के डर से कोई उनके विरूद्ध बोलनें की हिम्मत नहीं करता। निचली न्यायपालिका की हालात तो बहुत ही खराब है। 60 के दशक में सन्तानम कमेंटी नें छोटी अदालतों को भ्रष्टाचार के अड्डे बताया था।निचली अदालतों के कई जज पूरी तरह स्वेच्छाचारी होते हैं, और दोहरे मापदण्ड से उनकी कार्य पद्धति, आदेश एवं फैंसले भरपूर होते हैं।

यहां तक कि कई जजों की सफेदपोशों से सांठ- गांठ रहती है। पुलिस से तो इनके बहुत ही लयात्मक सम्बंध होते है। विश्वस्त सूत्रों का कहना है कि इन जजों को कई सुविधायें पुलिस द्वारा उपलब्ध कराई जाती है। जिसका नतीजा यह होता है कि पुलिस द्वारा प्रस्तुत चार्जशीट में निचली अदालतों के जज न्यायिक मस्तिस्क की प्रयोग न कर उनके पोस्ट आफिस की भूमिका अदा करते हैं। इसी तरह से जब प्राइवेट परिवादों में पुलिस को जांच दी जाती है, चाहे वह कितनीं गंभीर हो, तो उस पर वह लीपा -पोती और लेट- लतीफी करते हैं और आम तौर से निचली न्यायालयों के मजिस्ट्रेट उनके विरूद्ध कोई ऐक्शन नहीं लेते। इसका परिणाम यह होता है कि न्याय ब्यवस्था आम आदमियों के लिये न होकर खास के लिये हो जाती है। तभी तो प्रधानमंत्री नें जोर देकर कहा कि न्याय ब्यवस्था आम आदमीं के लिये होनीं चाहिये। कहनें को तो निचली अदालतों के पीठासीन अधिकारियों के विरूद्ध उच्च न्यायालय शिकायत प्रमाणित होनें पर कार्यवाही कर सकते हैं। परन्तु यह प्रणाली प्रभावी नहीं है। क्योंकि अवमानना के औजार और वकीलों को अपना कैरियर चैपट होनें के डर से इनके विरूद्ध शिकायते ही बहुत कम की जाती हैं। और यदि की भी जाती हैं, तो उनमें भी वर्गीय हितों के चलते कार्यवाही की बहुत संभावना नहीं रहती । आये दिन यह भी देखनें को मिलता है कि सर्वोच्च न्यायालय को छोंड़कर, निचली अदालतों में सेशन जज और अतिरिक्त सेशन जज ही नहीं बल्कि उच्च न्यायालयों के जज भी कई अनावश्यक मामलों में स्टे प्रदान कर देते हैं। प्रकरण में कोई आधार न होते हुये सुनवाई को स्वीेकार कर लेते है। जैसा कि प्रधानमंत्री नें सम्मेंलन में बताया कि बिजली के खम्भे को लेकर स्टे दिये जानें के चलते न्यायालय में बिजली ही नहीं थी। इससे एक ओर तो अदालतों पर काम का आवश्यक बोझ पड़ता है तो दूसरी तरफ न्याय निहायत ही बिलम्बित हो जाता है । न्यायपालिका के स्वेच्छाचारिता की स्थिति है कि स्पष्ट कानून होते हुये भी कि जजों की उच्चाधिकारियों की शिकायत पर अवमानना का प्रकरण नहीं चलाया जा सकता। फिर भी ऐसे उदाहरण हैं कि ऐसे प्रकरणों में अवमानना रेफर की गई और उच्च न्यायालय नें उसे सुनवाई के लिये स्वीकार कर लिया।

ऐसी स्थिति में न्यायपालिका में सचमुच गुणात्मक सुधार की जरूरत है। सबसे बड़ी बात यह कि जवाबदेही एवं कानून का शासन न्यायपालिका पर पूरी तरह लागू हो । निश्चित रूप से इसके लिये ‘‘ न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ को जहां शीघ्र कार्य रूप में लानें की आवश्यकता है। वहीं इस बात की नितांत आवश्यकता है कि निचली अदालतों के जजों की शिकायतें निपटानें के लिये कोई निष्पक्ष और प्रभावी संस्था बनाई जाये। पर इन सबके अलावा इस बात की भी नितांत आवश्यकता है कि अवमानना अधिनियम में इस तरह का सुधार किया जाये कि स्वेच्छाचारी और भ्रष्टाचार में लिप्त न्यायाधीश उसका उपयोग ढ़ाल और हथियार बतौर न कर सके। कुल मिलाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोंदी नें उक्त सम्मेंलन में जो कुछ कहा उसे जन-मन की अभिब्यक्ति ही कहा जा सकता है और इस दिशा में बड़े और सख्त कदम उठानें की जरूरत है।

वीरेन्द्र सिंह परिहार

 

 

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  1. नियंत्रण और संतुलन के लिए न्यायपालिका पर न्यायाधीशों द्वारा शासित नियंत्रण आवश्क है. (म.प्र। )के एक सेवा निवृत्त। न्यायिक अधिकारी ने एक अख़बार में न्याय व्यवस्था शिथिल और बेअसर ओने पर दो बातें उललखित की थीं ,(१)नयाधीशों की प्रवेश परीक्षा में आरक्षित वर्गों को सफलता के लिए प्रतिशत तय किया जाय. (२) उन्होंने एक न्यायाधीश का उल्लेख बिना नाम बताये किया की वे अंतिम फैसला दो विपरीत प्रकार का तैयार रखते थे। और सुविधा नुसार उसे सुनाते थे। और ऐसी पैनी नज़र और व्यवस्था होनी चाहिए ,जो ऐसे फैसलों की अपने आप मॉनिटर्रिंग करेऽउर यह व्यस्था न्याय प्रशासन ही करे. (३ )देर से न्याय, न्याय नहीं होता . इसलिए एक ऐसी व्यवस्था हो जो प्रतिसप्ताह प्रकरणो पर अवधि रेखांकित करे अब तो कम्प्यूटर पर ऐसा सॉफ्टवेयर लगाया जा सकता है. न्याय व्यवस्था को नियंत्रित ,न्यायाधीश ही करें यही सर्वोत्तम होगा.

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