भारत की राष्ट्रीयता के विरुद्ध मजहबी संस्थाओं का छद्म युद्ध

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मनोज ज्वाला

भारत की राष्ट्रीयता अर्थात सनातन धर्म व भारतीय संस्कृति पर बहुविध अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों के बादल मंडरा रहे हैं। इस षड्यंत्र में वैसे तो अमेरिका की कई मजहबी संस्थायें शामिल हैं, किन्तु दलित फ्रीडम नेटवर्क और फ्रीडम हाउस दो ऐसी संस्थायें हैं, जो अमेरिकी शासन में भी इतनी गहरी पैठ रखती हैं कि उसकी भारत-विषयक वैदेशिक नीतियों को भी प्रभावित किया करती हैं। दलित फ्रीडम नेटवर्क (डी.एफ.एन.) का मुख्यालय संयुक्त राज्य अमेरिका के कॉलोराडो शहर में है। यह संस्था ‘दलित-मुक्ति’ के नाम पर सनातन धर्म का दानवीकरण करने में जुटी हुई है। वैदिक देवी-देवताओं से लेकर तत्सम्बन्धी पर्व-त्योहारों, ग्रंथों-शास्त्रों व रीति-रिवाजों तक सबको विकृत रूप में विश्लेषित-प्रचारित कर सनातन धर्म का छिद्रान्वेषण करने और कतिपय हिन्दू-जातियों को दलित घोषित कर उन्हें गैर-दलित हिन्दुओं के विरूद्ध सशस्त्र गृह-युद्ध के लिए भड़काते रहना डी.एफ.एन. की प्राथमिकताओं में शामिल है। इस निमित्त यह संस्था विभिन्न शिक्षाविदों व लेखकों से तत्सम्बन्धी उत्पीड़न-साहित्य लिखवाकर उन्हें प्रायोजित-प्रोत्साहित व पुरस्कृत करती है, तो विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाओं (एन.जी.ओ.) से सुनियोजित सर्वेक्षण कराकर उन्हें वैश्विक मंचों पर उछालती है। साथ ही अमेरिकी सरकार के विभिन्न आयोगों व नीति-निर्धारक निकायों के समक्ष भाड़े के भारतीय बौद्धिक-बहादुरों द्वारा सनातन धर्म की तथाकथित असहिष्णुता से दलितों के पीड़ित-प्रताड़ित होने तथा उस पीड़ा-प्रताड़ना से उबरने के लिए ‘ईसा मसीह’ को पुकारने की गवाहियां दिलवाती है। डी.एफ.एन. की इस पैंतरेबाजी से अमेरिकी सरकार की विदेश-नीतियां भी प्रभावित होती रही हैं। मालूम हो कि सन 2005 में वैश्विक मानवाधिकार पर गठित संयुक्त राज्य अमेरिका के एक सरकारी आयोग ने डी.एफ.एन. द्वारा ‘वर्ण-व्यवस्था के शिकार 20 करोड़ लोगों के लिए समता व न्याय’ शीर्षक से प्रेषित प्रतिवेदन के आधार पर यह घोषित कर दिया था कि भारत में हिन्दुओं द्वारा धर्मान्तरित दलितों एवं ईसाई मिशनरियों को हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है, जिन्हें सजा भी नहीं दी जाती। डी.एफ.एन. ने कांचा इलाइया नामक एक तमिल भारतीय से ‘ह्वाई आई एम नॉट हिन्दू’ (मैं हिन्दू क्यों नहीं हूं) नामक पुस्तक लिखवाकर उसे इस बाबत पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप प्रदान किया हुआ है, तो जॉन दयाल, कुमार स्वामी व स्मिता नुरुला नामक भारतीय ईसाइयों से सन 2007 में अमेरिकी ‘कांग्रेसनल ह्युमन राइट्स कॉकस’ के समक्ष इस झूठे तथ्य की गवाहियां दिलवाई हैं कि सनातन धर्म अतिवादी है और उसकी अतिवादिता ही सभी प्रकार की धार्मिक हिंसा के लिए जिम्मेवार है। ‘क्रिश्चियन टुडे’ पत्रिका के अनुसार डी.एफ.एन. के द्वारा कांचा से अमेरिकी कांग्रेस की एक सभा में यह तथाकथित साक्ष्य भी दिलवाया गया है कि सनातन (हिन्दू) धर्म एक प्रकार का ‘आध्यात्मिक फासीवाद’ है। दलित फ्रीडम नेटवर्क के पैसे पर पल रहे कांचा ने एक और किताब लिखी है- ‘पोस्ट हिन्दू इण्डिया’। इसमें उसने दलितों को हिन्दू-देवी-देवताओं के शस्त्र-धारण का प्रायोजित अर्थ (दलित-विरोधी) समझाते हुए गैर-दलित हिन्दुओं के विरूद्ध सशस्त्र युद्ध के लिए प्रेरित किया है। डी.एफ.एन. की पहल पर कांचा इलाइया की ये दोनों पुस्तकें विभिन्न अमेरिकी विश्वविद्यालयों में हिन्दू धर्म-विषयक पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं। यह डी.एफ.एन. क्रिश्चियन सॉलिडरिटी वर्ल्ड वाइड तथा गॉस्पेल फॉर एशिया और एशियन स्टडीज सेन्टर नामक संस्थाओं के साथ गठजोड़ कर ऑल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल के माध्यम से भारत में दलितों को गैर-दलित हिन्दुओं के विरूद्ध भड़काने और उनके धर्मान्तरण का औचित्य सिद्ध करने की बाबत पश्चिमी देशों में सनातन धर्म के विरूद्ध घृणा फैलाने हेतु भिन्न-भिन्न परियोजनाओं को क्रियान्वित करते रहता है। ‘सेन्टर फॉर रिलीजियस फ्रीडम’ नामक संस्था भारत में पश्चिमी रुझान के तथाकथित बुद्धिजीवियों, खासकर दलितों को धार्मिक स्वतंत्रता का अनर्थकारी अर्थ समझाता है कि पुराने धर्म अर्थात सनातन (हिन्दू) धर्म को आत्मसात किए रहना बंधन है और इससे विलग हो जाना ही स्वतंत्रता है, जबकि ईसाइयत को अपनाना तो सीधे मुक्ति ही है। धर्म-अध्यात्म के ककहरा-मात्रा की भी समझ नहीं रखने वाली ये मजहबी संस्थायें दुनिया के आध्यात्मिक गुरु कहे जाने वाले भारत के लोगों को धार्मिकता-आध्यात्मिकता सिखा रही हैं, तो इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है। लेकिन ‘फ्रीडम हाऊस’ और इससे जुड़ी संस्थायें धार्मिक स्वतंत्रता की अपनी इसी अवधारणा पर भारतीय कानूनों की समीक्षा भी करती हैं और तदनुकूल कानून बनवाने के लिए भारत सरकार पर दबाव बनाती हैं। इसके लिए ये मजहबी संस्थायें तरह-तरह के मुद्दों का निर्माण करती हैं और छद्म-युद्ध के समान तत्सम्बन्धी आन्दोलन प्रायोजित करती-कराती हैं।फ्रीडम हाऊस ने कुछ वर्षों पहले ‘हिन्दू एक्सट्रीमिज्म’ अर्थात ‘हिन्दू उग्रवाद’ नाम से बेसिर-पैर का एक मुद्दा उठाया था और इस तथाकथित कपोल-कल्पित प्रायोजित-सुनियोजित मुद्दे को मीडिया के माध्यम से प्रचारित करते हुए इस पर बहस-विमर्श आयोजन कर ‘द राइजिंग ऑफ हिन्दू एक्सट्रीमिज्म’ (हिन्दू उग्रवाद का उदय) नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उक्त रिपोर्ट में ‘रिलीजियस फ्रीडम’ की वकालत करने वाली इस संस्था ने जिन बातों पर जोर दिया है, वह वास्तव में हिन्दुओं के धर्मान्तरण में चर्च-मिशनरियों की बाधाओं पर उसकी चिन्ता की अभिव्यक्ति मात्र है। रिपोर्ट में धार्मिक स्वतंत्रता सम्बन्धी भारतीय कानूनों की गलत व्याख्या करते हुए भारत को ‘एक धार्मिक उत्पीड़क देश’ घोषितकर इसके विरूद्ध अमेरिकी हस्तक्षेप की आवश्यकता जताई गई है। हमारे देश के ‘धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम’ और तत्सम्बन्धी अन्य कानून धोखाधड़ी से अथवा बहला-फुसलाकर या जबरिया किये जाने वाले धर्मान्तरण को रोकते हैं, न कि स्वेच्छा से किये जा रहे धर्मान्तरण को। किन्तु, उस रिपोर्ट में इसकी व्याख्या इन शब्दों में की गई है- ‘भारतीय कानून के तहत किसी धर्म अथवा पंथ विशेष के आध्यात्मिक लाभ पर बल देना गिरफ्तारी का कारण हो सकता है। भारत में धर्मान्तरण-आधारित टकराव इस कारण है, क्योंकि ईसाइयत के माध्यम से दलितों की मुक्ति से अगड़ी जाति के हिन्दू घबराते हैं।’ जाहिर है, इस व्याख्या में ‘आध्यात्मिक लाभ’ और ‘मुक्ति’ शब्द की गलत व्याख्या की गई है। गॉस्पल फॉर एशिया (जी.एफ.ए.) नामक अमेरिकी संस्था यह भी प्रचारित करती रहती है कि भारत की खाद्य-समस्या के लिए सनातन (हिन्दू) धर्म जिम्मेवार है। इस संस्था के कर्ता-धर्ता के.पी. योहन्नान कहते हैं कि ‘हिन्दुओं के आध्यात्मिक अंधेपन के कारण पूजनीय बनी गायों और चुहियों से प्रतिवर्ष हजारों टन अनाज के नुकसान होने से खाद्यान-संकट गहराते जाता है।’ जी.एफ.ए. का अपना रेडियो-प्रसारण केन्द्र भी है जहां से वह 92 भारतीय भाषाओं में सनातन (हिन्दू) धर्म के विरूद्ध अनर्गल प्रलाप करते रहता है और लोगों को ‘मुक्ति का मार्ग’ बताता है। वह मूर्तिपूजा की भर्त्सना करते हुए ईसा मसीह को सच्चा ईश्वर और हिन्दू-देवी-देवताओं को ‘दैत्य-पापी’ बताता है। हिन्दू-पर्व-त्योहारों के विरूद्ध नकारात्मक दुष्प्रचार के लिए ‘फेस्टिवल आउटरिच’ नाम से इसका एक विशेष कोषांग है, जो हमारे ‘कुम्भ आयोजनों’ को ‘उत्साहियों का हंगामा’ बताता है और उसके विरोध में प्रचार-पत्रक वितरित करता है। इसने वर्ष 2008 में मुम्बई में हुए जिहादी आतंकी हमले को हिन्दू अतिवादियों की करतूत बताते हुए दुनियाभर में यह प्रचारित किया कि ‘हिन्दू-संगठनों ने विदेशी पूंजी निवेश को भारत में आने से रोकने के लिए उसे अंजाम दिया, ताकि दलित लोग गरीबी में ही रहें और ईसाइयों पर हो रहे हिन्दू-हमलों की आवाज दब जाए।’ जाहिर है, इन मजहबी संस्थाओं का यह अनर्गल प्रलाप सनातन धर्म जो भारत की राष्ट्रीयता का पर्याय है, उसके विरुद्ध एक प्रकार का छद्म-युद्ध ही है।

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