कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास है, भारत की संप्रभुता की कसौटी : सुशील पंडित


वंचित, व्यथित और विस्थापित जब सूत्रबद्ध होकर एक कौम की शक्ल अख्तियार करते हैं तो कश्मीरी हिन्दुओं की बनावट आकार लेती है। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि अपने ही देश में विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर कश्मीरी हिन्दुओं की जमात, जिसकी संख्या लाखों में है, तीन दशकों से टेंट में जीने को अभिशप्त हैं। आज भी सवाल है कि आखिर क्या कभी यह कौम कश्मीर की सरजमीं पर फिर से आबाद हो पाएगी? क्या कश्मीर के हालात कभी सुधरेंगे। कुछ ऐसे ही ज्वलंत मुद्दों पर विस्थापित कश्मीर हिन्दुओं के लिए संघर्षरत संस्था रूट्स इन कश्मीर के सह-संस्थापक सुशील पंडित से वरिष्ठ पत्रकार प्रणय विक्रम सिंह की खास बातचीत के कुछ अंश…

सवाल : कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की कोशिशें सफ़ेद हाथीं साबित हो रही हैं,       किसे ज़िम्मेदार मानते हैं आप ?

जवाब : देखिये, कश्मीर में विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं के पुनर्वास के लिए कोई कोशिश हो ही नहीं रही हैं। गृह मंत्रालय में हमारे द्वारा डाली हुई एक आरटीआई कि, क्या आपके पास कोई नीति या प्रस्ताव है कश्मीरी पंडितों के कश्मीर में पुनर्स्थापन के संबंध में ? का जवाब हमें लिखित में मिलता है कि नहीं, ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है । अब समझा जा सकता है कि जब कोई नीति या प्रस्ताव ही नहीं है तो क्रियान्वयन किसका होगा? जबकि पूरा भारतवर्ष जानता है कि कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास भारत की संप्रभुता की कसौटी है। दरअसल यह कथनी और करनी के मध्य का विरोधाभास है और ऐसे विरोधाभासी नज़रिए के कारण ही  आज कश्मीर के हालात उस वक्त से भी खराब हैं जब हम घाटी से निकाले गए थे।

प्रश्न – आप कहना चाहते हैं कि 1990 में आतंक के शोलों में जल रहे कश्मीर से भी बदतर हालात हैं आज 2019 में कश्मीर के ?

जवाब – बिलकुल हैं। मै कारण बताता हूँ आपको। जब हम वहां से विस्थापित हुए थे तब दूर-दूर तक पुलिस, फौज आदि दिखाई नहीं पड़ती थी जो हमें सुरक्षा प्रदान करे। पंडितों के पलायन के बाद जब शांति बहाली के लिए सेना लगायी गयी तो आलम यह था कि अगर भारतीय फौज मात्र कदमताल करती हुई सड़क से गुजर जाती थी तो खिड़की-दरवाजे बंद हो जाते थे। उपद्रवी, आतंकी छुप जाते थे और फौरी तौर पर ही सही शांति स्थापित हो जाती थी। लेकिन आज 2019 में सेना लाइव इनकाउंटर कर रही होती है, आग्नेयास्त्रों का प्रयोग हो रहा होता है, उस समय भी मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से ऐलान करके लोग इकट्ठे किये जाते हैं, और वो सेना पर पत्थर मारते हैं। ध्यातव्य हो कि हमारे पास स्व अथवा राष्ट्र रक्षार्थ हेतु अंतिम विकल्प है सेना। और विडंबना देखिये कि उस सेना के हथियारबंद जवान पर गाली-गलौज, लात, घूँसा, थूक,पत्थर सब चलता है घाटी में। अगर उसका यह हाल है तो हमारा क्या होगा ? यह हालात 1990 में नहीं थे ।

सवाल – ऐसे विषमतापूर्ण और अपमानजनक हालातों का ज़िम्मेदार कौन है ?

जवाब – सिर्फ हमारी राजनीतिक व्यवस्था। भारतवर्ष में हुकूमतें बदलती रहीं, विचारधारा के अनुसार भाषणों में कश्मीर के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न भाव व्यक्त होते रहे किन्तु सत्ता में आते ही सभी राजनीतिक दलों की कश्मीर के सम्बन्ध में एक ही दृष्टि हो जाती है कि कश्मीर में अलगाववाद का कारण नौजवानों की नाराजगी है। हमें इन पत्थरबाजों का दिल जीतना है। जो सुरक्षाबलों को गाली दे रहे हैं, उन्हें जख्मी कर रहे हैं अपने पत्थरों से, वो भटके हुए नौजवान हैं। इसी विचार ने जख्म को नासूर बना दिया और अब तो कैंसर बन गया है। दरअसल सियासत यह नहीं देखना चाहती है कि कश्मीर में हथियारबंद जेहाद चल रहा है जो न सिर्फ कश्मीर को भारत से अलग करना चाहता है वरन पूरे भारत को खण्ड-खण्ड में देखना चाहता है। ये युद्ध का एक प्रकार है, जो प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष रूप से लड़ा जा रहा है, जिसके पीछे पाकिस्तान खड़ा है। भारत ने पाकिस्तान के साथ हुए चारों युद्धों में भी उतने जवान नहीं खोएं जितने इस परोक्ष युद्ध में। लेकिन हमारी राजनीतिक व्यवस्था इसे युद्ध ही मानने को तैयार नहीं है, बल्कि वो इसे नौजवानों का भटकाव कहती है। विकास की भूख कहती है। हद तो तब हो गयी जब हमारे गृहमंत्री गणतंत्र दिवस के ०२ दिन पूर्व बयान देते हुए कहते हैं कि पिछले साढ़े चार साल में कश्मीर में एक भी आतंकी हमला ही नहीं हुआ। ये सुविधा की राजनीति है बस।

सवाल – आखिर कश्मीर में भारत विरोध का प्रचंड वातावरण बना क्यों ?

 जवाब – बिलकुल नहीं, कश्मीर में भारत विरोध का वातावरण नहीं है। कश्मीर का नौजवान पुलिस, सेना, अर्धसैनिक बल, केंदीय सुरक्षाबल आदि सभी स्थानों पर अपनी सेवाएँ दे रहा है। देश की सेवा के लिए अपना पसीना और लहू बहा रहा है। सेना का शहीद होने वाला जवान औरंगजेब, कश्मीरी था। मस्जिद के दालान में जिस उप पुलिस अधीक्षक मोहम्मद अयूब पंडित की अलगाववादियों ने पीट-पीट कर हत्या कर दी थी वह उसी मोहल्ले का रहने वाला कश्मीरी था। शहीद नजीर वानी, जिन्हें  गणतंत्र दिवस के पुनीत अवसर पर शांति का सर्वोच्च पुरस्कार अशोक  चक्र प्रदान किया गया। वह देश के लिए शहीद हुए थे। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं। लिहाज़ा आपको अलगाववादियों और पत्थरबाजों को कश्मीरी जनमानस के प्रतिनिधित्वकर्ता के रूप में देखने की गलती नहीं करनी चाहिए। 

सवाल: कश्मीर, प्राचीन काल से भारत का अभिन्न हिस्सा रहा है, इस बात को अनेक कश्मीरी विचारक खारिज करते हैं। आप इस पर क्या कहेंगे?

जवाब: अलगाववादी नजरिये वाले विचारकों की तो यही कोशिश रही है लेकिन इतिहास को झुठलाया नहीं जा सकता है। कश्मीर सिर्फ भूमि का टुकड़ा नहीं, यह हमारी सांस्कृतिक थाती है। हजारों साल पुरानी नीलपंत पुराण में कश्मीर का जिक्र है। इस पुराण में ऋषि वैषम्पायन और राजा जन्मेजय के बीच सम्वाद में कश्मीर पर चर्चा है। महाभारत में कश्मीर के राजा के शामिल नहीं होने का उल्लेख है। राजा दामोदर की पत्नी यशोमति सम्भवत: दुनिया की पहली महिला रानी थी जिसने कश्मीर की गद्दी संभाली थी। सप्तर्षि पंचांग दुनिया का सबसे पुराना पंचांग है जिसका सृजन कश्मीर में हुआ। ध्यातव्य है कि साल 1450 तक कश्मीर की भाषा संस्कृत थी। बाद में फारसी को राजभाषा बनाया गया। देश का सबसे भव्य सूर्य मन्दिर अनंतनाग जिले में 8वीं सदी में निर्मित मार्तंड मन्दिर था जिसे ध्वस्त किया गया। साल 1339 में शाह मीर ने आश्रय देने वाले राजा उदयन देव को हटा कश्मीर पर कब्जा किया था। सम्राट अशोक ने श्रीनगर शहर की स्थापना करवाई थी। यही नहीं प्राचीन इतिहास का सबसे बड़ा साम्राज्य ललितादित्य का था। वर्ष 719 से 750 के बीच कश्मीर में राजधानी रखने वाले ललितादित्य का साम्राज्य पूर्व में असम, उत्तर-पश्चिम में कैस्पियन सागर और दक्षिण में कावेरी तक फैला हुआ था। यह सम्राट अशोक और अकबर के साम्राज्य से भी बड़ा था। उसी वक्त इस्लाम का तेजी से फैलाव शुरू हुआ था। अब अलगाववादियों को कहां रास आएंगी यह बातें, लिहाजा सप्रयास हमारे इतिहास को झुठलाने की कोशिश की जा रही है, जोकि दु:खद है।

सवाल: अक्सर शेख अब्दुल्ला को कठघरे में खड़ा किया जाता है, जबकि 1947 में शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम बाहुल्य जम्मू-कश्मीर के विलय को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच भारत को चुना था, ऐसा क्यों?

जवाब: 1947 में मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर के विलय को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच भारत को चुनना शेख अब्दुल्ला की मजबूरी थी। मजबूरी के दो कारण थे। पहला, वह पंजाबी-मुसलमानों की धौंस और कश्मीरी मुसलमानों की लाहौर तथा रावलपिंडी में होती दुर्गति तथा अपमान से परिचित थे। उन्हें चिंता थी कि ये कुछ लाख कश्मीरी पाकिस्तान में करोड़ों पंजाबियों की भेंट चढ़ जाएंगे। दूसरा, जब जिन्ना कश्मीर आये तो शेख ने अपनी इसी चिंता के चलते विलय की कुछ शर्तें सुझाईं। जिन्ना खुद को मुसलमानों का एकमात्र नेता मानते थे। इस अहंकार में उन्होंने शेख की एक नहीं मानी और कहा कि जो होगा विलय के बाद देखा जाएगा। महत्वाकांक्षी शेख को लगा कि पहले पाकिस्तान से पिण्ड छुड़ाया जाए। नेहरू के कश्मीरी मूल के कारण शेख की उनसे आत्मीयता भी थी। नेहरू के उदारवादी रवैये ने भी कुछ भरोसा जगाया होगा। शेख ने पाकिस्तानी आक्रमण के चलते भारत में विलय को मान तो लिया, लेकिन मन में कुछ और भी था। अनुच्छेद-370 पर शेख के आग्रह से अलगाव के बीज फूटे। नेहरू मान गए। फिर कश्मीर की स्वायत्तता को लेकर आग्रह बढ़ा और शेख ने अपना अलग संविधान और अपना अलग ध्वज मांगा। नेहरू ने वह भी दिया। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के मुख्यमंत्री नहीं प्रधानमंत्री कहलाएंगे, नेहरू ने इसकी भी स्वीकृति दी। किसी भी भारतीय नागरिक को कश्मीर आने के लिए परमिट लेना होगा, नेहरू ने यह भी स्वीकार कर लिया। इतने सबके बावजूद जब नेहरू को जानकारी मिली कि शेख अमेरिका और ब्रिटेन के राजनयिकों के साथ गुप्त मंत्रणाएं कर रहे हैं और जल्दी ही एक बड़ी घोषणा करने वाले हैं तो नेहरू को उन्हें बर्खास्त करना पड़ा। शेख का भारत विरोध तब तक चलता रहा जब तक भारत ने वर्ष 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की कमर तोड़ कर दो टुकड़े नहीं कर दिए। तब जाकर शेख अब्दुल्ला बाज आए और साल 1974 में इंदिरा गांधी के साथ समझौता किया, कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग माना और मुख्यमंत्री बनाए गए। लेकिन आज भी जब तब परिवार में किसी को अवसर दिखाई पड़ता है तो उनकी भारत-विरोधी रग फड़कने लगती है और राग होता है स्वायत्तता।

सवाल: 1990 के कश्मीरी हिन्दुओं के पलायन के लिए सीधे किसे जिम्मेदार मानते हैं? 

जवाब: 1990 के कश्मीरी हिन्दू पलायन की सीधी जिम्मेदारी तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की ही है। साल 1989 के जून और सितम्बर महीनों के बीच 70 से अधिक कैदी-आतंकियों को रिहा कर उन्होंने घाटी में मार-काट के लिए छोड़ दिया था। जब पानी सिर के ऊपर चला आया तब फारुक त्यागपत्र देकर लंदन चले गए। 1971 में लंदन में जब जेकेएलएफ का गठन हुआ था तो उसकी संस्थापक टोली के साथ फारूक का चित्र आज भी उपलब्ध है। कश्मीर को एक परिवार के इस एकाधिकार से मुक्त कराने के लिए ही वाजपेयी सरकार के प्रोत्साहन पर मुफ्ती मुहम्मद सईद ने पीडीपी का गठन किया। यह वही मुफ्ती थे, जिनकी अगुआई में 1986 में भारत का पहला साम्प्रदायिक दंगा कश्मीर ने देखा था। मुफ्ती की राजनीति जमात-ए-इस्लामी के कार्यकर्ताओं के बल पर चलती थी। लाजमी था कि वह हुर्रियत के एजेंडे को ही आगे करते। साल 2002 के चुनावों में पहली बार अब्दुल्ला परिवार को हार का मुंह देखना पड़ा।

सवाल: अनुच्छेद 35-ए के संदर्भ में आपकी क्या राय है। और 35-ए की बावत कश्मीरी सिसायी जमात में उठी बेचैनी को आप कैसे देखते हैं?

जवाब: अनुच्छेद 35-ए, जिसे प्रथम राष्ट्रपति ने कार्यकारी आदेश के जरिये संविधान में शामिल कर लिया था। इसके लिए संसद या दूसरे राज्यों के विधानसभाओं की अनुमति लेना जरूरी नहीं समझा गया। यही अनुच्छेद है जो जम्मू-कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों से अलग करता है। इसी के कारण पलायन कर इस राज्य में आये लोगों को नागरिकता के साथ-साथ विधानसभा चुनाव में वोट देने का अधिकार नहीं मिला। अनुच्छेद 35-ए की वजह से जम्मू-कश्मीर में दशकों पहले बसे लाखों लोगों की चौथी-पांचवीं पीढिय़ां भी शरणार्थी ही कहलाती हैं और वे तमाम मौलिक अधिकारों तक से वंचित हैं। असंवैधानिक अनुच्छेद 35-ए छह दशक के बाद भी जम्मू कश्मीर की बेटियों, सफाई कर्मचारियों और रिफ्यूजी हिन्दुओं के साथ आज तक भी अन्याय करता आ रहा है। इसी अनुच्छेद ने जम्मू कश्मीर की विधानसभा को शक्ति दी है कि वहां का मूल निवासी कौन होगा और पीआरसी किसे दिया जाएगा किसे नहीं, यह तय करता है।

जब इस असंवैधानिक अनुच्छेद 35-ए पर सुप्रीमकोर्ट में सुनवाई शुरू हुई तो उनके बीच में रोड़ा अटकाने का काम जम्मू-कश्मीर के पक्ष और विपक्ष के नेताओं ने शुरू कर दिया। 28 जुलाई, 2017 को नई दिल्ली की एक संगोष्ठी में जम्मू कश्मीर की तात्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने चेतावनी भरे लहजे में कहा था, ‘अगर संविधान के अनुच्छेद 370 और 35-ए से छेड़छाड़ की गई तो कश्मीर में तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा।  महबूबा 35-ए को लेकर इतना बेचैन दिखी कि इस मामले में उन्होंने फारूख अब्दुल्ला से भी मुलाकात कर डाली।

 सवाल: आपके अनुसार कश्मीरी अलगाववाद का समाधान क्या है?

जवाब: सबसे पहले हमें समझना होगा कि ज़मीन पर जिससे हमारी जंग हो रही है वो कौन है? हमें मानना होगा कि कश्मीर में भारत का सामना उसी जिहाद से है जो लोकतंत्र नहीं निजाम-ए-मुस्तफा मांगता है और सेक्युलरिज्म नहीं इस्लाम को सर्वोपरि मानता है। वह भारतीय राष्ट्रवाद नहीं इस्लामी उम्मा का हामी है, अहिंसक सत्याग्रह नहीं, बल्कि क्लाश्निकोव और बारूद की ताकत आजमाता है। वह कश्मीर तक ही सीमित रहने वाला नहीं है। इसके पहले कि भारत में जगह-जगह कश्मीर खड़े हों, यह सोचना होगा कि जिहाद से क्या बात करेंगे और उसका क्या ‘राजनीतिक हल  तलाशेंगे? मेरे अनुसार अलगाव की प्रवृति का पोषण करने वाली प्रकृति का दमन अविलम्ब करना ही श्रेष्ठकर होता है। हमारी सरकार को भी यह बात समझनी चाहिए।

एक बात और, हम अपनी जड़ों से बिछड कर बे-वजूद हो रहे हैं,हमारी युवा होती पीढ़ी अपनी संस्कृति से दूर हो रही है। कश्मीरी पंडितों का अपने वजूद को कायम रखने के लिए कश्मीर में पुनर्वासित होना आवश्यक है लेकिन यदि हमारा सफल पुनर्वासन नहीं जल्द संभव नहीं हुआ तो यह भारतीय गणराज्य की संप्रभुता की बड़ी पराजय होगी। कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास, भारत की संप्रभुता की कसौटी है।

2 COMMENTS

  1. अवसर आ रहा है। अमित शाह जी का परिसीमन का प्रवर्तन कश्मिर का हल निकालने में सफल होगा। अब पाकिस्तान ही जब कंगाल हो चुका है। तो कश्मिरी अलगाववादियों को कौनसा लाभ दिखाई देता है? पता नहीं। क्या कश्मिरी अलगाववादियों के पास कोई मौलिक विचारक नहीं है?

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