बाढ़ के खतरे और चुनौतियां

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डॉ0 आशीषवशिष्ठ

तेजी से बढ़ती आबादी, मौसम चक्र में गड़बड़ी और फेरबदल, प्रदूषित पर्यावरण, अनियोजित और अनियंत्रित विकास के फलस्वरूप देष में बाढ़ का खतरा और चुनौतियां दिनों दिन गंभीर और विध्वंसक रूप धारण कर रही हैं। हर साल बाढ़ के कारण जान-माल का भारी नुकसान होता है। बावजूद इसके सरकारी मशीनरी घिसी-पिटी तकनीक और पंक्चर रणनीति के तहत बाढ़ की तबाही रोकने का दावा ठोकती है। बाढ़ प्रबंधन, राहत, मुआवजे और पुर्नवास के नाम पर हर साल करोड़ों रूपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं। रस्मी तौर पर हर बार बाढ़ की तबाही के बाद सरकार पुख्ता नीति और बचाव के लिए फूलप्रूफ योजनाएं बनाती है, और बरसात का मौसम आते ही सारी योजनाएं बाढ़ में तैरने लगती हैं। देष के कई राज्य प्रत्येक साल बाढ़ का कहर भोगने को मजबूर हैं। लेकिन पिछले एक दषक में बाढ़ का रूप जिस तरह बदल रहा है। यदि उस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में बाढ़ का विध्वंसक रूप देखने को मिलेगा। अब तक बाढ़ नियत्रंण के नाम पर जो कुछ किया गया उससे वांछित परिणाम नहीं मिले हैं।

इन दिनों बाढ़ ने उत्तर प्रदेश के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से में तबाही मचा रखी है। उत्तर प्रदेष के अलावा पंजाब, उत्तराखण्ड, बिहार, असम और राजस्थान के बाडमेर जिले में बाढ़ दस्तक दे चुकी है। नेपाल के जलग्रहण क्षेत्रों में हो रही वर्षा के कारण बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड राज्य की प्रमुख नदियों के खतरे के निशान को पार करने से निचले इलाकों में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। बिहार में गंगा, सोन, पुनपुन, बूढ़ी गंडक और कोसी नदी कई स्थानों पर लाल निशान से ऊपर बह रही है। बाढ़ का पानी सैंकड़ों गांवों को तहस-नहस कर चुका है, और भारी जान-माल का नुकसान हुआ है। गौरतलब है कि हर वर्ष जून से सितम्बर के महीने तक भारत अपनी कुल वार्षिक वर्षा का 75 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त करता है। इसलिए देश के कई हिस्सों में बाढ़ का कहर देखा जाना कोई असामान्य बात नहीं है। देश के लाखों हेक्टयेर भूमि-क्षेत्र इस से प्रभावित होते हैं। भारत सदा से ही बाढ़ों के लिए संवेदनशील रहा है और हर साल बंगाल की खाड़ी में 5 से 6 उष्णकटिबंधीय चक्रवात आते हैं। इसके कारण हस साल लाखों लोग अपने घरों से विस्थापित हो जाते हैं और फसलों तथा अन्य संपत्तियों को भारी नुक्सान होता है। राज्य सरकारे केंद्र से मदद और धनराषी की मांग से अधिक कुछ करती दिखाई नहीं देती हैं।

असल समस्या यह है कि हमारे यहां बाढ़ नियंत्रण के लिए बाबा आदम के जमाने की तकनीक और प्रौद्योगिकी का सहारा लिया जा रहा है। बाढ़ पर प्रभावी नियंत्रण के लिए अभी तक कई पुराने और पारंपरिक माडल और तकनीकों को आजमाया गया है। जैसे नदियों के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए तटबंधों का निर्माण और नियंत्रित दर से पानी की निकासी के लिए जलाशयों का निर्माण। लेकिन अनुभव ये दिखाता है कि बाढ़ नियंत्रण के लिए अपनाए जाने वाले इन ढांचागत उपायों के चलते देश के कई क्षेत्रों में वनों की अंधाधुंध कटाई के मामले प्रकाश में आये हैं। निर्माण तकनीक के क्षेत्र में हुई प्रगति से भी बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रमों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है क्योंकि इस से बड़े पैमाने पर बाढ़ के मैदानों में भी निर्माण गतिविधियाँ शुरू हो गई हैं। वर्तमान समय में आर्थिक कारक अधिक महत्वपूर्ण हो गए और बाढ़ के मैदानों पर निर्माण गतिविधियों का समर्थन करने वाले लोगों ने इसके कारण पर्यावरण पर होने वाले विनाशकारी प्रभाव की ओर आंखें मूंद रखी हैं। सच्चाई यह है कि भारत में 1954 से चल रहे राष्ट्रीय बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम के बावजूद अभी तक एक कारगर बाढ़ नियंत्रण प्रणाली विकसित नहीं की जा सकी है।

जल पुरूष के नाम से मषहूर मैगसेसे पुरस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह के अनुसार ‘चूंकि बाढ़ और सूखा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इसलिए इन दोनों के समाधान जल का सामुदायिक जल प्रबंधन ताल-पाल और झाल से ही संभव है।’ राजेंद्र की मांग है कि सरकार को चाहिए कि अंधाधुंध बंधे बनाने की वर्तमान नीति पर पुनर्विचार करे। तीन विकल्पों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए। पहले विकल्प में नदियों के पर्यावरणीय प्रवाह को बरकरार रखा जाना चाहिए। दूसरा विकल्प ऊंचे और स्थायी बंधे बनाने की वर्तमान नीति का है। तीसरा विकल्प प्रकृतिप्रस्त बाढ़ के साथ जीने के लिए लोगों को सुविधा मुहैया कराने का है। इसमें फ्लड रूफिंग के लिए ऊंचे सुरक्षित स्थलों का निर्माण, सुरक्षित संचार एवं पीने के पानी की इत्यादि की व्यवस्था शामिल है, जिससे लोग बाढ़ के साथ जीवित रह सके। धरती के ऊपर बड़े बांधों से अति गतिशील बाढ़ का प्रकोप बढ़ने लगा है। इसे रोकने के लिए जल के अविरल प्रवाह को बनाए रखना होगा। इस काम से ही जल के सभी भंडारों को भरा रखा जा सकता है।

बंधे बनने से सामान्य वर्षों में जनता को सुकून मिलता है किन्तु बाढ़ ज्यादा आने पर पानी बंधे को तोड़ता हुआ एकाएक फैलता है। कभी-कभी इसका प्रकोप इतना भंयकर होता है कि यह चंद घंटों में ही 10-12 फुट बढ़ जाता है और जनजीवन एकाएक अस्त-व्यस्त हो जाता है। बंधे बनाने से सिल्ट फैलने के बजाय बंधों के बीच जमा हो जाती है। इससे बंधे के क्षेत्र का स्तर ऊंचा हो जाता है। इससे समतल इलाके में नदी का पाट बगल की भूमि से ऊंचा हो जाता है। जब बंधा टूटता है तो यह पानी वैसे ही तेजी से फैलता है जैसे मिट्टी का घड़ा टूटने पर। बंधों से पानी केनिकास के रास्ते अवरुद्ध हो जाते हैं। दो नदियों पर बनाए गए बांधों के बीच का 50 या 100 किलोमीटर क्षेत्र कटोरानुमा आकार धारण कर लेता है। बांध टूटने पर पानी इस कटोरे में भर जाता और इसका निकलना मुश्किल हो जाता है। इससे बाढ़ का प्रकोप शांत होने में काफी समय लग जाता है।

इन समस्याओं के चलते बंधे बनाने से परेशानियां बढ़ी हैं। जाहिर है कि बंधे बनाने की वर्तमान पद्धति कारगर नहीं है। सामुदायिक जल प्रबंधन नहीं होने के कारण पाल-ताल बनने बंद हो गए, जिससे अब हमें हर साल बाढ़ की विभीषिका को झेलना पड़ता है। कुछ पर्यावरणविदों का यह भी तर्क है कि बाढ़ को नियंत्रित रखने के लिए जलाशयों में पानी के स्तर को न्यूनतम रखा जाना चाहिए। लेकिन अक्सर यह देखा गया है कि हाइड्रो पावर उत्पन्न करने के लिए और अधिक से अधिक कृषि क्षेत्र को सिंचाई के अंतर्गत लाने के लिए जलाशय में पानी के स्तर को ऊँचा रखा जाता है और इस सेे नदी के ऊपर के क्षेत्रों में बाढ़ की समस्या उत्पन्न हो जाती का यह तर्क होता है बिजली का उत्पादन अधिकतम करने का प्रेषर होता है। कड़वी हकीकत यह है कि बड़े बांधों से अधिकतर बाढ़-सुरक्षा नहीं मिल पाती है, जिसका वायदा बड़े बांध परियोजनाओं को स्वीकृत करवाने के समय किया जाता है। सबसे खतरनाक स्थिति तो बांध टूटने के कारण पैदा हो सकती है। कई अध्ययन अनेक बांधों की सुरक्षा संबंधी स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। पिछले वर्ष टिहरी डैम में पानी का स्तर अपने अधिकतम स्तर पर पहुंच गया था, जिससे उत्तराखण्ड, यूपी और निकटवर्ती दूसरों राज्यों में भारी तबाही के बादल मंडराने लगे थे।

बदलते मौसम चक्र, पर्यावरणीय स्थितियों, ग्लोबल वार्मिंग और धरती पर बढ़ते आबादी के बोझ के बरअक्स अब समय की मांग है कि सरकार उन पारिस्थितिक उपायों पर गौर करे जो बाढ़ के प्रबंधन में टिकाऊ और दीर्धकालिक आधार पर मददगार साबित हो सकते हैं। बाढ़ के मैदानों के वनरोपण को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि पेड़ न केवल वर्ष के जल को अवशोषित करते हैं बल्कि उसके नदियों की तरफ होने वाले बहाव में भी अवरोध उत्पन्न करते हैं। बाढ़ के मैदानों पर निर्माण गतिविधियों को पूरी तरह बंद कर दिया जाना चाहिए। बाढ़ के मैदान बहुत उपजाऊ होते हैं और इसलिए उनका प्रयोग कृषि जैसी आर्थिक गतिविधि के लिए किया जाना चाहिए। बाढ़ के मैदानों में इन गतिविधियों के लिए रहने वाले लोगों के लिए एक कुशल चेतावनी प्रणाली का विकास किया जाना चाहिए जो किसी भी आपदा से पहले उनकी निकासी सुनिश्चित कर सके। बाढ़ की बढ़ती चुनौतियों व बाढ़ नियंत्रण के अब तक के उपायों की कमियों और सीमाओं के मद्देनजर बाढ़ नियंत्रण संबधी वैकल्पिक नीति बनाई जा सकती है। बाढ़ नियंत्रण के लिए भारत द्वारा अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में हासिल की गई उपलब्धियों का भी पूरा फायदा उठाया जाना चाहिए और रिमोट-सेंसिंग को भी वर्षा और बाढ़ की सटीक भविष्यवाणी देने के लिए इस्तेमाल में लाया जाना चाहिए। समय रहते सरकार को एक कुशल बाढ़ प्रबंधन प्रणाली विकसित करनी चाहिए ताकि हर साल होने वाली भारी जान-माल की क्षति को रोका जा सके।

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