पूंजीवाद की सफलता का रहस्य

हिन्दुस्तान में ऐसे लोगों की किल्लत नहीं हैं जिन्हें मार्क्सवाद का अंत नजर आता है और पूंजीवाद अमर नजर आता है। पहली बात यह कि पूंजीवाद के अंत के रूप में मार्क्सवाद को देखना ही गलत है। खासकर भूमंडलीकरण,नव्य उदार आर्थिक नीतियों के आगमन के बाद सारी दुनिया में जिस तरह के घटनाक्रम का विकास हुआ है उसने इस धारणा के प्रचार को और भी ज्यादा हवा दी है। इस प्रसंग में मार्क्सवाद और पूंजीवाद के अंतस्संबंध पर व्याप्त भ्रमों से एकदम मुक्त कर लेना चाहिए।

मार्क्सवाद का अर्थ पूंजीवाद का सर्वनाश नहीं है। अनेक साम्यवादियों में विकृत समझ रही है कि मार्क्सवाद का अर्थ है पूंजीवाद का सर्वनाश। इस प्रसंग में पहली चीज यह कि मार्क्सवाद की इसी समझ के कारण 1917 की सोवियत अक्टूबर क्रांति के गर्भ से पैदा हुए समाजवाद की उपलब्धियों को सुरक्षित रखने में कम्युनिस्ट पार्टियां सफल नहीं रहीं।

मार्क्सवाद का किसी भी देश में किताबी फार्मूलों और पार्टी के आदेश पर किया गया विकास पतन की ओर ले जा सकता है। विभिन्न समाजवादी देशों में पार्टी को सर्वोपरि मानना,यहां तक कि देश के संविधान में राष्ट्र से ऊपर मानना अपने आप में गलत है और इसका मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है।

साम्यवाद के सोवियत और चीन प्रयोग की असफलता का प्रधान कारण है समाजवाद में व्यक्ति और राष्ट्र की स्वतंत्र सत्ता को स्वायत्त रूप मे देखने की दृष्टि का अभाव। 60 साल के समाजवादी शासन के बाबजूद राष्ट्र और व्यक्ति की स्वतंत्र पहचान को सोवियत शासन समझ नहीं पाया। चीन अभी तक समझ नहीं पाया है।

मार्क्सवाद की यह विकृत समझ है कि पार्टी सर्वोपरि है। व्यक्ति के अधिकार,राष्ट्र के अधिकार,पार्टी के अधिकार और इससे भी आगे बढ़कर वे तमाम मानवाधिकार जिन्हें मनुष्यों ने सारी दुनिया में संघर्ष के जरिए अर्जित किया है। उनका संरक्षण करना मार्क्सवादी का फर्ज है।

मसलन समाजवादी देश यह समझने में असमर्थ रहे हैं कि एक समाजवादी देश में बहुदलीय प्रणाली कैसे चलाएं,समाजवाद को लेकर भी अनेक किस्म की समझ हो सकती है और उसके लिए किस तरह स्वतंत्र और भयरहित वातावरण बनाएं। समाजवाद में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी,शासन का दंड-जुल्म और उत्पीड़न का रूप पूंजीवादी देशों से भी खराब था। इसके कारण बड़े पैमाने पर समाजवादी कतारों ,मार्क्सवादी

चितकों में असंतोष और विरोध के स्वर उठे। समाजवादी राष्ट्र को पूंजीवादी राष्ट्र की तुलना में ज्यादा मानवीय होना चाहिए था लेकिन हुआ उलटा। जाहिर है समाजवाद के पराभव को कोई रोक नहीं सकता था।

मार्क्सवाद जिस तरह मानव सभ्यता की अब तक की समस्त उपलब्धियों का वारिस होने का दावा करता है। मानवीय उपलब्धियों को संरक्षित करने का दावा करता है,ठीक यही भाव उसका राजतंत्र के संबंध में विकसित नहीं हो पाया। मसलन् औद्योगिक पूंजीवाद की देन है औद्योगीकरण। इसे समाजवाद ने अपना लिया लेकिन इसके साथ बहुत सारे और भी मूल्य और तत्व जुड़े थे उन्हें छोड़ दिया। जैसे व्यक्ति की

स्वतंत्रता,अभिव्यक्ति की आजादी,बहुदलीय प्रणाली,बहुविचारधारात्मक समाज राष्ट्र और व्यक्ति के अधिकारों में भेद आदि।

मार्क्सवाद के पक्ष में बातें करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मार्क्सवाद का विकास पूंजीवाद के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा है। आधुनिककाल के पहले ,खासकर पूंजीवाद के आने के पहले मार्क्स-एंगेल्स के क्रांतिकारी विचारों का जन्म नहीं होता। जबकि उनके पहले सारी दुनिया में भौतिकवादी विचारों की सैंकड़ों सालों से परंपरा रही है। लेकिन समाजवाद की धारणा का जन्म नहीं हुआ था।

समाजवाद के विचारों का पूंजीवाद के उदय के साथ गहरा संबंध है। आधुनिककाल के पहले मजदूरवर्ग का जन्म नहीं हुआ था। पूंजीवाद के आगमन के साथ मजदूरवर्ग और पूंजीपतिवर्ग दो वर्गों का जन्म होता है। कहने का अर्थ है कि पूंजीवाद के साथ मार्क्सवाद अभिन्न रूप से जुड़ा है। जो लोग सोचते पूंजीवाद रहेगा और मार्क्सवाद चला गया वे अनैतिहासिक ढ़ंग से देख रहे हैं।

एक बड़ा परिवर्तन जरूर हुआ है वह यह कि सारी दुनिया में समाजवाद और मार्क्सवाद के प्रति जानकारी बढ़ी है। समझ गहरी हुई है। समाजवादी विचारों के प्रति आस्था बढ़ी है साथ ही समाजवाद को उसकी कमजोरियों या बुराईयों से अलग करके देखने की समझ भी गहरी हुई है। त्रुटिरहित या भूलरहित साम्यवाद की तरफ सारी दुनिया के मार्क्सवादी धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं। वे साम्यवादी समाजों के कटु अनुभवों को किसी भी कीमत पर भूलने को तैयार नहीं हैं। साम्यवाद की अनेक अक्षम्य भूलें हैं और ये मार्क्सवाद की गलत समझ से पैदा हुई हैं। साम्यवाद में अनेक गलतियां हुई हैं इसका अर्थ यह नहीं है कि साम्यवाद गलत था या मार्क्सवाद गलत था। इस प्रसंग में प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक फ्रेडरिक जेम्सन का कथन समीचीन प्रतीत होता है।

फ्रेडरिक जेम्सन ने लिखा है ,‘ मार्क्सवाद पूंजीवाद का विज्ञान है या यदि दोनों शब्दों को गहराई से समझने का प्रयास किया जाए तो मार्क्सवाद पूंजीवाद के अंतर्निष्ठ अंतर्विरोधों का विज्ञान है। एक ओर इसका अर्थ यह है कि एक ही समय में ‘मार्क्सवाद के अंत’ का उत्सव मनाना तथा पूंजीवाद और बाजार की जीत की घोषणा करना असंगत है। यदि हम इस बात को दरकिनार कर दें कि पूंजीवाद और बाजार की जीत कितनी ‘निश्चयात्मक’ हो सकती है तो पूंजीवाद वास्तव में मार्क्सवाद के सुरक्षित भविष्य की पूर्व सूचना देते हुए प्रतीत होगा। दूसरी ओर पूंजीवाद के ‘अंतर्विरोध’ कोई आकाररहित आंतरिक विलोपन नहीं है बल्कि ये अपेक्षाकृत विधिसम्मत तथा नियमित हैं और कम से कम ये तथ्यों के अनुसार सिध्दांतीकरण के अध्यधीन हैं। उदाहरण के लिए किसी भी दिए हुए क्षण में पूंजीवाद का जितने क्षेत्र पर नियंत्रण होता है, वह क्षेत्र अंतत: उन वस्तुओं से अतिसंतृप्त हो जाता है जिन वस्तुओं का तकनीकी रूप से उत्पादन करने में पूंजीवाद सक्षम है। तब यह संकट तंत्रगत बन जाता है।’

मानव सभ्यता के विकास में अब तक की सबसे बेहतर समाज व्यवस्था है पूंजीवाद । यह मानव सभ्यता का सबसे लचीला तंत्र है। आप इसे अपनी सुविधानुसार ढ़ाल सकते हैं। अपने अनुकूल बना सकते हैं। उसका यही लचीलापन उसके निरंतर विकास की गारंटी करता है। इसकी दो महान खूबियां हैं। पहली खूबी है तंत्रविस्तार। दूसरी खूबी है अहर्निश नयी-नयी वस्तुओं का उत्पादन और वितरण।उत्पादन के क्षेत्र में प्रतिदिन क्रांति।

तंत्र विस्तार के क्रम में पूंजीवाद का सारी दुनिया में कोई न कोई एक देश प्रधान केन्द्र रहा है। इस प्रसंग में फ्रेहरिक जेम्सन ने लिखा है, ‘पूंजीवाद का हमेशा कोई न कोई केंद्र रहा है। पहले यदि इंग्लैंड का वर्चस्व था तो हाल में अमरीका का आधिपत्य रहा है। प्रत्येक नया केंद्र पूर्व के केंद्र की तुलना में अधिक विस्तृत तथा समाविष्टकारी होता है और इस प्रकार यह नए बाजार, नए

उत्पादन और नई वस्तुओं के लिए बृहत्तर क्षेत्र खोलता रहा है। ऐतिहासिक आख्यान के कतिपय भिन्न संस्करण के अनुसार हम पूंजीवाद के राष्ट्रीय क्षण की बात कर सकते हैं, जो अठारहवीं सदी के औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न हुआ।

प्रथम क्षण वह है जिसका मार्क्स ने स्वयं अनुभव किया और तत्पश्चात जिसका उन्होंने यद्यपि भविष्यवाणी के रूप में ही सैध्दांतीकरण किया। इसके बाद उन्नीसवीं सदी के अंत में साम्राज्यवाद का क्षण आया, जिसमें राष्ट्रीय बाजारों की सीमाएं टूट गईं और एक प्रकार के विश्वव्यापी औपनिवेशिक तंत्र की स्थापना हुई। अंतत: द्वितीय विश्व युध्द के उपरांत और हमारे अपने समय में पुराने साम्राज्यवादी तंत्र का विघटन हो गया और इसका स्थान एक नए ‘विश्व तंत्र’ ने ले लिया, जिस पर तथाकथित बहुराष्ट्रीय निगमों का वर्चस्व था। ‘बहुराष्ट्रीय’ पूंजीवाद का यह वर्तमान क्षण (सोवियत संघ के विघटन के बाद) यूरोप, अमरीका तथा जापान के बीच असहज रूप से संतुलन बनाए हुए है। और इनमें से प्रत्येक के अपने ढेर सारे अनुचर पृष्ठ प्रदेश हैं। यह तीसरा क्षण, जिसकी उत्पत्ति के आक्षेपात्मक चरण शीतयुध्द की समाप्ति तक जाकर पूर्ण हुए, स्पष्टत: पूर्ववर्ती साम्राज्यवादी युग की तुलना में काफी अधिक ‘विश्वव्यापी’ है। भारत, ब्राजील तथा पूर्वी यूरोप के व्यापक क्षेत्रों में ‘डिरेगुलेशन’ से पूंजीवाद के आरंभिक चरणों की तुलना में आज पूंजी और बाजार के गुणात्मक रूप से अधिक प्रवेश की गुंजाइश है। तो क्या यह उसी की निश्चयात्मक उपलब्धि नहीं मानी जाए जिसकी मार्क्स ने विश्व

बाजार के रूप में भविष्यवाणी की थी? और इस प्रकार क्या यह पूंजीवाद का अंतिम चरण नहीं जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ श्रम शक्ति का विश्वव्यापी जिन्सीकरण (कोमोडिफिकेशन) शामिल है? इस पर अविश्वास किया जा सकता है। नए क्षण की आंतरिक वर्ग गति की (इनर क्लास डायनैमिक्स) को शायद ही अपने को तैयार करने का समय मिला हो; खासकर जिस पैमाने पर ‘वैश्वीकरण’ ने व्यवसाय की दुनिया को बदल दी है उसके अनुरूप श्रम संगठन और राजनीतिक संघर्ष के नए रूपों को उपयुक्त बनाने का।’

पूंजीवाद के आंतरिक बुनियादी अन्तर्विरोध के कारण श्रम और पूंजी के बीच में निरंतर टकराव बना रहता है। पूंजी और श्रम के अन्तर्विरोधों का शमन करने के लिए पूंजीवाद नित नई वस्तुओं का निर्माण करता है। उत्पादन में निरंतर क्रांति करता है। इस चक्कर में वह अपनी जड़ता तोड़ता है ,दूसरी ओर सामाजिक जड़ता को भी तोड़ता है। जीवनशैली,उपभोग और उत्पादन के पैटर्न को बदलता रहता है और यह काम वह सचेत रूप से करता है।

पूंजीवाद स्वभावतः जड़ता को पसंद नहीं करता। नई वस्तुओं का उत्पादन उसे नए समाज के निर्माण की ओर ठेलता है और इस क्रम में अप्रत्याशित सामाजिक परिवर्तनों का वाहक बन जाता है। मसलन कम्प्यूटर का निर्माण किया गया था अमेरिकी सैन्य उद्योग की सेवा के लिए । लेकिन कालांतर में सैन्य सेवा के साथ कम्प्यूटर आज सामाजिक सेवा का बहुत बड़ा यंत्र बन गया है।

सोवियत संघ ने सबसे पहले अंतरिक्ष में उपग्रह छोड़ाथा,कायदे से सोवियत संघ को अंतरिक्ष संचार को आम आदमी के संचार में रूपान्तरित करना चाहिए था । वह यह नहीं कर पाया। लेकिन अमेरिका ने यह कर दिखाया । उसने अंतरिक्ष संचार तो सिर्फ राष्ट्र की सुरक्षा और विज्ञान के विकास तक ही सीमित नहीं रखा। उसने सामान्य व्यक्ति के मोबाइल संचार में बदल दिया। इसमें उसके कितने ही बुरे उद्देश्य निहित हों लेकिन सामाजिक विकास और सामाजिक संचार की दुनिया में यह लंबी छलांग ही कही जाएगी। कायदे से यह छलांग सोवियत संघ को लगानी थी लेकिन वे असमर्थ रहे। सोवियत संघ में वैज्ञानिकों को 18 सालों तक कम्प्यूटर के इस्तेमाल को लेकर देश के अंदर बहस चलानी पड़ी। कम्युनिस्ट पार्टी ने वैज्ञानिकों को इस विषय पर बहस की अनुमति ही नहीं दी। क्यूबा अभी भी सोच रहा है ब्रॉडबैण्ड दें या नहीं।

कहने का अर्थ है कि नित नई वस्तुओं के उत्पादन और उपभोग से समाज को वंचित करना समाजवाद नहीं है। समाजवाद के पराभव का यह प्रधान कारण रहा है कि उसने मनुष्य की नित नई चीजें बनाने और उनका सामाजिक इस्तेमाल करने की कला पर ही पाबंदी लगा दी। इसके चलते वह बंद गली में जाकर फंस गया और समाजवादी देशों में कम्युनिस्ट पार्टी के शासन का पराभव हो गया। समाजवाद नियंत्रण का तंत्र बन गया कायदे से उसे उत्पादन का तंत्र बनना चाहिए था। समाजवाद से पूंजीवाद इसी आधार पर बढ़त ले गया।

पूंजीवाद ने नित नई वस्तुओं का उत्पादन करके सामाजिक संकटों पर काबू पाया है और नए संकटों को जन्म दिया है। नित नई वस्तुओं के उत्पादन ने उत्पादक शक्तियों की उत्पादक क्षमता को नई बुलंदियों तक पहुँचाया है। मजदूरवर्ग और समाज को विभिन्न किस्म की जड़ताओं और रूढ़ियों से मुक्त किया है। उत्पादन के क्षेत्र में नित नई क्रांतियां सामाजिक परिवर्तनों को जन्म देती हैं और यही पूंजीवाद की सफलता का रहस्य है। समाज को मात्र विचारों से नहीं चला सकते। समाज को चलाने के लिए उपभोग की वस्तुओं की भी जरूरत होती है। समाजवादी देशों ने नए विचारों को जन्म दिया लेकिन पूंजीवाद की तरह नई वस्तुओं का संसार रचने में असफल रहा।हमें सोचना चाहिए कि सोवियत संघ या चीन एक भी दैनिक उपभोग की नयी वस्तु का निर्माण क्यों नहीं कर पाया ?

5 COMMENTS

  1. क्या आप पूंजीवादी राष्ट्रवाद की बढ़ती अवधारणा भारत के लिए घातक है पर एक लेख लिख सकते है। इसकी बहुत आवश्यकता है । कृपया अति शीघ्र उत्तर दे ।
    धन्यवाद

  2. Professor Jagdishwer chaturvadi most brilliantly analysed the failure of socialism & success of capitalism in general practice. Socialism actually could not honour the freedom of thoughts and speech, so that through dialectical process it could eradicate malpractice within it. Party and sometime individuals became more powerful than the proletariat and the people in so-called socialist countries. Capitalism has no solution of present day problems. Recent developments of recession in Europe and America already repeated the historical failure of capitalism. Capitalism has so-called success because of continued blunders by socialist countries and its leader those converted dictators in the name democratic centralism of party.

  3. ydi aap kahte hain to shayad yhi ytharth hoga .kintu poonjiwad kisafalta ke jo pramaan hain we to uske sarvnaash ke pryaapt kaarak hone chahiye .”samajwd ka parabhav”ke maane kya hai ?hm us arth men kati vishwash nahin karte jo pratikrantike gunahgaron ne takiya kalam banaa diya hai …ydi “samaajwad ka parabhav”ek saty hai to poonjiwad ka vartmaan swroop bhi ek divangat aabhmandaleey bujhteehui jyoti ka pradeept tej maatr ahi .samaajwad ne science ko maanvta ke liye mana hai jbki poonjiwad ne manavor science dono ko munafakhori ke liye ijaad kiya hai .

  4. पूंजीवाद की सफलता का रहस्य – by – जगदीश्वर चतुर्वेदी

    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टीयो का देश के पूर्व और दक्षिण के कुछ एक राज्यों में कभी-कभी चुनाव द्वारा सत्ता में आने की सफलता का रहस्य क्या है ?

    देश के अन्य भागों में कम्युनिस्ट अपना प्रभाव बनाने में असफल क्यों रहे हैं ?

    इस सफलता या असफलता का कारण वैचारिक तो नहीं हो सकता ?

    भारत एक ही देश है, वातावरण भी लगभग एक सा ही है, तो यह साम्यवादी प्रभाव का अंतर क्यों ?

    – अनिल सहगल –

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