सबको संग लेके बड़ी दूर निकल सकते थे,
तूने चाहा ही नहीं हालात बदल सकते थे।
तुम तो उलझे रहे वंदना में वतन की ख़ालिस,
सेवा करते तो नतीजे भी बदल सकते थे।
राज करना कोई बच्चो का हंसी खेल नहीं,
राज पाने को ज़ेहर हम भी उगल सकते थे।
हम वतन दोस्त हैं साबित भी किया है हमने,
देख दौलत की खनक हम भी फिसल सकते थे।
तुम तो दो दिन की हकूमत में ही इतराने लगे,
हम पे सदियां थीं जो चाहते बदल सकते थे।
सिर्फ़ जज़्बात की नारों की सियासत कर ली,
थोड़ा सा काम भी करते तो संभल सकते थे।
इक ख़बर क़त्ल की और सैंकड़ों क़ातिल पैदा,
इन से बच के भी अख़बार निकल सकते थे।
लाख मतभेद हों जायज़ था धमाका अपना,
बॉस दुनिया के हमको भी निगल सकते थे।।
नोट-ख़ालिसः शुध्द, इतरानाः मनमानी, जज़्बातः भावनायें, बॉसः सुपरपावर
रावत जी , गुप्ता जी और विशेष रूप से मीना जी का हार्दिक आभार.
वाह वाह
और उससे भी बड़ी वाह वाह भाई इकबाल जी कि डॉ मीणा की शाबासी मिली जो कि
इस जीवन की सबसे वड़ी धरोहर होगी आपके लिएः ऋषि परशुराम, दुर्वासा और वशिष्ठ की
त्रिमूर्ति का एकात्म स्वरुप डॉ मीणा की शाबासी पाना सबके भाग्य में नहीं होता भाईजान । जरुर इस लिखे में ऐसा कुछ होगा कि निरंकुश जी ने अंकुश में सत्य बोला । इससे लगता है कि कुछ लोग उनकी
आलोचना करते रहते हैं वह सही नहीं है, हांलाकि वह काफी तीखा लिखते हैं और एक ही पक्ष का लिखते हैं लेकिन जो झेलकर निकलकर आता है वह हीरा भी हो जाता है किंतु जहरीला भी हो जाता है।
डॉ साहब को भी प्रणाम।
इकबाल भाई , वाह वाह ऐसे ही लिखते रहें।
हमेशा की भांति शानदार प्रस्तुति! एक-एक लफ्ज में गहरी संवेदनाये और अहसास झलक रहे हैं!
शुभकामनाए!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
बहुत खूब, इक़बाल जी.