वाराह अवतार की कहानी

vaarahडा. राधेश्याम द्विवेदी

जब- जब पृथ्वी पर धर्म का नाश होता है अधर्म बढ़ता है, मानवता को खतरा होता है। तब-तब पृथ्वी के पालक भगवान विष्णु किसी न किसी रुप में नये अवतार ( जन्म ) लेकर संसार एवं मानवता की रक्षा करते हैं। इनके अवतार तीन प्रकार के कहे गये हैं-1. पूर्ण , 2. आवेश तथा 3. अंश । जो अवतार पूरे जीवन भर के लिए धारण किया जाता है वह पूर्ण अवतार होता है जैसे-राम और कृष्ण का अवतार । आवेश अवतार वे होते हैं जिसमें जीवन के कुछ भाग तक जीवन की पूर्ति कर दी जाती है , जैसे परशुराम का अवतार । अंशावतार में भगवान का कुछ अंशमात्र अवतरित होता है और वह अवतार नहीं ग्रहण करते हैं जैसे शंख या चक्र आदि आयुध का प्रकट होना आदि। भगवान विष्णु के सर्वमान्य  दस अवतार निम्नलिखित हैं- 1.मत्स्य 2. कूर्म 3. वराह 4. नरसिंह 5. वामन 6. परशुराम 7. रघुराम 8. कृष्ण 9. बुद्ध एवं 10. कल्कि। कुछ शास्त्र बु़द्ध को अवतार न मानकर कृष्ण के वड़े भाई बलराम को अवतार मानते हैं।

इन अवतारों में विश्व के विकास का रहस्य छिपा प्रतीत होता है। प्रथम चार अवतारों में जगत की रचना की सूचना निहित है । सृष्टि  के आरम्भ में सर्वत्र जल ही जल था अतः जगत के विकास में मत्स्य ही प्रथम जीव अथवा जन्तु था जिसने प्राणियों के रचना का प्रतिनिधित्व किया। मत्स्यावतार सृष्टि  के इसी विकास का प्रतीक है। जल के बाद पर्वतों का उदय प्रारम्भ हुआ जिसका प्रतीक कुर्म है। पर्वतीय प्रदेश को कुर्म स्थान कहा जाता है। अतः सृष्टि  के विकास का यह द्वितीय सोपान कूर्मावतार में निहित है। सागर मन्थन का पौराणिक आख्यान जगत के उस विकास का सूचक है जब जल से भूमि का उदय हो रहा था। जल से भूमि के इस उदय होने में सृष्टि  के विकास का तृतीय सोपन छिपा हुआ है , जो वाराह अवतार ने सम्पन्न किया है । इसी प्रकार नरसिंह अवतार में मानव और पशु जाति के विकास की कहानी पढ़ी जा सकती है। इन चारो अवतारों की परिकल्पना जिस युग में की गई है उसे सत्युग के नाम से जाना जाता है । इस युग में विकास के साथ -साथ सभी सकारात्मक विकास का क्रम रहा है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजापति ब्रह्मा ने मत्स्य तथा वाराह का अवतार लेकर सृष्टि  का हित किया है।

देवताओं का मानव रुप में अथवा अन्य जीवधारियों के रुप में मानवोचित कार्य करने की कथायें प्रायः मिलती हैं। वे मनुष्य या पशु रुप में पूरी मानवता एवं सृष्टि  का मार्गदर्शन देते रहते हैं। भक्तों को उपदेश देते रहतें हैं और मानव जाति को स्वर्गलोक प्राप्ति का मार्ग प्रषस्त भी करते रहते हैं। मत्स्य, कच्छप तथा वाराह अवतार के कथानक विस्तारपूर्वक वैदिक साहित्य में मिलते हैं। इनकी मूर्तियां अवतारी पशु तथा मिश्रित दोनों रुपों में मिलती हैं।

महावराह विष्णु का तीसरा अवतार है। इसे आदि वाराह, आदि शूकर तथा क्रोड आदि नामों से भी जाना जाता है। मत्स्य एवं कूर्म अवतारों की तरह प्रारम्भ में वाराह अवतार का सम्बन्ध ब्रहमा प्रजापति से था , किन्तु बाद में ब्रहमा का महत्व कम हुआ और विष्णु प्रधान देवता स्वीकार किये जाने लगे। इसलिए मत्स्य और कूर्म अवतारों को विष्णु का अवतार माना जाने लगा।  विष्णु का यह रुप भी भयंकर देवों की सूची में है। इनके दो रूप है – 1. पूर्ण पशुरुप ’’यज्ञवाराह’’ तथा 2. मानव पशुरुप- ’’नृ-वाराह’’। नृ-वाराह में सिरवाराह का होता है बाकी सारा शरीर मानव का होता है। इन दो रूपों द्वारा सम्पदित कार्य भी अलग अलग हैं। जल के अथाह गर्भ में डूबी हुई पृथ्वी को ऊपर लाकर जल स्तर पर एक नौका की भांति उसे स्थिर रुप में स्थापित करने का श्रेय यज्ञवाराह को है। इसे सम्पूर्ण यज्ञ का मूर्तिमान स्वरुप माना गया है। इसमें उनके हाथों में कोई अस्त्र षस्त्र नहीं होता है। नृ-वाराह के रुप में विष्णु ने शंख, चक्र और गदा  आदि षस्त्र लेकर दैत्यराज हिरण्याक्ष का बध किया था। विभिन्न पुराणों किंचित मत भिन्नता के साथ पृथ्वी उद्धार तथा हिरण्याक्ष बध को ही दिखाया गया है। विष्णु के इस रुप को वराहमुखी एवं पद्म तथा गदा धारण करने वाला द्विभुजी कहा गया है। उनका दाहिना पैर कूर्म पर तथा बांया शेष के सिर पर रखा बताया गया है। ऋग्वेद में वाराह का उल्लेख हुआ है।  तैतरीय आरण्यक का कथन है कि जल में डूबी हुई पृथ्वी को सौ भुजाओं वाले शूकर ने बाहर निकाला।  रामायण में पृथ्वी को उठाने वाला वाराह रुप ब्रहमा का माना गया है।  महाभारत में कहा गया है कि  संसार का हित करने के लिए विष्णु ने वाराह रुप धारणकर हिरणाक्ष का बध किया। रसातल में ध्ंासी हुई पृथ्वी का पुनः उद्धार करने के लिए वे इस रुप में अवतरित हुए।

प्रलय के समय जल में डूबी हुई पृथ्वी को निकालने की चिन्ता में ब्रहमा जी के नासा छिद्र से अंगूठे के बराबर एक बाराह शिशु निकल पड़ा। उनको देखते-देखते वह शिशु आकाश में स्थित हो गया और उसका आकार हाथी के समान हो गया। इस वाराह को देखकर सभी मारीचि एवं सनकादिक ऋशिगण चकित हो गये । वे समझ न पाये कि वह कैसे उत्पन्न होकर इतना विशाल हो गया। उसी समय भगवान वाराह पर्वताकार होकर अत्यन्त भीशण स्वर में गरजने लगे। उनकी गर्जना की ध्वनि सभी दिशाओं में भर गई। सभी लोक उनकी स्तुति करने लगे। मुनीश्वरों की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान वाराह एक बार फिर गरजे और गजराज की भांति लीला करते हुए जल में घुसे। आकाश से पूंछ उठाकर बहुत जोर से उछले और बालों के फटकारकर खुरों के आघात से बादलों को विदीर्ण करने लगे। भगवान वाराह का शरीर अत्यन्त कठोर था तथा त्वचा पर बड़े-बड़े बाल थे। उनकी सफेद दाढ़ थी और दोनों आंखों से तेज निकल रहा था। इस प्रकार की शोभा धारण कर वे प्रलय समुद्र में इधर-उधर स्वच्छन्ता पूर्वक विचरण करने लगे। यज्ञ रुप में होने पर भी वाराह रुप धारण करने के कारण वे अपनी नाक से सूंघ-सूंघ कर इधर-उधर चारो ओर पृथ्वी की खाज कर रहे थे। अत्यन्त तेज को कठोर दाढ़ होने के कारण वह मुनि जनों का ध्यान रखते हुए विचरण कर रहे थे। वाण के समान पौने खुरों से जल को चीरते हुए अपार जलराशि के पार पहुंचकर उन्होंने रसातल में धंसी हुई पृथ्वी को देखा। वे शीघ्र ही अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठाकर रसातल से ऊपर आने लगे।

हिरण्याक्ष भी भगवान का पता लगाता हुआ वहीं पहुंच गया और वाराह की लाल आंखों से निकलते हए तेज को देखकर वह भयभीत होकर जोर से हंसने लगा। पीले बाल तथा तीक्ष्ण दाढ़ों वाले दैत्य ने उनको अनेक दुर्वचन कहा और पृथ्वी को छुड़ा लेने के लिए पीछा करने लगा। वाराह भगवान ने शीघ्र ही पृथ्वी को ऊपर लाकर व्यवहार योग्य स्थान में रखकर उसमें अपनी आधार शक्ति का संचार किया। इसे देखकर सारे देव प्रसन्न होकर वाराह भगवान की स्तुति करने लगे। इसी समय सोने का आभूशण, अद्भुत कवच तथा भारी गदा लेकर हिरण्याक्ष वहां आ पहुंचा और उन पर गदा प्रहार करने लगा। बड़ी देर तक दोनों में द्वन्द्व युद्ध चलता रहा । अन्त में वाराह के चरण के प्रहार से शाप बस दैत्य के प्राण ने अपना शरीर त्याग दिया। प्राचीनकाल में भगवान वाराह ने उक्त चरित्र के आख्यान को लिपिबद्ध नहीं किया गया था ,अपितु वह बहुत दिनों तक गुरू शिष्य परम्परा में कहते सुनते कथा के रुप में चलती रही और बहुत बाद में स्मरण एवं कल्पना के आधार पर इन्हें लिपिबद्ध करके ऐतिहासिक साहित्य के रुप में प्रस्तुत किया गया। वर्तमान समय में वाराह ही क्या प्रायः सभी देवी दवताओं का व्यापक अध्ययन एवं अनुसंधान हुआ है। इस कल्याणकारी वाराह के स्वरूप का सादर अभिनंदन किया जाता है।

1 COMMENT

  1. ऐसे तो यह सम्पूर्ण आलेख अविश्वसनीय है और किसी काल्पनिक कहानी का अंश लगता है,खास कर इसका मुख्य विषय बाराह अवतार,पर प्रसंग में महात्मा बुद्ध को भी एक अवतार मानने की बात आई है.महात्मा बुद्ध का मत या धर्म उस समय एक तरह सनातन धर्म के प्रति विद्रोह था.यहाँ तक कि उस धर्म में ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं थीऔर न उनके अनुयायिओं को ऐसा करने को कहा गया था,पर एक तो कालांतर में उनके अनुयायी ही उनकी मूर्ति बना कर पूजना आरम्भ कर दिए ,दूसरी ओर सनातनियों ने उन्हें ही भगवान बना दिया. जब बौद्ध धर्म का प्रसार बहुत ज्यादा हो रहा था ,तो किस तरह शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के विद्वानों को चुनौती देकर सनातन धर्म को पुनर्स्थापित किया था,यह भी शंकराचार्य की गाथा में उल्लेखित है.शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच का शास्त्रार्थ तो कहानी का रूप ले चूका है.पता नहीं किस षड्यंत्र ने बाद में बुद्ध को अवतार बना दियाऔर सनातन धर्म वालों ने बोधगया के मंदिर पर भी हक़ जमा लिया.अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी,.परेश रावल उसमे एक ऐसे किरदार की भूमिका कर रहे थे,जो ईश्वर के नाम किये जा रहे पाखंडों का भंडाफोड़ करता है.पाखंडियों ने कैसे उनको ही भगवान बना दिया,यह उस फिल्म में वर्णित है.मुझे तो लगता है कि महात्मा बुद्ध के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है,पर यह कब और कैसे हो गया यह शोध का विषय हो सकता है,पर क्या कोई ऐसा साहस कर सकता है?पहले कभी मैंने श्री मोहन आर्य से इन अवतारों और राम कृष्ण आदि भगवान के विभिन्न रूपों के बारे में कुछ प्रश्न किये थे.उनका उत्तर भी प्रवक्ता.कॉम पर कहीं न कहीं होगा ही.उन्होंने अवतारों और ईश्वर के विभिन्न रूपों के बारे में यही कहा था कि वेदों में इसका वर्णन नहीं है.मूर्ति पूजा के बारे में मैंने कोई प्रश्न नहीं पूछा था,क्योंकि मुझे मालूम है कि आर्य समाज की स्थापना ही इसी के कारण हुई थी.
    अंत में,अगर कल्कि अवतार का आना अभी शेष है,,तो महात्मा बुद्ध किस युग में पैदा हुए थे? क्या वे कलियुग के पहले पैदा हुए थे?

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