बिटिया दीप बने तो कैसे ?

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balika24 जनवरी: राष्ट्रीय बालिका दिवस पर विशेष
श्वेत-श्याम दुई पाटन बीच बालिका सशक्तिकरण
कथाकार उर्मिला शिरीष की एक कहानी है – ’जंगल की राजकुमारियां’। कहानी में नन्ही बुलबुल और दादी के बीच इन संवादों को जरा गौर से पढि़ए:
’’अच्छा दादी, बताओ, क्या मैं पुलिसवाली नहीं बन सकती ?’’
’’क्या करेगी पुलिसवाली बनकर ?’’
’’गुण्डों की पिटाई करुंगी। जो लोग लङकियों को परेशान करते हैं; उनके पर्स और चेन लूटते हैं, उनको पकङकर मारुंगी।’’
बुलबुल कल्पना मात्र से प्रफुल्लित हो उठी। उसका रोम-रोम रोमांचित हो रहा था। कहती है -’’पता है दादी, मम्मी मेरे लिए लङका देख रही है। पापा ने कहा कि बचपन मंे शादी की, तो पुलिस वाले पकङकर ले जायेंगे। दादी, मुझे तो पुलिस बनना है, पेंट-शर्ट पहनना है। कितनी स्मार्ट लगती है पुलिस वाली!’’
संवाद से स्पष्ट है कि नन्ही बुलबुल के मन में गुण्डों की हरकतों और बाल विवाह के गैर कानूनी कृत्य के खिलाफ प्रतिक्रिया का बीज जङ पकङ चुका है। यह प्रतिक्रिया ही पुलिसवाली बनने की उसकी ख्वाहिश का मूल आधार है। यदि इस क्रिया और प्रतिक्रिया को आधार बनाकर, बालिका सशक्तिकरण की योजना बनाई जाये, तो वह कितनी सशक्त होगी ? आइये, इसे समझने के लिए निम्नलिखित दो चित्रों को ध्यान से देखें:
सोचनीय चित्र
भू्रण हत्या: बेटे के सानिध्य, संपर्क और संबल से वंचित होते बूढे़ मां-बाप के अश्रुपूर्ण अनुभव और भारतीय आंकङे, मातृत्व और पितृत्व के लिए खुद में एक नई चुनौती बनकर उभर रहे हैं। सभी देख रहे हैं कि बेटियां दूर हों, तो भी मां-बाप के कष्ट की खबर मिलते ही दौङी चली आती हैं, बिना कोई नफे-नुकसान का गणित लगाये; बावजूद इसके भारत ही नहीं, दुनिया में बेटियां घट रही हैं। काली बनकर दुष्टों का संहार करने वाली, अब बेटी बनकर पिता के गुस्से का शिकार बन रही है। कानूनी प्रतिबंध के बावजूद, वे कन्या भू्रण हत्या पर आमादा हैं; नतीजे मंे दुनिया के नक्शे में बेटियों की संख्या का घटना शुरु हो गया है। दुनिया में 15 वर्ष उम्र तक के 102 बेटों पर 100 बेटियां हैं। कानून के बावजूद, भारत में भ्रूण हत्या का क्रूर कर्म ज्यादा तेजी पर है। यहां छह वर्ष की उम्र तक का लिंगानुपात, वर्ष 2001 में जहां 1000 बेटों पर 927 बेटियां था, वह वर्ष 2011 में घटकर 919 हो गया है। यह राज्य स्तर पर, हरियाणा में न्यनूतम है। लिंगानुपात में गिरावट का यह क्रम वर्ष 1961 से 2011 तक लगातार जारी है।
बाल विवाह: कभी मां-बाप वीर बेटी मेडलीन, जेन, लक्ष्मीबाई, पद्मा और विद्युल्लता की वीरता के किस्से सुनाकर
बालिका सशक्तिकरण का संस्कार डालते थे। आज उन्ही मां-बाप द्वारा बेटियां इस कदर बोझ मान ली गई हैं कि विश्व स्तर पर प्रत्येक तीन सेेकेण्ड मंे एक बालिका का उसकी सहमति के बगैर विवाह किया जा रहा है। ’प्लान यूके’ नामक संगठन के मुताबिक, भारत में प्रत्येक वर्ष में करीब एक करोङ और प्रत्येक दिन में 27,397 कम उम्र लङकियों की बिना सहमति शादी कराने का औसत है। यूनीसेफ की रिपोर्ट (स्टेटस आॅफ वल्र्ड चिल्ड्रन रिपोर्ट-2012) का दावा है कि बाल विवाह के वैश्विक आंकङे में 40 फीसदी हिस्सेदारी भारत की है। प्रत्येक सौ में से सात कन्याओं की शादी 18 वर्ष से कम उम्र में हो रही है। वर्ष 2005-06 में किए गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक, कुल उत्तरदाता महिलाओं में से 22 फीसदी महिलाओं ने अपना पहली संतान को 18 से कम वर्ष की उम्र में जन्म दे दिया था। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की परिवार कल्याण सांख्यिकी रिपोर्ट-2011 से स्पष्ट है कि शहर व गांव के बीच कम उम्र कन्या विवाह अनुपात 1ः3 है। कानून के बावजूद, कई समुदायों में आज भी बाल विवाह को मंजूरी है।
कम उम्र में बिटिया की शादी के जुल्म से हम चिंतित हों कि दुनिया भर में 15 से 19 उम्र में हुई कन्या मृत्यु में ज्यादातर मामले गर्भावस्था संबंधी जटिलता के पाये गये हैं। शादी होते ही पढ़ाई छोङने की मज़बूरी के आंकङे, कम उम्र में विवाह के दुष्प्रभाव की तरह हमारे सामने हैं ही।
लिंगभेद: लिंगभेद की मानसिकता यह है कि 14 वर्षीय मलाला युसुफजई को महज् इसलिए गोली मार दी गई, क्योंकि वह स्कूल जा रही थी और दूसरी लङकियों को भी स्कूल जाने के लिए तैयार करने की कोशिश कर रही थी। दुनिया के कई देशों में ड्राइविंग लाइसेंस देने जैसे साधारण क्षमता कार्यों के मामले में भी लिंगभेद है। लिंगभेद का एक उदाहरण, पोषण संबंधी एक सर्वेक्षण का निष्कर्ष भी है; तद्नुसार, भारत में बालकों की तुलना में, बालिकाओं को भोजन में दूध-फल जैसी पौष्टिक खाद्य सामग्री कम दी जाती है। औसत परिवारों की आदत यह है कि बेटों की जरूरत की पूर्ति के बाद ही बेटियों का नंबर माना जाता है।
यौन हिंसा: किसी के भाई, पिता, पुत्र, पति, रिश्तेदार व मित्र की भूमिका निभाने वाले पुरुषों की यौन पिपासा का
विकृत चित्र यह है कि अमेरिका में 12 से 16 वर्षीय लङकियों में करीब 83 प्रतिशत यौन शोषण का शिकार पाई गईं हैं। भारत में भी यौन शोषण के आंकङे बढ़ रहे हैं। दिल्ली में गत् तीन वर्षों के दौरान हुए कुल बलात्कार में 46 प्रतिशत पीङिता, अव्यस्क थीं। एक सर्वेक्षण में दिल्ली में मात्र 16 प्रतिशत, मुंबई में 34 प्रतिशत, तो गुजरात में 88 प्रतिशत ने माना कि लङकियां घर से बाहर भी सुरक्षित हैं। एनसीआरबी रिपोर्ट के मुताबिक, बलात्कार, छेङखानी और जलाने के सबसे ज्यादा मामले, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में सामने आये हैं।

शिक्षा: उक्त चित्र सोचनीय न होता, तो हमें आज बालिका सशक्तिकरण पर चिंतन की आवश्यकता न होती। इस चिंता और चिंतन को सामने रखकर ही कभी भारतीय संविधान की धारा 14, 15, 15(3), 16 और 21(ए) विशेष रूप से शैक्षिक अधिकार में समानता सुनिश्चित करने हेतु बनाई गई थी। धारा 15 धर्म, वर्ण, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करती है। इस बाबत् बढ़ी जागृति, शिक्षा का अधिकार कानून और अन्य प्रोत्साहन कारणों से शहर और गांव…. दोनो जगह बालक-बालिका साक्षरता प्रतिशत के बीच का अंतर घटा है। वर्ष 2011 मंे यह 16.68 प्रतिशत था। खुशी की बात यह है कि 2001 की तुलना मंे 2011 में शहरी स्त्री साक्षरता वृ़िद्ध दर भले ही नौ रही हो, ग्रामीण क्षेत्र में यह वृद्धि 26 फीसदी दर्ज की गई; जबकि गांवों और शहरों में बालक साक्षरता वृद्धि दर क्रमशः पांच और 10 प्रतिशत पर अटक कर रह गई। इस चित्र के आगे बढ़ते हुए आप इस परिदृश्य पर भी खुश हो सकते हैं कि बोर्ड परीक्षाओं में अव्वल आने की दौङ में लङकियां, लङकों को पछाङ रही हैं। खुशी की बात है कि गंाव की बेटियां भी अब गांव से दूर पढ़ने जाने में नहीं झिझकती। मध्य प्रदेश की बोर्ड परीक्षा में 500 में से 481 अंक पाकर नेत्रहीन सृष्टि ने सभी को चैंका दिया, तो नेत्रहीन सुनंदा ने नागदा में अव्वल आकर; सम्मान में उसे एक दिन के लिए नगरपालिकाध्यक्ष की कुर्सी सौंपी गई।
बागडोर: आप कह सकते हैं बेटियों के लिए नामुमकिन माने जाने वाले लगभग हर क्षेत्र में बेटियों ने प्रवेश किया है।
नौकरी के मामले में लङकियां, अपराजिता बनकर लङकों को चुनौती दे रही हंै। भारत की सार्वजनिक और बहुराष्ट्रीय क्षेत्र की 11 प्रतिशत कंपनियों की मुख्य कार्यकारी पद पर आसीन शख्सियतें, लङकियां ही हैं। नर्सिंग मंे बेटियों का लगभग एकाधिकार है। अमेरिका में तो एक पुरुष नर्स पर 9.5 महिला नर्स का अनुपात है। ’थिंकटैंक संेटर टैलेंट इनोवेशन’ के सर्वेक्षण का यह निष्कर्ष भी खुश करने वाला है कि भारतीय लङकियां अपनी पेशेवर आकांक्षाओं को पूरा करने के मामले में अमेरिका, जर्मनी और जापान में अपनी समकक्ष लङकियों से आगे हैं। मैरी काॅम, किरन बेदी, संतोष यादव, महज् 19 साल की उम्र में बालाजी टेलीफिल्मस को उंचाइयों पर पहंुचाने वाली एकता कपूर से लेकर झारखण्ड की धरतीपुत्री दयामणी बारला की उपलब्धियां भी हमें खुश कर सकती हैं; किंतु क्या बालिका सशक्तिकरण के मोर्चे पर संतुष्ट होने के लिए इतना काफी है ? बेटियों का असल सशक्तिकरण क्या  यही है ? कभी विचारें।

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