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कवि अभिषेक कुमार अम्बर
घटाएं आज बढ़ती जा रही हैं
दिखाने पर्बतों को रोब अपना
हवाओं को भी साथ अपने लिया है।
खड़े हैं तान कर सीने को पर्वत
एक दूसरे का हाथ थामे
कि अब घेराव पूरा हो गया है
गरजने लग गई है काली बदली
सुनहरे पर्वतों के रंग फीके पढ़ गये हैं
मटमैली हुई जाती है उजली उजली पिंडर
वही कुछ दूर पल्ली बस्तियों में
लाल पीले नीले उजाले हो गये हैं
कि जैसे काली काली चुन्नीयों पर
कोई सितारों की कढ़ाई कर गया हो
दरीचे से मैं बैठा देखता हूँ
कि दुनिया शांत होती जा रही है
कि जैसे बुद्ध का वरदान हो ये
और मैं अपने ज़ेहन में ख़यालों के स्वेटर बुन रहा हूँ।