घटाएं आज बढ़ती जा रही हैं दिखाने पर्बतों को रोब अपना हवाओं को भी साथ अपने लिया है। खड़े हैं तान कर सीने को पर्वत एक दूसरे का हाथ थामे कि अब घेराव पूरा हो गया है गरजने लग गई है काली बदली सुनहरे पर्वतों के रंग फीके पढ़ गये हैं मटमैली हुई जाती है उजली उजली पिंडर वही कुछ दूर पल्ली बस्तियों में लाल पीले नीले उजाले हो गये हैं कि जैसे काली काली चुन्नीयों पर कोई सितारों की कढ़ाई कर गया हो दरीचे से मैं बैठा देखता हूँ कि दुनिया शांत होती जा रही है कि जैसे बुद्ध का वरदान हो ये और मैं अपने ज़ेहन में ख़यालों के स्वेटर बुन रहा हूँ।
हिन्दी और उर्दू के एक उभरते युवा शायर हैं। और उर्दू के प्रसिद्ध शायर राजेन्द्र नाथ रहबर के शागिर्द हैं। यह गढ़वाली कविताकोश के संस्थापक हैं। और पिछले दो वर्षों से कविताकोश में सहायक संपादक के रूप में कार्यरत हैं। वैसे तो गीत, नज़्म, दोहा, रुबाई आदि विधाओं में भी लिखते हैं लेकिन मुख्यतः अपनी ग़ज़लों के लिए जाने जाते हैं।
इनकी पैदाइश उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले के मवाना क़स्बे में हुई, बचपन दिल्ली में बीता और प्राथमिक शिक्षा भी यहीं पूरी हुई। उर्दू शायरी से प्रभावित होकर 15 साल की उम्र में उर्दू सीखी और ग़ज़लें कहने लगे। उर्दू शायरी के प्रति इनके जज़्बे को देख कर राजेन्द्र नाथ रहबर साहब ने इन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया और उर्दू शायरी की बारीकियों से इन्हें रू-ब-रू कराया।