महिला-जगत

भारतीय चिंतन में नारी दृष्टि

-हृदयनारायण दीक्षित

मां सृष्टि की आदि अनादि अनन्य अनुभूति है। प्रत्येक जीव मां का विकास है। मां प्रथमा है। दिव्यतम् और श्रेष्ठतम् अनुभूति है मां। इसलिए सभ्यता विकास के प्रारंभिक चरण में ही मनुष्य को जहां-जहां अनन्य प्रीति मिली, वहां-वहां उसने मां की अनुभूति पाई। जल जीवन का प्राण है। जल नहीं तो जीवन नहीं। मां नहीं तो सृजन नहीं। विश्व के प्राचीनतम इनसाइक्लोपीडिया ‘ऋग्वेद’ में जल को माता – आपः मातरम् कहा गया। नदियां पानी देती हैं, समृध्दि देती हैं, पवित्र करती है – पुनानः। ऋग्वैदिक ऋषियों के लिए सिंधु माता है, सरस्वती माता है। मार्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा ने बहुत बड़ी बात कही है, सरस्वती की जैसी महिमा ‘ऋग्वेद’ में है वैसी किसी अन्य नदी की दूसरे देशों के साहित्य में दुर्लभ है। वैदिक काल देवी उपासना से भरापूरा है। सामाजिक विज्ञान की दृष्टि से यह काल स्त्री आदर का है। यों देव शक्तियां स्त्रीलिंग या पुल्लिंग नहीं होती लेकिन समाज अपने श्रध्दाभाव के चलते देवों को भी मां या पिता कहता है।

भारत वैदिक काल से ही देवी उपासक है। समाज के विकासवादी विवेचन में मातृसत्ता की समाज व्यवस्था आदिम है, पितृसत्ता के बाद की। ‘ऋग्वेद’ में ढेर सारे देवता है। अनेक देव पुरूषवाचक हैं देव और अनेक स्त्रीवाचक देवियां। लेकिन अदिति नाम की एक देवी में समूचा ब्रह्मंड, देश और काल भी समाहित है। ऋग्वेद (1.89.10) के गुनगुनाने लायक खूबसूरत मंत्र में कहते हैं, अदितिः द्यौ अदितिः अंतरिक्षं, अदितिः माता सः पिता सः पुत्रः, अदिति विश्वेदेवाः अदिति पंचजनाः, अदितिः जातम् जनित्वम् – अदिति द्युलोक, अंतरिक्ष, माता, पिता, पुत्र और अदिति ही विश्व देव है, अदिति पंचजन है। जो कुछ है, हो चुका और होगा, सब अदिति ही है। दुनिया की कोई भी कौम अपने ऐसा विराट देव-देवी को अपना पुत्र नहीं कह पायी। यह सृष्टि-प्रकृति एक चिरंतन प्रवाह है, इसी प्रवाह का नाम है अदिति। सो अदिति माता है, प्रवाह के अगले चरण में वही पुत्र है, जो हो चुका और होगा वह सब अदिति ही है। यहां सृष्टि संभवन की प्रत्येक गतिविधि में एक निरंतरता है, एक अविच्दिन्न प्रवाह है, यह प्रवाह एक दिव्य अनुभूति है, सो देवी हैं। वाणी भी संपूर्ण ब्रह्मंड में व्याप्त है।

ऋग्वैदिक मंत्रों के द्रष्टा ऋषि है। ‘ऋग्वेद’ में प्रत्येक सूक्त पर द्रष्टा ऋषियों के नाम छापे जाते हैं। ‘ऋग्वेद’ और ‘अथर्ववेद’ में 25 ऋषिकाओं के नाम हैं। वे 422 मंत्रों की द्रष्टा है। वाक् आम्भृणी, घोषा, अपाला, उर्वसी, इन्द्राणी, रची, रोमसा, श्रध्दा, कामायनी, यभी वैवस्वती आदि प्रख्यात ऋषिकाएं हैं। ‘ऋग्वेद’ (1.179.2) में लोपामुद्रा का कथन सारगर्भित है सत्य की साधना करने वाले देवतुल्य ऋषियों ने भी संतति प्रवाह चलाया है वे भी जीवन के अंत तक ब्रह्मचारी ही नहीं रहे उनकी भी पत्नियां थी। यहां गृहस्थ आश्रम की महत्ता है, संतति प्रवाह न रोकने की स्थापना है। आगे का मंत्र अगस्त्य का है हमने जीवन की तपः साधनाओं पर विजय पाई है, हम दंपत्ति अब संतति प्रवाह में लगेंगे। (वही मंत्र 3) यहां लोपामुद्रा ऋषिका है, वे अगस्त्य ऋषि की पत्नी है। प्रत्यक्ष रूप में यह वार्ता व्यक्तिगत दिखाई पड़ती है लेकिन इसकी स्थापनाएं दिशाबोधक है, लोपामुद्रा का जोर गृह स्थाश्रम की सृदृढ़ता पर है, अगस्त्य का जोर तपः साधना पर। लेकिन लोपामुद्रा – अगस्त्य का समन्वय प्रीतिकर है। वैदिक स्त्री दब्बू और शोषक नहीं है। वह खुलकर बात करती है, लोपामुद्रा अपने ऋषि पति से भी संवाद करते समय खुलकर बोलती हैं। ऐसी ही एक ऋषिका है इंद्राणी। इंद्राणी का कथन है ”मैं मूर्धन्य हूं और उग्र वक्ता हूं।” (ऋ0 10.159.2) इंद्राणी ‘अथर्ववेद’ (20.126) की भी मंत्र द्रष्टा ऋषिका है। यहां उनकी उद्धोषणा वैदिक काल के भी पहले के नारी सम्मान का यथार्थ दर्शन कराती है। कहती है, ”प्राचीन काल से ही नारी यज्ञों और महोत्सवों में भाग लेती रही हैं।” (वही मंत्र 10) यह प्राचीनकाल वेदों के रचनाकाल से भी बहुत पुराना होना चाहिए।

‘ऋग्वेद’, ‘यजुर्वेद’ और ‘अथर्ववेद’ में सभा, समितियां हैं। सभा और समितियां वैदिक जनतंत्र और स्नेहपूर्ण समाज का आधार है। सभा समिति के उल्लेख ‘ऋग्वेद’ में हैं, इसका अर्थ हुआ कि सभा समितियां भी ‘ऋग्वेद’ से प्राचीन हैं। इनका गठन विकास प्राचीन है, ‘ऋग्वेद’ में इनका उल्लेख बाद का है। ‘अथर्ववेद’ में सभा और समिति को प्रजापति की पुत्रियां कहा गया है। ध्यान दीजिए सभा और समिति जेसी आदर्श संस्थाएं पुत्रिया हैं, पुत्र नहीं। स्त्रियां गुणों की खान है। ‘ऋग्वेद’ (1.126.7) में ऋषिका रोमशा कहती हैं, जिस प्रकार गंधार की भेड़ रोमों से भरी होती हैं उसी प्रकार मैं गुणों से भरपूर हूं। ‘ऋग्वेद’ में केवल महिला ऋषिकाएं ही नहीं हैं, यहां अनेक वीर महिलाओं के वर्णन भी हैं। विश्पला का पैर युध्द में टूट गया था, अश्विनी देवो ने उसके कृत्रिम पैर लगाया (ऋ0 1.112.10) ऐसी ही एक योध्दा है मुद्गलानी। वे रथारूढ़ होकर युध्द जीती, उस समय उनके वस्त्रो को वायुदेव ने संभाला। (ऋ0 10.102.2) स्त्रियां व्यसनी पति को छोड़ देती हैं, उन पर बाद की सामंती व्यवस्था जैसा दबाव नहीं है – ‘जुआरी की स्त्री पति को त्याग देती है।’ (10.34.3) ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषद् साहित्य में स्त्री-विद्वानों के अनेक प्रसंग है। ‘वृहदारण्यक’ उपनिषद् में याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का खूबसूरत वाद-विवाद है। यहां गार्गी और याज्ञवल्क्य का प्रश्नोत्तर पठनीय है। गार्गी यहां सभानेत्री है।

सृष्टि प्रवाह में स्त्री और पुरूष दोनो की भूमिका है लेकिन मां जननी है। दोनो का मन हृदय एक होना चाहिए। दोनो का एकात्म ही आनंदमग्न परिवार का उपकरण है। अग्नि ऋग्वैदिक काल के शीर्ष देवता है। अग्नि दोनों का मन हृदय मिलाते हैं – समनसा कृणोषि। अग्नि दोनो कान बेशक मिलाते है लेकिन ऋषि ने स्वयं भी इनकी उपमा पति को चाहने वाली स्त्री से की है। (ऋ0 1.73.3) वैदिक स्त्री स्वाधीन है, वह पुरूष के सामने स्वाभिमानी है, वह मंत्रद्रष्टा ऋषिका है, वह युध्द में वीरव्रती है, वह यज्ञ कार्य में बराबर की भागीदार है, वह देवोपासक है बावजूद इसके वह मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती, सुंदर वस्त्र धारण किए हुए स्त्री अपना शरीर केवल पति को ही दिखाती है बाकी लोग केवल वस्त्र देखते हैं। (ऋ0 10.71.4) ऋग्वैदिक काल की स्त्री की स्थिति सम्मानजनक है, वह आदरणीय है। डॉ. रामविलास शर्मा की सटीक टिप्पणी है, ‘ऋग्वेद’ में स्त्रियों की स्थिति की जानकारी इस बात से भी होती है कि यहां देवों के साथ देवियां भी बार-बार वंदनीय मानी गयी हैं। दोनो घर गृहस्थी का काम साथ-साथ करते है, साथ-साथ सोम निचोड़ते है और साथ-साथ देवोपासना भी करते है। (8.31.5) मित्र देवता भी दोनो का मन एक करते हैं।

वैदिक काल की यही परंपरा पुराण काल तक अविच्छिन्न है। शिव-पार्वती में पार्वती समतुल्य रूप में आदरणीय है। सीता, राम में सीता माता है। श्रीराम कौशल्या, सुमित्रा के साथ कैकेई को भी आदरणीय मानते हैं। पुराणकाल की ‘दुर्गा सप्तशती’ की समूची कथा ही देवी की पराक्रम गाथा है। ”यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता” जैसी नारी सम्मान की उद्धोषणा विश्व समुदाय को भारतीय संस्कृति की ही देन है। भारतीय वांगमय में हजारो नारी पात्र हैं। हजारों उल्लेखनीय और पठनीय हैं। भारत मातृशक्ति आराधक राष्ट्र है। यहां गंगा माता है, गाय माता है, सिंधु माता है। वाणी माता हे, नदियां माता है, नीम का पेड़ माता है। सृष्टि का कण-कण यहां माता है – या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता। भारत पुरूषवाचक है लेकिन भारतीय अनुभूति में भारत भी माता है, पृथ्वी माता है। सारी विद्यााएं माता हैं। समूची स्त्री सृष्टि माता है – विद्या समस्तास्तव देवि भेदा, स्त्रियां समस्ता सकला जगत्सु।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में पूर्व मंत्री तथा वरिष्ठ राजनीतिज्ञ हैं