पीड़ा के दो छोर

0
270


ज़िंदगी समय में
घुलती जा रही है।
समय में घुलने की
अनंत पीड़ा है।
पीड़ा से बचने के लिये,
शब्दों और सुर ताल
का सहारा है।
संगीत में डूब जाऊं या
काव्य में बिखर जाऊँ,
घुलने के कष्ट को
थोड़ा सा बिसराऊँ
फिर उठकर पीड़ा को
थोड़ा सा सहलाऊँ,
फिर अपनी जीत पर
यूँ मुस्किराऊं…
जानती हूँ
वो दरवाज़े की ओट मेेें
खड़ी है
अभी ज़रा
किसी दवा से डरी है
अब तो ये लड़ाई
जीवन का मक़सद है
इसके सिवा अब कहाँ
कोई फ़ुर्सत है।


तुम्हारे चेहरे को पढ़ना
कभी इतना आसान था
ही नहीं,
इतनी आसानी से
अपनी सारी पीड़ा
अपने भीतर छुपा लेते हो!
अपनों की पीड़ा
तुम्हें सोने नहीं देती
और ख़ुद की पीड़ा
अपने काँधों पर
उठाये रहते हो।
तुमने अपनों को संभाला,
संबल बने,
हम सुरक्षित रहे।
तुम छत भी बने
तुम नीव भी बने।
हम दीवारों की तरह
तुममें चिपके रहे
मकान की छत में ही
दरारें अब आने लगी हैं…
पर ये दीवारें बहुत
मज़बूत हो चुकी हैं
अपने दम पर ही
छत को संभाल लेंगी
सारी दरारें जल्द
भर जायेंगी।
बस कुछ वक़्त लगेगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here