मृतक श्राद्ध का विचार वैदिक सिद्धान्त पुनर्जन्म के विरुद्ध है

0
254

मनमोहन कुमार आर्य

               महाभारत युद्ध के बाद वेदों का अध्ययनअध्यापन अवरुद्ध होने के कारण देश में अनेकानेक अन्धविश्वास एवं कुरीतियां उत्पन्न र्हुइं। सृष्टि के आरम्भ ईश्वर से प्राप्त वैदिक सत्य सिद्धान्तों को विस्मृत कर दिया गया तथा अज्ञानतापूर्ण नई नई परम्पराओं का आरम्भ हुआ। ऐसी ही एक परम्परा मृतक श्राद्ध की है। मृतक श्राद्ध में यह कल्पना की गई है कि हमारे मृतक पूर्वज पितरों को वर्ष में एक बार आश्विन महीने के कृष्ण पक्ष में आवाहन कर भोजन एवं उनकी प्रिय वस्तुओं के दान से उन्हें सन्तुष्ट करना चाहिये। यह उच्च मानवीय भावना तो है परन्तु यह सत्य पर आधारित न होने से एक आधारहीन व अनावश्यक परम्परा व कार्य है। इससे मनुष्य जाति की उन्नति न होकर अवनति होती है। इसे व्यवहारिक रूप दिया ही नहीं जाता अर्थात् मृतक पितरों को भोजन कराया ही नहीं जा सकता। यह एक ऐसा अन्धविश्वास है जिसे हम अपनी आंखें मूंद कर करते है। मृतक श्राद्ध करने पर कोई मृतक पितर व पूर्वज सशरीर भोजन करने श्राद्ध स्थान पर उपस्थित नहीं होता। उनके नाम पर जन्मना ब्राह्मण कहे जाने वाले लोगों को पकवान व भोजन परोसे जाते हैं, दान दक्षिणा दी जाती है और यह मान लिया जाता है कि हमारे मृतक पितर व पूर्वज हमारे कराये भोजन से सन्तुष्ट हो गये हैं। यह एक ऐसी परम्परा व धारणा है जिसे हम ज्ञान व विज्ञान के आधार पर प्रस्तुत नहीं कर सकते। वेदों में इसका कहीं विधान नहीं है।

               वेद वैदिक परम्परा में हम परिवार के जीवित माता, पिता, पितामह, पितामही, प्रपितामह तथा प्रपितामही की ही श्रद्धापूर्वक सेवा करने तथा उन्हें अपने आचरण एवं व्यवहार से सन्तुष्ट रखने का विधान है। मध्यकाल के जिन दिनों में इस परम्परा को आरम्भ किया गया, उस अवसर पर इस बात को विस्मृत कर दिया गया कि घर के जीवित पितरों माता, पिता से प्रपितामह प्रपितामही का श्राद्ध तो प्रतिदिन करने की आवश्यकता विधान है। मृतक पितरों पर यह लागू ही नहीं होता। मृतक परिजनों के मरने के बाद कुछ ही दिनों व महीनों में ईश्वर की व्यवस्था से वह अपने जीवन के शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप कर्मों का फल भोगने के लिये कर्मानुसार नये जीवन व जन्म को प्राप्त हो जाते हैं। वहां उनकी व्यवस्था सर्वव्यापक, सबके आधार तथा सबके धारणकर्ता परमात्मा की कृपा से वह स्वयं व उन जीवात्माओं के नये जीवन के परिवारजन करते हैं। हमारे भोजन कराने से हमारे मृतक किसी पितर को भोजन पहुंचना सर्वथा असम्भव है। अतः वेदों के शीर्ष वेदाचार्य ऋषि दयानन्द ने इस वेदविरुद्ध प्रथा को अस्वीकार कर पंचमहायज्ञों के अन्तर्गत पितृ-यज्ञ करते हुए अपने घर के सभी जीवित पितर व वृद्धों की आदर व सम्मान से सेवा करने व उन्हें भोजन, वस्त्र एवं ओषधि आदि से सन्तुष्ट रखने का विधान को जारी रखा है और जीवित पितरों की सेवा व उनको सन्तुष्ट रखने को ही वैदिक सत्य परम्परा का श्राद्ध कर्म माना है।

               मनुष्य सभी प्राणी एक सत्य चेतनता के गुण से युक्त एकदेशी, ससीम, अनादि, नित्य, अल्पज्ञ, कर्मफल के भोक्ता, मनुष्य योनि में कर्म करने में स्वतन्त्र तथा कर्मों के फल भोगने में परतन्त्र जीवात्मा होते हैं। कर्म ही जन्म का परिणाम होते हैं। हमारा वर्तमान जन्म भी हमारे पूर्वजन्म के पापपुण्य कर्मों का फल भोगने के लिये हुआ है और हमारी मृत्यु हमारे शरीर की जन्म, वृद्धि नाश के सिद्धान्त के आधार पर वार्धक्य में रोग आदि कारणों से होती है।जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य सिद्धान्त के अनुसार जिस जीवात्मा का जन्म हुआ है उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म होना निश्चित ध्रुव सत्य है। इस सिद्धान्त के अनुसार मृत्यु के बाद जीवात्मा का नया जन्म हो जाता है। नये जन्म में उसे माता, पिता, भाई, बन्धु व परिजन सब प्राप्त होते हैं और वह स्वयं व परिवार के सहयेाग से भोजन सहित अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। उसे अपने पुराने जन्म स्थान के सम्बन्धियों से भोजन प्राप्त करने की किंचित भी आवश्यकता नहीं है। मृतक श्राद्ध विषयक विचार व मान्यतायें काल्पनिक हैं। वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों में इस मान्यता का कहीं आधार नहीं है। अतः इस वेद-विरुद्ध कार्य को हमें करना नहीं चाहिये। यह अविद्यायुक्त कार्य है। इसे हम वेद, वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के द्वारा अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत विचारों व वैदिक सिद्धान्तों का अध्ययन कर जान सकते हैं व सभी अवैदिक कृत्यों को करना छोड़ सकते हैं। अविद्या दूर करने का यही उपाय है कि वेद व वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन किया जाये और प्रत्येक कार्य को सत्य व असत्य का विचार कर, उसकी परीक्षा कर, उसके तर्क एवं युक्तिसंगत होने के साथ वेद से पुष्ट होने पर ही स्वीकार किया जाये। ऐसा करने से हम अपने मनुष्य जीवन को सार्थक कर जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। ऐसा न करने से हम अपने जीवन के लक्ष्य आत्मोन्नति व मोक्ष से दूर होते जाते हैं जिसे करना किसी भी मनुष्य के लिये के उचित नहीं है। अतः मृतक श्राद्ध को करने से पूर्व इस विषय का विशद अध्ययन कर इसकी आवश्यकता, इससे सम्भावित लाभों की पूर्ति तथा मृतक पितरों की अवस्था एवं आवश्यकताओं पर वेद के परिप्रेक्ष्य तथा सामान्य ज्ञान के अनुसार भी विचार कर लेना चाहिये। ऐसा करने से हम सत्य निर्णय कर एक सत्य परम्परा का निर्वहन करने में समथ होंगे जिसका करना हमारे मनुष्य होने अर्थात् मननशील होने व सत्य का ग्रहण करने तथा असत्य का त्याग करने की दृष्टि से आवश्यक है।

               सनातन वैदिक धर्म आत्मा के जन्म मरण के सिद्धान्त अर्थात् पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। जन्म के समय हमारे सभी संबंध बनते हैं तथा मृत्यु होने पर सभी सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। मृत्यु होने पर तो मृतक आत्मा को अपने पूर्व संबंधों संबंधियों का ज्ञान रहता है और ही जीवित परिजनों को आत्मा का पता होता है कि मृत्यु के बाद उसका कहां, किस योनि अवस्था में जन्म हुआ है अथवा उसका मोक्ष हुआ या नहीं हुआ है। ऐसी अवस्था में अपने परिजनों की मृत्यु के बाद उनका वर्ष में एक बार आश्विन माह में मृतक श्राद्ध करना उचित नहीं है। जब हमारा दूसरों को कराया भोजन सम्मुख उपस्थित मनुष्य तक ही नहीं पहुंचता, तो मरे पीछे वह उन आत्माओं तक किसी रीति से पहुंच सकता है, ऐसा मानना कल्पना मात्र है। बिना वेद विधान व ऋषियों की सत्योक्त बातों के हमें किसी भी अन्धविश्वास व परम्परा को न तो मानना चाहिये न ही उसका समर्थन करना चाहिये। हमारी आर्य जाति का पतन इन व ऐसी काल्पनिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का अनुसरण तथा सत्य वैदिक सिद्धान्तों को छोड़ देने के कारण से ही हुआ है। अतः सत्यासत्य का विचार कर सत्य सिद्ध कार्यों को ही करना मनुष्यों के लिए उचित व विपरीत का छोड़ना आवश्यक है।

               हमारा सौभाग्य है कि आर्यजाति को पांच हजार वर्षों के बाद ऋषि दयानन्द नाम के एक सच्चे योगी व वेद ऋषि प्राप्त हुए थे। उन्होंने वेदों का उद्धार कर वेद के सत्य अर्थों का प्रचार किया था। उनकी सभी मान्तयायें वेद तथा तर्क व युक्ति पर आधारित हैं। उन्होंने ही हमें ईश्वर के सच्चे स्वरूप के दर्शन कराये और ईश्वर का ध्यान करने की विधि तथा वेद व ऋषियों की आज्ञाओं का पालन करते हुए प्रतिदिन पंचमहायज्ञों को करने की आज्ञा से परिचित कराया। हमारा सौभाग्य है कि हम आर्यों के पांच महाकर्तव्य रूप पंचमहायज्ञों को करते हैं जिसका परिणाम मनुष्य की शरीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है और वृद्धावस्था में मृत्यु व शरीर परिवर्तन होने सहित जन्म व मरण से अवकाशरूप मोक्ष प्राप्ति के रूप में होती है। हमें न केवल स्वयं ही वेदों का पालन व आचरण करना है अपितु अपने परिवार व संबंधियों सहित सृष्टि के जन-जन में वेद प्रचार कर उनसे भी वेदाचरण करवाना है। ऐसा करने से ही हमारा जीवन सार्थक व सफल होगा। हमारी यह पृथिवी देवों की धरा व धाम में परिणत हो सकेगी। मृतक श्राद्ध व जड़ पूजा जैसे अवैदिक कृत्यों से मुक्ति मिलेगी और देश व समाज उन्नति को प्राप्त होंगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here