मतदान में जोश, गुणात्मक बदलाव का संकेत

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-प्रमोद भार्गव- election
सोलहवीं लोकसभा में भारी मतदान गुणात्मक बदलाव का संकेत है। इन चरणों में लोकतंत्र का जोश खूब दिखा। यह भी अच्छा संकेत है कि छिटपुट घटनाओं को छोड़ मतदान सौहार्द्र व शांतिपूर्ण रहा। दंगा प्रभावित पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी सद्भाव दिखाई दिया। जबकि इन्हीं दंगो के परिप्रेक्ष्य में नेताओं ने हिंसक बोल-बोलकर दबे घावों को कुरेदने की कोशिशें की हैं। इस चरण के मतदान की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि पाषाण युग की अंतिम जीवित प्रजाति शोम्पेन आदिवासियों ने पहली बार मत का प्रयोग किया। निर्वाचन यज्ञ में मत-प्रतिशत बढ़ाने में अहम भूमिका युवा मतदाताओं की रही है,जो लगभग 350 सीटों को प्रभावित करेगी।
बहुआयामी सुधार के कारगर नतीजे पूरे देश में दिखने लगे हैं। इसका श्रेय निर्वाचन आयोग के साथ,लोकतंत्र के इस अभूतपूर्व पर्व में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करने की उन अपीलों को भी जाता है,जो दृष्य, श्रव्य व मुद्रित प्रचार माध्यमों से निरंतर जारी हैं। अन्ना हजारे के लोकपाल अभियान और अरविंद केजरीवाल के जनमत संग्रहों ने भी मतदाता को मताधिकार के प्रति जागरूक किया है। पूर्वोत्तर भारत से लेकर दशो दिशाओं में मत प्रतिषत बढ़ने के जो प्रमाण सामने आ रहे हैं, उसमें बेहतर, पारदर्शी व फोटो लगी मतदाता सूचियों का भी बड़ा योगदान है। चुनाव कार्यक्रम की घोशणा के बाद आयोग ने छूटे रह गए मतदाताओं को अपने नाम का पंजीयन कराने का जो अवसर दिया,उसे भी रेखाकिंत करना जरूरी है। इस अवसर के मिलने से एक दिन में एक करोड़ लोग मतदाता बने। मतदाता सूची में यह नवीनतम संषोधन एक मिसाल है,जिसे हरेक चुनाव में दोहराया जाता है तो यह लोकतंत्र की सेहत के लिए बेहतर खुराक बनी रहेगी। यही वजह है कि देष में 10 से 20 प्रतिशत मतदान बढ़ा है।
मेरी नजर में इस चुनाव की बड़ी उपलब्धि पाशाण युग की अंतिम जीवित प्रजाति शोम्पेन आदिवासियों की भागीदारी हैं। ग्रेट निकोबार में रहने वाले इस समुदाय के करीब 60 सदस्यों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। आयोग ने इनके लिए जंगल के अदरूनी हिस्से में मतदान केंद्र बनाया था,जिससे वे अपनी प्राकृतिक अवस्था में वोट डालने की आजादी पा सकें। 2011 की जनगणना के मुताबिक इन आदिवासियों की संख्या सिर्फ 229 है। आयोग की यह शुरूआत है। जाहिर है, मतदान में मिली सफलता का आगे विस्तार होगा। लिहाजा इसी अंडमान निकोबार द्वीप समूह में आज भी जारवा आदिवासी समूह के जो लोग आदिम आवस्था रह रहे है,उन तक भी मतदान की प्रक्रिया पहुंचेगी। ऐसा होता है तो ये लोग एक ऐसे अनूठे अधिकार का अनुभव करने लग जाएंगे, जिसकी अह्म भागीदारी देश और राज्यों का नेतृत्व चुनती है। यह अहसास आधार कार्ड के जरिए दी जाने वाली पहचान से कहीं ज्यादा जरूरी है।
नई लोसभा की तकदीर देश के युवा मतदाता लिखेंगे। इसलिए मतदान का सूचकांक बढ़ता दिखाई दे रहा है। यह वह मतदान है,जो केवल चुनाव में ही नहीं, पूरी लोकतंत्रिक राज-व्यवस्था में गुणात्मक बदलाव लाएगा। आजादी के 65 साल बाद देश की आबादी साढ़े तीन गुना बढ़कर एक अरब 20 करोड़ हो गई है। इस लोकसभा चुनाव में पहली मर्तबा करीब 2.31 करोड़ युवा मतदाता, मतदान करेंगे। वैसे कुल युवा मतदाताओं की संख्या 14 करोड़ 93 लाख 60 हजार है। 2009 के आम चुनाव में इन मतदाताओं की संख्या लगभग 10 करोड़ थी। नवीनतम मतदाता सूची के अनुसार देष में कुल 81.45 करोड़ मतदाता हैं। इस अनुपात में युवाओं का मत-प्रतिषत 20 फीसदी बैठता है। जिसका असर 350 लोकसभा क्षेत्रों में है।
हवा का रूख जो भी हो, इस युवा मतदाता समूह की अपनी अहमियत जरूर है। विकास,सुषासन, शिक्षा, रोजगार और राश्ट्र्रबोध जैसे मुद्दे जहां इसे सकारात्मक मतदान के लिए बाध्य कर रहे हैं। वहीं मंहगाई,भश्ट्रचार,घोटाले और सीमाओं पर घुसपैठ व सैनिकों के सिर कलम कर ले जाने जैसी अमानुशिक घटनाएं इस मतदाता समूह में राश्ट्र्रबोध जगाकर देष प्रेम की पट्टी पढ़ाने का काम भी कर रही है। हालांकि यही वे मुद्दे हैं,जो हर मतदाता समूह को प्रभावित करने वाले हैं। युवा मतदाता रूढि़वादी सांप्रदायिक और जातीय जकड़बंदी से जुदा सोच रखता हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 28 सीटों पर जीत इसी मतदाता के बूते मिली थी। अखिल भारतीय फलक पर जो राजनीतिक सर्वेक्षण आ रहे है,उनमें युवाओं की स्वीकार्यता नरेंद्र मोदी के प्रति ज्यादा दिखाई देती है। क्योंकि संघ, भाजपा और व्यापारिक घरानों के कुशल चुनावी मीडिया प्रबंधन ने मोदी को प्रधानमंत्री के संभावित दावेदारों में अग्रणी सफल प्रषासक और विकासवादी व्यक्त्वि के रूप में घोषित कर दिया है। लिहाजा बढ़े मतदान का एक कारण मोदी भी हैं।
आयोग की सख्ती से चुनाव गुंडा-षक्ति से मुक्त हुए हैं। इस कारण मतदान केंद्रो पर लूटपाट और खून-खराबे के जो हालात बन जाते थे,उनका कमोबेश खात्मा हो गया है। भय-विहीन स्थिति के चलते आम मतदाता निसंकोच मतदान करने लगा है। नोटा के विकल्प ने भी मतदाता को आकर्शित किया है। लिहाजा मौजूदा उम्मीदवारों से निराष मतदाता नकारात्मक मत प्रयोग के लिए घरों से निकलने लगे हैं। जाहिर है, अतिवादी ताकतें कमजोर पड़ रही हैं। सजायाभ्ताओं के चुनाव लड़ने के प्रतिबंध से भी चुनाव प्रक्रिया साफ-सुथरी व भयमुक्त हुई है। इस कारण पिछले पांच साल के भीतर जितने भी चुनाव हुए हैं,उन सभी में मतदान का प्रतिशत बढ़ा है।
मतदान के अनुकूल बना यह वातावण लोकतंत्र के लिए षुभ संकेत हैं। यह वजह कालांतर में अल्पसंख्यक समुदाओं व जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से मुक्ति दिलाएगा। दलों को भी तृश्टिकरण की राजनीति छुटकारा मिलेगा। बढ़ा मतदान उन सब मिथकों को तोड़ देगा जो तुश्टिकरण के कारक बने हुए हैं। जाहिर है, मतदाताओं के ध्रुवीकरण की राजनीति को पलीता लगेगा। नतीजतन संप्रदाय और जाति विशेष की राजनीति करने वाले मुलायम सिंह जैसे नेताओं को वोट ललचाने की दृश्टि से यह बयान नहीं देना पड़ेगा कि मुबंई के शक्ति मिल के दुष्कर्मियों को जो फांसी हुई है, वह गलत है, क्योंकि सजा पाए आरोपी मुस्लिम हैं। वोट हथियाने की यह अनैतिक पराकाष्ठा का चरम है। जो शर्मनाक है।
खबारिया चैनलों ने सोलहवीं लोकसभा चुनाव प्रक्रिया को लंबा खींचा है। यह पिछले एक-डेढ़ साल से मोदी बनाम राहुल के बहाने प्रधानमंत्री थोपने की अनर्गल बहसों में जारी है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद इसमें अरविंद केजरीवाल भी शामिल हो गए। इन्हीं बहसों ने बहुदलीय संसदीय प्रणाली को व्यक्ति केंद्रित करने का काम किया है। इन बहसों से सहमत या असहमत होना अलग बात है,लेकिन बहसों ने मतदाता को मतदान केंद्रो तक धकेलने को जरूर प्रोत्साहित किया है। सोशल साइडस पर उम्मीदवारों को लेकर चली होड़ ने भी मतदान की कागजी प्रक्रिया को आभासी प्रक्रिया में बदलने का काम किया है।
बढ़ा मतदान किस दल के फेवर में है, इसका एकाएक आकलन करना मुश्किल है, लेकिन बदलाव का स्पष्ट संकेत इसमें अंतनिर्हित है। यदि मुकाबला सीधा दो दलों के बीच होता तो इसे सत्ता पक्ष के विरूद्ध माना जा सकता था। आप के हस्तक्षेप ने दिल्ली उत्तर प्रदेश और हरियाणा में मुकाबले को बहुकोणीय बना दिया है। लिहाजा राजनीतिक घोषणा-पत्र के साथ जो भी दल चुनावी मैदान में हैं,उन्हें महज वोट कटवा दल कहकर नकारा नहीं जा सकता है। बहुकोणीय गोलबंदियों के चलते भी मतदान बढ़ा है। जाहिर है, बहुकोणीय मुकाबला जटिल होता है, इसके निष्कर्ष निकालना मुश्किल हैं। इस चुनाव में केवल राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी नहीं रहेंगे, स्थानीय मुद्दों का भी असर दिखेगा। क्षेत्रीय दल भी सोलहवीं लोकसभा में अधिकतम सीटों के साथ उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं, इसलिए हर स्तर पर ये दल भी मतदाता को लुभाकर ईवीएम का बटन दबाने को बाध्य कर रहे हैं। बहरहाल, इस चुनावी यज्ञ में जितनी ज्यादा आहुतियां पड़ेंगी, लोकतंत्र उतना ही पारदर्षी और मजबूत होगा।

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