Home साहित्‍य लेख राम रावण युद्ध से मनुष्यों को परस्पर व्यवहार की शिक्षा मिलती है

राम रावण युद्ध से मनुष्यों को परस्पर व्यवहार की शिक्षा मिलती है

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-मनमोहन कुमार आर्य

               वैदिक धर्म व सनातन धर्म दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। सृष्टि का आरम्भ 1,96,08,53,120 वर्ष पूर्व हुआ था। त्रेता युग में राम चन्द्र जी आर्यावर्त में जन्म थे। वह राजपुत्र थे। उनकी राजधानी का नाम अयोध्या था। उनके पिता दशरथ चक्रवर्ती राजा थे परन्तु उनमें कुछ शिथिलतायें थी जिस कारण लंका का राजा रावण कौशल देश को चुनौती देता रहता था। राम चन्द्र जी की शिक्षा व दीक्षा वेदों पर आधारित थी और ईश्वर एवं वेद मर्मज्ञ ऋषियों के सान्निध्य में हुई थी। वह यजुर्वेद के मर्मज्ञ विद्वान थे। क्षत्रिय होने के कारण उनको राजा व प्रजा के कर्तव्यों सहित प्रजा पालन के साधनों व उपायों का पूरा-पूरा ज्ञान था। राजा राम आदर्श राजा थे। गुणों वा चरित्र की दृष्टि उन जैसा राजा शायद आज तक विश्व में उत्पन्न नहीं हुआ। राम का जीवन आदर्श व मर्यादित होने के कारण संस्कृत के आद्य कवि व महर्षि बाल्मीकि जी ने उन का जीवन-चरित्र ‘‘रामायण” नाम से लिखा था जो लाखों वर्ष बीत जाने पर आज भी श्रद्धा से पढ़ा व सुना जाता है और सभ्य जातियां व लोग रामायण व राम के जीवन से शिक्षा लेकर अपने जीवन व चरित्र का सुधार करते हैं।

               राम के गुणों से समस्त आर्य हिन्दू जाति सुपरिचित है और उनके गुणों के कारण उनको मर्यादा पुरुषोत्तम राम सहित कुछ वैदिक सिद्धान्तों व परम्पराओं से अनभिज्ञ लोग उन्हें भगवान व ईश्वर तक की उपमा देते हैं व उनकी मूर्ति की पूजा तक करते हैं। वेद मूर्तिपूजा का ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति’ कह कर खण्डन करते हैं। मूर्ति पूजा का वेदों में कहीं भी विधान नहीं है। श्री राम एक ऐतिहासिक पुरुष थे। उन्होंने वेदों को पढ़कर यजुर्वेद व अन्य सभी वेदों के गुणों को अपने जीवन व चरित्र में धारण किया था। वह एक योग्य व सफल राजा थे। वह नीति निपुण थे। उनके जमाने में न तो अल्पसंख्यकवाद था न कृत्रिम सेकुरिज्म। हो भी नहीं सकता था क्योंकि उस युग में देश में बड़ी संख्या में ऋषिगण हुआ करते थे जो सत्य धर्म व कर्तव्यों को ही मनुष्य का धर्म मानते थे और सत्य की परीक्षा के लिये उनके पास न्याय दर्शन सहित वेद एवं शुद्ध मनुस्मृति का ज्ञान था। वेदों के होते हुए और साथ ही वेदों के सत्य अर्थों के जानने वाले ऋषियों के होते हुए कोई मनुष्य अविद्यायुक्त मत चला भी नहीं सकता था जैसा कि महाभारत युद्ध के बाद हमारे देश आर्यावर्त वा भारत में हुआ। ऋषि दयानन्द ने सभी अवैदिक मतों का उल्लेख कर उनके सत्यासत्य की समीक्षा अपने अमर व विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत की है जिससे वेद व वेदानुकूल ग्रन्थ ही सत्य धर्म के ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। वेद विरुद्ध सभी मान्यतायें त्याज्य हैं जिनसे मनुष्य-मनुष्य में भेदभाव व हिंसा आदि अनुचित व्यवहार अनेक मतों के अनुयायी एक दूसरे के प्रति करते हैं। आश्चर्य होता है कि आज के आधुनिक व वैज्ञानिक युग में भी लोग अज्ञान, अन्धविश्वास व मिथ्या परम्पराओं में फंसे हुए हैं। वह न केवल उनको मानते ही हैं अपितु उनके वशीभूत होकर अनेक निकृष्ट कार्य हिंसा, हत्या, आगजनी, देश विरोध, मनुष्यता व मानवता का विरोध तथा सत्य का विरोध तक करते हैं। इसके पीछे लोगों की बुद्धि की मलिनता है जिसको अज्ञानी व स्वार्थी लोग प्रचारित करते कराते हैं।

               मर्यादा पुरुषोत्तम राम चन्द्र जी अपनी माता कैकेयी की आज्ञा से 14 वर्ष के लिये वन में गये थे। उनके साथ उनकी धर्मपत्नी माता सीता व अनुज भाई लक्ष्मण भी गये थे। वन में पहुंचने पर राम को ऋषि-मुनियों से ज्ञात हुआ कि वन में असभ्य व हिंसक आचरण करने वाले राक्षस लोग ऋषि मुनियों को कष्ट देते हैं और उनकी हत्या तक कर देते हैं। राम को ईश्वर की उपासना में रत लीन रहने वाले सज्जन साधु पुरुषों की हत्या हिंसा स्वीकार्य नहीं थी। उन्होंने विवेक पूर्ण निर्णय लिया। राक्षसों को अवसर था कि वह अपने देश में भाग जाते और हिंसा का त्याग कर देते। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। संस्कृत की कहावत हैविनाश काले विपरीत बुद्धि यह शायद चाणक्य जी का वचन है। इसका तात्पर्य है कि जब मनुष्य के विनाश का समय आता है तो उसकी बुद्धि विपरीत कार्य करती है जो उसका सर्वनाश करती है। राक्षसों ने पहले व बाद में भी अधर्म करना नहीं छोड़ा। इस अधर्म व अन्यायोचित आचरण के कारण वनों में रहने वाले सहस्रों राक्षसों का वैदिक मर्यादाओं के पालक राम के द्वारा वध हुआ। इससे सर्वत्र शान्ति स्थापित हुई। वनों में जो उपद्रव होते थे वह बन्द हो गए। ऋषि दयानन्द ने भी मनुष्य की परिभाषा करते हुए सज्जन, साधु, निर्बल व धार्मिक पुरुषों की रक्षा तथा दुर्जनों, दुष्टों, अधर्मियों, अन्याय व अत्याचारियों के साथ अप्रियाचरण व उनके बल की हानि का विधान किया है। दुर्जनों का विरोध करना कायरता का लक्षण होता है। इससे दुष्ट लोगों में हिंसा सज्जनों पुरुषों को कष्ट देने की प्रवृत्ति बढ़ती है। राम इस बात को बहुत अच्छी तरह से जानते थे। उन्होंने सज्जन व निर्बलों को सुख व उनकी रक्षा का उपाय किया और इससे निश्चय ही वनों को राक्षसों से शून्य कर दिया जिससे सभी प्रकार के उपद्रव व अशान्ति समाप्त हो गई थी।

               राम व रावण का युद्ध ऋषि बाल्मीकि जी ने अयोध्या काण्ड में वर्णित किया है। राम ने रावण को सुधरने के अवसर दिये परन्तु जब वह अपनी वीरता व मलिन बुद्धि के मद में चूर होकर राम की अच्छी सलाह को न मानकर उनका भी विरोध करने लगा तो उसका परिणाम राम ने उसको यमलोक पहुंचा कर किया। यह हम जानते ही हैं कि किसी सज्जन पुरुष की पत्नी का अपहरण दुष्ट व नीच कर्म होता है। आज के समाज में कुछ दुष्ट प्रवृत्ति के लोग ऐसे कार्य करते रहते हैं। इसके अनेक कारण हैं। इस विषय की समीक्षा इस लेख का विषय नहीं है। ऐसे दुष्ट लोगों को इस पाप से मुक्त कराने के लिये केवल एक ही उपाय होता है कि उनको दण्ड का भय दिखाया जाये। दण्ड भी वही उचित होता है जो शीघ्र दिया जाये और पाप के अनुपात में हो। यदि किसी ने किसी निर्दोष का वध किया है तो उसको शीघ्र उसी प्रकार की मौत शासन की व्यवस्था से मिले तभी ऐसे अपराधों व प्रवृत्तियों पर रोक लग सकती है। राम ने रावण को, जो कि अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा था, उसको उसके अनुचित, पापपूर्ण कर्म की उचित सजा दी। मरते समय रावण ने भी अपनी गलतियों को स्वीकार किया, ऐसा माना जाता है। रावण आजकल के लोगों की तरह अज्ञानी नहीं था। वह वेद व सत्य व असत्य को जानता था। पाप में प्रवृत्ति ने उसका प्रायः पूरा परिवार ही नष्ट कर दिया।

               राम ने रावण के प्रति जो युद्ध किया वह अपने समय में देशदेशान्तर के लोगों को शिक्षा देने सहित अपने पौरुष को प्रदर्शित करने के लिये किया। इससे इतिहास बना और आज देशदेशान्तर तक उनका गुणगान हो रहा है। उन्होंने युद्ध में भी मर्यादाओं का पालन किया। आजकल तो शत्रु देश हों या अन्य दुष्ट प्रवृत्ति के व्यक्ति, उनसे मर्यादाओं की अपेक्षा करना मूर्खता ही कही जा सकती है। पाकिस्तान विगत 70 वर्षों से भारत के विरुद्ध छद्म युद्ध कर रहा है। वह भारत में अवैध लोगों व आतंकवादियों को भेज कर अस्थिरता उत्पन्न करता है। वह अपने मनोरथ में कुछ सीमा तक सफल भी रहा है। पाकिस्तान में हिन्दू व अन्य अल्पसंख्यकों की जनसंख्या निरन्तर घटती रही है। वहां से समय समय पर मुस्लिमेतर मतों के लोगों पर अत्याचारों के समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। लोग जान बचाकर भारत आते हैं और शरण मांगते हैं। मानवता के आधार पर भारत का कर्तव्य है कि उन्हें भारत की नागरिकता दे। भारत सरकार इस पर उचित संशोधन भी किया है। वह साधुवाद की पात्र है। वहां से आये लोग हमारे ही भाई है। परोपकार धर्म का एक मुख्य अंग है। बंगला देश से भी अवैध घुसपैठिये भारत में आते हैं। इसके पीछे भी एक षडयन्त्र काम करता है। भारत के कुछ राजनीतिक दल सत्ता प्राप्ति के लिये उन अवैध घुसपैठियों का समर्थन करते हैं जिससे देश की स्थिरता व उन्नति को हानि होती है और भारत के मूल देशवासी अभावों का जीवन जीते हैं। यही कारण है कि कुछ राजनीतिक नेताओं और कुछ येन केन प्रकारेण जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति के कारण हमारे देश से गरीबी दूर नहीं हो सकी। आज भी करोड़ों लोगों को वस्त्र और चिकित्सा उपलब्ध नहीं होती। करोड़ो लोगों को दो समय सूखी रोटी भी पेट भरने के लिये भी नहीं मिलती है। अतः मनुष्यों को विवेकशील बनकर रामायण, वेद, महाभारत सहित मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, विदुरनीति आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर उनकी शिक्षाओं का अनुकरण करना चाहिये। सरकार को इन मानवीय ग्रन्थों से सहायता लेकर इनके अनुसार नियम व कानून बनाने चाहिये जिससे देश का वर्तमान एवं भविष्य सुरक्षित रहे और कोई व्यक्ति देश में अपराध व हिंसा आदि कार्यों को करने का विचार न कर सके। सभी देशों में यह सन्देश जाना चाहिये कि भारत एक सुदृण देश है और भारत के विरुद्ध विचार, प्रचार व छद्म युद्ध करने वाले देश अपनी ही हानि करेंगे। इन लक्ष्यों की पूर्ति हम रामायण सहित वेद और महाभारत जैसे ग्रन्थों के प्रसंगों को अपना कर व उनका अनुकरण कर कर सकते हैं।

               मनुष्य के लिये सबसे अच्छा व्यवहार यथायोग्य व्यवहार है। हम जिससे छोटे से छोटा व्यवहार करें उसकी प्रवृत्ति व इतिहास आदि को जान लें। हमें सभी मतों के ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये जिससे हम सभी लोगों के व्यवहार व प्रवृत्तियों को समझ सकें। यथायोग्य व्यवहार के साथ सबसे प्रेम व धर्म अर्थात् गुण-दोष के अनुसार व्यवहार करना चाहिये। एक कहावत है शठे शाठयम् समाचरेत इसका अर्थ है कि दुष्टों से दुष्टता का व्यवहार ही उचित होता है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो दुष्ट लोग हमारा व हमारी जाति का अस्तित्व ही मिटा सकते हैं। इसके लिये अपने देश व संसार के अन्य देशों के इतिहास पर दृष्टि डालनी चाहिये। हमें राम व कृष्ण सहित ऋषि दयानन्द जी के जीवन को पढ़ना चाहिये और उनके जीवन से शिक्षा वा प्रेरणा लेकर अपने व्यवहार को वेदानुकूल, राम व कृष्ण सहित दयानन्द जी की शिक्षा के अनुसार बनाना चाहिये। इससे हमें लाभ होगा। हमारे देश व समाज में शान्ति रहेगी। हमारा धर्म व संस्कृति सुरक्षित रह सकती है। यदि हम उचित व्यवहार नहीं करेंगे तो हम अपना व अपनी आने वाली सन्ततियों के हितों को हानि पहुंचाने वाले हो सकते हैं। हमें प्रत्येक कार्य सत्य और असत्य का विचार करके करना चाहिये। सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग तथा सत्य को मानना व मनवाना और असत्य को छोड़ना व छुड़वाना सज्जन व साधु मनुष्यों का कर्तव्य है। ओ३म् शम्। 

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