महत्वपूर्ण लेख समाज

पहाड़ में विकास कार्य करने का तरीका बदलना होगा

पंकज सिंह बिष्ट

 

उत्तराखंड में अलग राज्य बनने के पूर्व से ही विकास कार्य होते आ रहे हैं। किन्तु इतने समय के बाद भी ग्रामीण आजीविका एवं रोजगार की स्थिति में बहुत बढ़ा सुधार नहीं आया है। गौर किया जाय तो स्थिति पूर्व के मुकाबले बेहतर हुई ऐसा कहना खुद को झूठी तसल्ली देना ही होगा। अगर वास्तव में विकास हुआ है तो आज लोग अपने गांवों से पलायन क्यों कर रहे हैं?  गांव विरान होते जा रहे हैं। क्या इसी को विकास कहेंगे की लोग अपनी जड़ों से ही दूर जाने लगें? आंखिर इस विकास कार्यों में निरन्तरता का अभाव क्यों  है?लगभग 90 के दशक से पहाड़ी क्षेत्रों में पेशेवर ऐजेंसियों ने सामाजिक विकास के क्षेत्र में कार्य प्रारंभ किया। वेसे तो सरकार के साथ ही गैर सरकारी विकास ऐजेंसियों ने लगभग50, 60 के दशक से ही अपने विकास कार्यों को विस्तार देना शुरू कर दिया था। ग्रामीण विकास के हर क्षेत्र में कार्य किये गये। हरित क्रान्ति से लेकर गांव- गांव तक सड़क पहुंचाने, हर गांव में स्कूल खोलने, प्रत्येक व्यक्ति को बैंकिग सेवाओं से जोड़ने जैसे विकास कार्य किये गये। लेकिन कृषि क्षेत्र सिमट रहा है, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की स्थिति खराब है, सड़के युवाओं को महानगरों की ओर तो ले जाती हैं किन्तु वापसी करना वह उचित नहीं समझते।

असल में विकास कार्य हेतु योजनाओं का निर्माण उस खास क्षेत्र की भौगोलिग एवं पर्यावरणीय संसाधनों की स्थिति के आधार पर किया जाना चाहिए। जबकि ऐसा होता नहीं है। कुंमाऊ क्षेत्र के परिपेक्ष में इसे समझा जा सकता है।अध्ययन से पता चलता है कि, यहां दो प्रकार के भौगोलिक क्षेत्र हैं, एक जहां बांज और चौड़े पत्तेदार पेड़ों वाले जंगलों के आस पास लोग बसे हैं। जैसे नैनीताल जनपद में धारी और रामगढ़ ब्लाक की गागर से मुक्तेश्वर वाली बैल्ट (धारों वाला क्षेत्र) जहां की जलवालु ठंडी है। यहां बांज और बुरांश के जंगल है। यह क्षेत्र आलू, गोभी, सेब, नाशपाती,जैसी फसलों का उत्पादन क्षेत्र रहा है। जिन्हें नकदी फसलों की श्रेणी में रखा जाता है। साथ ही ठंडी जलवायु, प्रकृतिक सुन्दरता एवं हिमालय दर्शन क्षेत्र होने के कारण पर्यटन की दृष्टि से भी अनुकूल क्षेत्र है। सर्दी के मौसम में यहां बर्फबारी भी होती है।दूसरा क्षेत्र अल्मोड़ा जनपद का दन्या वाला क्षेत्र है। यह क्षेत्र नैनीताल जनपद के रामगढ़ और धारी ब्लाक के क्षेत्र के मुकाबले कम ऊंचाई वाला क्षेत्र है। इस क्षेत्र में चीड़ के जंगल पायें जाते हैं, व जलवायु भी अपेक्षाकृत कुछ गरम है। गांव के लोगों के पास पर्याप्त जमीने हैं। कुछ हिस्सों में लोगों के पास सिंचित ज़मीने भी हैं। यहां लोग मुख्यतः धान, गेहूं, व दालों की खेती किया करते थे। फसल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा स्वयं के प्रयोग के लिए रख लिया जाता था। पशु पालन इस क्षेत्र के लोगों की दिनचर्या का अभिन्न अंग हुआ करता था।पिछले ढाई दशकों में उक्त दोनों ही क्षेत्रों में काफी विकास कार्य हुये लेकिन ग्रामीण विकास की स्थिति काफी दयनीय बनी हुई है। जहां नैनीताल जनपद के धारी और रामगढ़ ब्लाक के लोगों द्वारा अपनी कृषि योग्य जमीनों का एक बड़ा भाग बेचा गया है। जमीनों को बेचने का यह कार्य स्थानीय प्रभावी लोगों एवं प्रापर्टी डीलरों द्वारा शुरू किया गया। जिन्होंने पहले खुद ज़मीनें खरीदी और बाद में महंगे दामों में बाहरी लोगों को बेचा गया। इन बिक गयी ज़मीनों पर आलीशान होटलों का निर्माण कराया जा रहा है। जिनमें पयर्टकों के ठहरने की व्यवस्थायें की जाती हैं या धनी लोगों द्वारा अपने रहने के लिए कोठियां बनवा ली जाती हैं।धानाचूली धारी विकास खण्ड का 350 परिवारों की आबादी वाला गाँव है। जिसकी जनसंख्या लगभग 1500 है। पिछले 17 सालों में गाँव के लगभग 25 प्रतिशत परिवारों ने अपनी कृषि योग्य ज़मीनें बेची हैं। कई लोग अपनी सारी ज़मीनों को बेच चुके हैं यह सिलसिला अभी भी जारी है। लगभग यही स्थिति क्षेत्र के अन्य गाँवों की भी है।धानाचूली निवासी डॉ. नारायण सिंह बिष्ट (बागवानी विशेषज्ञ एवं प्रोजेक्ट मैंनेजर) कहते हैं कि ‘‘मैंने इस क्षेत्र में किये गये अपने अध्ययन में पाया कि धारी क्षेत्र में जो ज़मीनें बिकी हैं उससे न केवल हमने अपनी आजीविका को खतरे में डाला है, साथ ही हमने यहाँ पैदा होने वाले सेब और आलू के जीन बैंक को भी खत्म कर दिया है जो हिमाचल प्रदेश की अपेक्षा काफी बड़ा था। लोगों ने ज़मीने बेच कर प्राप्त पूंजी को शराब व फिजूल खर्ची में बर्बाद कर दिया।’’वही अल्मोड़ा जनपद के दन्या क्षेत्र के लोगों ने खेती को छोड़ बच्चों की शिक्षा या रोजगार के लिए शहरों की तरफ रूख किया है। उनका तर्क है कि ‘‘अब खेती में वह बात नहीं रही जो पहले थी, अब न तो पहले जैसा उत्पादन होता है, उल्टा जंगली जानवरों का नुकसान अलग होता है, इसलिए खेती करना छोड़ रहे हैं’’। अब लोगों की रूचि खेती के प्रति कम हो गयी है। लोग अपने बच्चों को यह कहते देखे गये हैं कि ‘‘इस खेती में क्या रखा है? थोड़ा पढ़ा लिख लो और इस काबिल बन जाओं कि, कही नौकरी करके थोड़ा कमाने लायक हो जाओं’’।कारण साफ है, पर्वतीय क्षेत्रों में जो भी सेवायें या योजनायें सरकार या अन्य के माध्यम से चलाई गयी, वह जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप विस्तृत प्रभाव पैदा करने में असफल रहीं। परिणाम स्वरूप पलायन में तेजी आयी।अपनी भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार धारी, रामगढ़ और दन्यां धौलादेवी क्षेत्र दोनों स्थानों में पलायन का स्परूप भी भिन्न दिखता है। जहां धारी व रामगढ़ क्षेत्र में आंतरिक पलायल जैसे अपनी कृषि जमीनों को बेचने वाले लोग उन्ही जमीनों में बने होटलों व कोठियों में नौकरी करने लगे हैं या स्थानीय पर्यटन व्यवसाय से जुड़ गये हैं। वही दन्यां धौलादेवी क्षेत्र के लोग शहरों एवं महानगरों की ओर पलायन कर रहे हैं, या ऐसे स्थानों में बस रहे हैं जहां उन्हें कुछ बेहतर संसाधन दिख रहे हैं जैसे सड़कों के किनारें या नजदीकी कस्बों में।पर्वतीय क्षेत्र में कृषि के परिपेक्ष में यदि समस्या पर गौर किया जाये तो मालूम होता है कि युवाओं की कृषि कार्य में रूचि नहीं है, वह नौकरी करना चाहते हैं। जलवायु वरिवर्तन, अत्यधिक बारिश या सूखा पड़ना जैसे प्राकृतिक कारक खेती को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। जंगली जानवरों का नुकसान एक और बड़ी समस्या है।रोजगार के परिपेक्ष में यदि देखा जाय तों युवाओं की रूचि नौकरी करने में अधिक है, बतौर इसके कि अपना कोई स्वरोजगार किया जाय। वह जीवन में कम मेहनत और जोखिम उठा कर अधिक धन कमाना चाहते हैं और जो लोग अभी भी खेती कर रहे हैं उन्हे अपने फसल उत्पादों का सही दाम नहीं मिल पाता तो कई बार किसानों के पास बाजार की मांग के मुताबिक गुणवत्तापूर्ण और आवश्यक मात्रा में उत्पादन करने की विशेषज्ञता का न होना एक और चुनौती है।इन क्षेत्रों में विकास कार्य को वर्षों से एक ही तरीके से किया जाता रहा है। उसमें किसी प्रकार का कोई परिवर्तन या नवाचार देखने को नहीं मिलता। योजना निर्माण में किसी क्षेत्र की स्थिति को ध्यान में रख कर योजना का निर्माण होता हो यह भी दावे से कहना मुश्किल है।इतना कुछ घटने के बाद भी पर्वतीय क्षेत्रों में कुछ लोग अपनी सामर्थ के अनुसार स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए जहां धारी व रामगढ़ जैसे क्षेत्र के लोग नकदी फसलों आलू, गोभी व फलों के साथ ही फूलों की खेती, जड़ी-बूटी उत्पादन व स्थानीय पर्यटन को अपना रहे हैं। वही दूसरी ओर धौलादेवी दन्या क्षेत्र के लोग सड़कों और नज़दीकी कस्बों में बस कर विभिन्न छोटे- छोटे व्यवसायों को अपना रहे हैं। यदि पहाड़ के भविष्य को बचाना है तो इस प्रकार के लोगों को सहायता प्रदान करनी होगी, ताकि वह स्वयं को स्थापित कर सकें।यदि विकास की संभावनाओं की बात की जाय तो कुंमाऊ के हर क्षेत्र में विकास की अपार संभावनायें हैं। किन्तु किसी भी क्षेत्र में विकास कार्य करने से पूर्व विकास कार्य कराने वाली प्रत्येक संस्था चाहें वह सरकारी हो या गैर सरकारी सभी को संभावित परियोजना क्षेत्र का गहराई से अध्ययन करने की आवश्यकता है। उदाहरण के रूप में यदि किसी क्षेत्र में पशु पालन को लेकर योजना चलानी हो तो उस क्षेत्र में पानी व चारे की स्थिति, समुदाय का पशु पालन कार्य से जुड़ाव व स्वीकार्यता, कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता, उत्पाद के विपणन हेतु स्थानीय बाजार की संभावनाओं, समुदाय की आर्थिक स्थिति, समुदाय के सहयोग की संभावनाओं, समुदाय में लोगों के आपसी संबंध आदि बिन्दुओं का गहराई से अध्ययन कर योजना का निर्माण व क्रियांवयन किया जाना चाहिए।विकास के इस परिदृश्य के आधार पर पर्वतीय क्षेत्रों में विकास योजनाओं व कार्यों के संचालन के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों, समुदाय आधारित संगठनों के रूप में उद्यमियों के साथ मिलकर समावेशी रूप से कार्य करना होगा। ताकि बेहतर तरीके से योजनाओं का संचालन किया जा सके। इसके लिए आवश्यक है कि दोनों तरफ से पहल की जाए जिससे विकास का एक बेहतर रोडमैप तैयार किया जा सके।