संसार ने सर्वप्रथम वेदों से ही जाना ईश्वर व जीवात्मा का अस्तित्व

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मनमोहन कुमार आर्य
आज विश्व का अधिकांश भाग ईश्वर एवं जीवात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है। प्रश्न होता है कि ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान संसार को कब व कैसे प्राप्त हुआ? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की परिस्थितियों पर विचार करना पड़ता है। हम जानते हैं कि यह सृष्टि सूक्ष्म परमाणुओं से बनी है। विज्ञान बताता है कि भौतिक पदार्थ अणुओं व परमाणुओं से बने हैं। अणु परमाणुओं से मिलकर बनता है। परमाणु किसी भौतिक पदार्थ की सबसे छोटी ईकाई है। इन सभी परमाणुओं में इलेक्ट्रोन, प्रोटोन और न्यूट्रोन कण होते हैं। इन सूक्ष्म कणों से बना परमाणु कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है अपितु यह भी विभाज्य है। परमाणु के इन सूक्ष्म कणों से भी सूक्ष्म सृष्टि रचना का मूल पदार्थ है जिसे शास्त्रीय भाषा में “प्रकृति” कहा गया है। सृष्टि निर्माण के इस उपादान कारण प्रकृति से ही परमात्मा ने परमाणु बनाये और उन परमाणुओं से अणु तथा विज्ञान के नियमों के अनुसार इस सृष्टि को बनाया है। जब मनुष्य पहली बार उत्पन्न हुआ तो उस समय न तो उसके माता, पिता थे, न उनको ज्ञान देने व पढ़ाने वाला कोई आचार्य व गुरु था। उनके पास आंख, नाक, कान, मुह, त्वचा आदि इन्द्रियां होने पर भी भाषा व ज्ञान से शून्य वह सब मनुष्य बोल नहीं सकते थे। ऐसी अवस्था में उनका जीवन निर्वाह सर्वथा असम्भव था। उन्हें तत्काल ज्ञान व भाषा की आवश्यकता थी। ज्ञान भाषा में ही निहित होता है। भाषा से पृथक ज्ञान का कोई अस्तित्व नहीं होता।

अतः यह मानना पड़ता है कि कोई चेतन, ज्ञानस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वदेशी, निराकार, सर्वशक्तिमान सत्ता थी जिसने पहले इस सृष्टि की रचना की और फिर इस सृष्टि में मनुष्य आदि प्राणियों को उत्पन्न किया। यदि वह निराकार सत्ता इस सृष्टि की रचना और मनुष्यादि प्राणियों को उत्पन्न कर सकती है तो स्वाभाविक है कि वह ज्ञानवान सत्ता है और वह मनुष्यों को ज्ञान भी दे सकती है। लोग प्रश्न करते हैं कि मनुष्यों के समान ईश्वर की मुंह व कान आदि इन्द्रियां नहीं हैं, तब ईश्वर ज्ञान कैसे दे सकता है? इसका उत्तर है कि बोलने की आवश्यकता अपने से भिन्न मनुष्यों से संवाद कर ज्ञान कराने के लिए होती है। स्वयं से बातचीत व विचार एवं चिन्तन आदि किया जाये तो बोलने की आवश्यकता नहीं होती। ईश्वर नामी सत्ता मनुष्य के हृदय, मन, मस्तिष्क, बुद्धि, अन्तःकरण एवं आत्मा सहित पूरे शरीर में विद्यमान है। उसी ने शरीर के सभी अंग, प्रत्यंग वा अवयव ज्ञान प्राप्ति व उनके व्यवहार करने के उद्देश्य से ही बनाये हैं। आदि सृष्टि में ऐसा कोई साधन नहीं था कि जिससे मनुष्यों को स्वतः ज्ञान हो जाता। अतः ईश्वर ने स्वयं ही सृष्टि के आदि में मनुष्यों को परस्पर व्यवहार करने हेतु भाषा एवं सभी विषयों का आवश्यक ज्ञान दिया था। उस ज्ञान का नाम ही वेद है। यह ज्ञान ईश्वर ने जीवात्मा की आत्मा के भीतर प्रेरणा देकर स्थापित किया था। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी एवं कण-कण में विद्यमान है। वह जीवात्मा के भीतर व बाहर दोनों जगह है। ईश्वर आत्मा में ओतप्रोत है, ऐसा माना जाता है। विश्व वा ब्रह्माण्ड का कोई स्थान ऐसा नहीं है कि जहां ईश्वर विद्यमान वा व्यापक न हो। अतः ज्ञानस्वरूप परमात्मा जीवात्मा की आत्मा में अपने जीवस्थ-स्वरूप व सत्ता से आदि मनुष्यों में से चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान देता है। परम्परा से उनके नाम अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा थे। इन चार ऋषियों को एक-एक वेद का ज्ञान दिया गया था। इनको यह प्रेरणा भी की गई थी कि वह यह ज्ञान पांचवें ऋषि ब्रह्मा जी को प्रदान करें। ब्रह्मा जी ने उन चार ऋषियों से वेद ज्ञान प्राप्त किया और उसके बाद इन ऋषियों ने अन्य सभी मनुष्यों को चारों वेदों का ज्ञान वैदिक संस्कृत भाषा सहित उनकी ज्ञान ग्रहण करने की सामथ्र्य के अनुरूप कराया। यह सिद्धान्त वा मान्यता तर्क व युक्तियों सहित आप्त प्रमाणों से सिद्ध होती है। इस सिद्धान्त के विपरीत जितने विचार व मान्यतायें हैं, वह तर्कसंगत एवं व्यवहारिक सिद्ध नहीं होते।

मनुष्यों को वेदों का ज्ञान मिला तो वह जान गये कि इस संसार व समस्त प्राणियों का रचयिता एकमात्र परमात्मा है। वेदों में एक नहीं सहस्रों मन्त्र हैं जिनमें ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप सहित मनुष्यों के कर्तव्य आदि की शिक्षा का ज्ञान दिया गया है। हमें लगता है कि ब्रह्मा जी सहित अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों ने सभी मनुष्यों को वेद ज्ञान से परिचित कराया और वह सब ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप को जैसा कि वेदों में वर्णित है, जान गये थे। इस प्रथम पीढ़ी के बाद इन्हीं सक्षम व समर्थ लोगों ने इसके बाद की सन्ततियों में वेदों का प्रचार व प्रकाश जारी रखा। लोग वेदों को स्मरण व कण्ठाग्र करने लगे जिससे आरम्भ परम्परा अद्यावधि तक चली आयी है। आज भी आर्यसमाज के गुरुकुलों के अनेक विद्यार्थियों को वेद स्मरण व कण्ठ हैं। किसी को एक वेद स्मरण है तो किसी को दो भी स्मरण हैं। वेदों को स्मरण व कण्ठ करने के कारण ही वेदों का एक नाम श्रुति भी है। श्रुति का अर्थ होता है कि जिसे सुनकर स्मरण किया जाये व दूसरों को बोलकर बताया या स्मरण कराया जाये। इस प्रकार परम्परा से वेदों का ज्ञान हम सब तक पहुंचा है। हमारा सौभाग्य है कि आज हमारे घर पर चारों वेद उनके हिन्दी व अंग्रेजी अर्थों, भाष्य व टीकाओं के साथ उपलब्ध हैं। हिन्दी में तो हमारे पास अनेक विद्वानों के भाष्य है। इन भाष्यों वा टीकाओं की विशेषता यह है कि इन भाष्यों में ऋषि दयानन्द जी व विद्वानों ने वेदमन्त्र के प्रत्येक पद व शब्द का हिन्दी भाषा में अर्थ दिया है। ऋषि दयानन्द द्वारा किये गये वेदभाष्य में मन्त्रों के सभी पदों के संस्कृत व हिन्दी दोनों अर्थ प्राप्त होते हैं। 

महर्षि दयानन्द ने ही महाभारत काल के बाद पहली बार गायत्री व अन्य अनेक मन्त्रों का सत्य व व्यवहारिक अर्थ किया है। वैदिक विद्वान सायण ने चारों का संस्कृत भाषा किया व अपने अनुचर विद्वानों से कराया। उनके अर्थ केवल यज्ञपरक हैं। उन्हांेने वेदमन्त्रों के व्यवहारिक अर्थों की उपेक्षा की। ऋषि दयानन्द का वेदभाष्य महाभारतपूर्व ऋषि परम्परा के अनुकूल हाने सहित वेदमन्त्रों के व्यवहारिक एवं उपयोगी अर्थों से युक्त होने के कारण अधिक उपयोगी एवं प्रासंगिक है। ऋषि दयानन्द ने ऋषि परम्परा का निर्वहन करते हुए वेद प्रचार की दृष्टि से महत्वपूर्ण अनेक ज्ञान विज्ञान विषयक सत्य रहस्यों का उद्घाटन करने के लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थों की रचना व प्रकाश किया है जिनसे वेदों का यथार्थ अर्थ व अभिप्राय जाना जा सकता है। ऋषि दयानन्द के बाद उनके अनेक अनुयायियों पं. आर्यमुनि, पं. क्षेमकरणदास त्रिवेदी, स्वामी ब्रह्ममुनि, पं. तुलसीराम, पं. जयदेव शर्मा विद्यालंकार, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार वेदमार्तण्ड, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार आदि अनेक विद्वानों ने भी वेदभाष्य व वेद पर टीकायें लिखी हैं। मनुस्मृति, 6 दर्शन एवं 11 प्रामाणिक उपनिषदों पर भी अनेक आर्यविद्वानों की हिन्दी में टीकायें उपलब्ध हैं। वेदेतर इन सभी प्राचीन ग्रन्थों की रचना वेदों के आधार पर ही की गई है जिसमें वेदों की प्रशंसा होने के साथ वेदों के महत्व का प्रतिपादन है। वेद और इन सभी ग्रन्थों से ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश पड़ता है और आज विज्ञान के युग में भी वेद आदि इन सभी ग्रन्थों में ईश्वर व जीवात्मा का जो स्वरूप वर्णित हुआ है वह यथावत् सत्य एवं तर्क एवं युक्ति की कसोटी पर खरा है। किसी विधर्मी की यह सामथ्र्य नहीं की वह इनका खण्डन कर सके। वर्तमान में प्रचलित मत-मतानतरों के ग्रन्थों, जिनकी रचना महाभारत काल के बाद हुई, ईश्वर व जीवात्मा का वेद जैसा सत्य एवं यथार्थ स्वरूप उपलब्ध नहीं होता। सभी मत, पंथों के ग्रन्थ अनेक भ्रान्तियों व मिथ्या तथ्यों से युक्त हैं। यही कारण है कि वह अपने धर्मग्रन्थों का अन्य मतों, मुख्यतः आर्यसमाजी वैदिक धर्मियों में, प्रचार नहीं करते क्योंकि आर्यसमाज सत्य के निर्णयार्थ उन्हें शास्त्रार्थ व सत्यासत्य के निर्णय के लिए गोष्ठी आदि करने की चुनौती देता है। 

हम यहां दो वेदमंत्रों के अर्थ प्रस्तुत कर रहे हैं जिनसे ईश्वर के स्वरूप का मनुष्यों वा जीवात्माओं को उपदेश है। यजुर्वेद के 40/8 मंत्र ‘स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमास्नारिम् शुद्धमपापविद्धम्’ में ईश्वर ने बताया है कि ईश्वर सब पदार्थों में व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् जो शुद्ध, सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध, परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है। वह कभी शरीर धारण व जन्म नहीं लेता, जिस में छिद्र नहीं होता, नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता, जिस में क्लेश, दुःख, अज्ञान कभी नहीं होता इत्यादि। यजुर्वेद के ही 13/4 मन्त्र ‘हिरण्यगर्भः समवत्र्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।’ में बताया गया है कि ईश्वर सृष्टि के पूर्व सब सूर्यादि तेज व प्रकाश देने वाले लोकों का उत्पत्ति स्थान, आधार और जो कुछ उत्पन्न है, हुआ था और होगा उसका स्वामी था, है और होगा। उस सुखस्वरूप परमात्मा ही की भक्ति सभी मनुष्य अति प्रेम से किया करें। वेदों में ऐसे सहस्रों मन्त्र हैं जिनमें ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का वर्णन है। इसी प्रकार से जीवात्मा व प्रकृति के स्वरूप का उल्लेख व चर्चा भी वेदों में मिलती है। वेद सृष्टि के आदि काल में प्रथम पीढ़ी के ऋषि व मनुष्यों को प्रदान किये गये थे। वेदों में ईश्वर व जीवात्मा सहित संसार के सभी पदार्थों का प्रामाणिक वर्णन है। वेदों के अनुसार जीवात्मा सत्य, चेतन, एकदेशी, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, जन्म-मरण धर्मा, कर्मों का कर्ता एवं उनके फलों का भोक्ता, वेदज्ञान प्राप्त करने में समर्थ तथा वेदाचरण कर आत्मोन्नति करके मोक्ष को प्राप्त होने में समर्थ है। अतः इस सृष्टि में ईश्वर व जीवात्मा सम्बन्धी विचार व इनके स्वरूप का ज्ञान वेदों से ही आया सिद्ध होता है। अन्य मतों के लोग इसे अस्वीकार नहीं करते। उनके पास इसके विपरीत कोई तथ्य भी नहीं है। विज्ञान, तर्क, युक्ति के आधार पर भी वेद वर्णित ज्ञान सत्य है एवं सबके लिए ग्रहण करने योग्य है। जो वेदों के इस ज्ञान को नहीं मानते, उसमें दोष उन लोगों की अविद्या व वेद ज्ञान से दूरी सहित अविद्या के ग्रन्थों से निकटता है। यदि संसार के सभी लोग व वैज्ञानिक अपने पूर्वाग्रहों को दूर कर वेदों का निष्पक्ष व राग द्वेष से रहित होकर अध्ययन करें तो उन्हें वेदों की एक-एक बात सत्य सिद्ध होगी जैसा कि सृष्टि के इतिहास में उच्च मेधा बुद्धि सम्पन्न ऋषि मुनि विगत 1.96 अरब वर्षों से मानते चले आये हैं। अतः संसार में ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान वेदों से ही फैला है। ईश्वर व जीवात्मा से इतर समस्त ज्ञान, संस्कृत भाषा सहित, वेदों से ही प्रकाशित व प्रचारित हुआ है। सारा संसार वेद, वेदभाषा और इस देश के ऋषि मुनियों का ऋणी हैं। यदि यह सब न होते और ऋषियों ने इनकी रक्षा व प्रचार न किया होता तो आज संसार में ज्ञान विज्ञान का प्रकाश न होता। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।      

1 COMMENT

  1. बहुत ही ज्ञानवर्धक धर्म-अध्यात्म निबंध, संसार ने सर्वप्रथम वेदों से ही जाना ईश्वर व जीवात्मा का अस्तित्व, के लिए श्री मनमोहन आर्य जी को मेरा साधुवाद| वेदों के प्रचार विस्तार हेतु वेद-ज्ञान को
    सभी भारतीय-मूल भाषाओं में प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिए ताकि बचपन से ही विद्यार्थियों में प्राचीन भारतीय ग्रंथों के लिए रुचि बन पाए और वे जीवन में परिस्थिति-अनुसार उच्च ज्ञान ग्रहण व वेदाचरण का पालन कर पाएं| धन्यवाद|

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