फिर जंगल का राजा, शेर कैसे ? 

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  तनवीर जाफ़री 

संभवतः सहस्त्राब्दियों से यह विश्वस्तरीय धारणा चली आ रही है कि शेर ही जंगल का राजा होता है। परन्तु इंटरनेट और सूचना प्रौद्योगिकी के वर्तमान आधुनिक युग ने ऐसी तमाम धारणाओं से पर्दे उठा दिए हैं जो केवल धारणाओं पर ही आधारित थीं। वैसी ही एक धारणा है शेर को ‘वनराज’ समझना। शेर ने हमारे देवी देवताओं,महापुरुषों,धर्माधिकारियों यहाँ तक कि सामाजिक क्षेत्रों में भी अपनी गहरी छाप छोड़ी है। तभी कोई अपना नाम शेर सिंह रखता है तो कोई वर्ग विशेष ही स्वयं को ‘सिंह ‘ कहलवाकर गौरवान्वित महसूस करता है। किसी को शेर ए ख़ुदा कहा जाता है तो कोई शेर मुहम्मद या शेर ख़ान पुकारा जाता है। कहीं सिंह सजाने का ज़िक्र मिलता है तो कहीं देवी देवताओं की सवारी के रूप में नज़र आता है। कहीं लायंस क्लब की शान है तो कहीं लायंस सफ़ारी के रूप में आकर्षण। नानी दादी के कहानी क़िस्सों में दो शताब्दियों से शेर ही मुख्य पात्र रहा करता था। गोया सिंह या शेर के प्रभाव से समाज का शायद कोई भी वर्ग अछूता नहीं है। दुनिया के चिड़ियाघरों में भी सब  से अधिक दर्शक शेर के बाड़े के पास ही खड़े होकर शेर को निहारते नज़र आते हैं।

                                              सवाल यह है कि हमारे पूर्वजों द्वारा आख़िर इसकी किन विशेषताओं के आधार पर इसे जंगल का राजा या वनराज घोषित किया गया? जैसा कि विगत दो दशकों से मैंने शेर से सम्बंधित हज़ारों वीडिओज़ उसके स्वभाव व उसके विषय में अध्ययन करने के नज़रिये से देखीं ,उन्हें देखने के बाद मैं तो केवल एक ही निष्कर्ष पर पहुंचा कि शेर के पास आक्रामक व वहशी होने के सिवा दूसरी कोई भी विशेषता नहीं है। और अगर ख़ुदा न ख़्वास्ता शिकार भी अपनी जान की परवाह किये बिना पलट कर इनपर आक्रामक हो गया तो वनराज का पूरा परिवार अपनी अपनी जान बचाकर मीलों दूर भागता दिखाई देता है। आप यू ट्यूब पर देखें तो कहीं मिलेगा कि ‘वनराज ‘ को भैंसें सींग से उछाल कर जान से मार रही हैं और इनके पूरे झुण्ड को मीलों दूर दौड़ा कर भगा रही हैं। किस बात के वनराज ? कभी हाथी कभी दरयाई घोड़ा तो कभी गेंडा इन्हें इनकी इनकी औक़ात बतादेते हैं। कभी लकड़ बग्घे इनपर हमलावर होते दिखाई देते हैं तो कभी जंगली कुत्ते इन्हें नोच नोच कर इनकी ‘स्वयंभू बादशाहत’ मिटटी में मिला देते हैं। हद तो यह कि ज़ेबरा व ज़िराफ़ जैसे शाकाहारी व बिना सींग के जीव भी इनके मुंह पर दुलत्ती मार मार कर ‘राजा साहब’ के ठुड्डे तोड़ इन्हें दुम दबाकर भागने के लिये मजबूर करते दिखाई देते हैं। कभी सांप लपेटकर मार देता है तो कभी बुढ़ापे में कुत्ते से बदतर मौत मरते दिखाई देते हैं। डरपोक इतने कि राजा साहब का पूरा परिवार मिलकर ही किसी जानवर का शिकार करता है अकेले नहीं। 

                  एक आख़िरी परन्तु सबसे बड़ा उदाहरण अफ़्रीक़ा के मसाईमारा के जंगलों का — यहाँ के वनवासी लोग प्रायः केवल तीन या चार की संख्या में,हाथों में केवल भाला लेकर शेर के उस झुण्ड की तरफ़ तेज़ क़दमों से पूरे आत्मविश्वास के साथ निडर होकर बढ़ते हैं जो अपने ताज़ा मारे हुये शिकार को तेज़ी से चट करने में व्यस्त है। न तो यह वनवासी लोग चिल्लाते हैं न ही उन्हें डराने का प्रयास करते हैं। जैसे जैसे यह लोग शिकार के क़रीब आते हैं सारे शेर अपने आप डर के मारे पीछे दूर तक खिसक जाते हैं। यह लोग पूरे आत्म विश्वास से निडर होकर अपनी ज़रूरत भर का मांस उस शिकार में से निकालकर वापस आ जाते हैं। वापसी के समय ये लोग पीछे मुड़कर भी नहीं देखते।इनके वापस जाने के बाद शेर फिर अपने शिकार के क़रीब आकर उन्हें खाने में व्यस्त हो जाते हैं। ज़रा सोचिये सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में जब इंसान को शेर के जीवन के विषय में इतनी क़रीब से परिचय करा दिया गया हो और उससे जुड़ी तमाम धारणाओं व भ्रांतियों को ख़त्म कर दिया हो तो क्या इन सब बातों को जानने के बाद आख़िर फिर जंगल का राजा शेर कैसे ?

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