जब फांसी पर था झूल गया किसान,
जब गिरवी हुआ था उसका खेत और मकान,
जब बेचा था उसने बीवी का
अन्तिम गहना,
तब भी दूभर था उसका ज़िंदा रहना,
वो हार गया आखिर जीवन की बाजी,
तब तुमने लिखी कविता बाबूजी
जब लड़की का खींचा गया दुपट्टा,
करते रहे मनचले रोज ही उसका पीछा,
जब सरे राह वह लड़की गई थी छेड़ी ,
जिस वजह से बाल विवाह की उसने पहनी बेड़ी,
उस वक्त भी तुमने कविता ललकारी बाबूजी,
हाँ तब भी तुमने कविता लिखी बाबूजी
जब रैली में पीटे गए थे बेरोजगार,
बस मांग ही तो रहे थे सभी रोजगार,
जब पुलिस का लाठीचार्ज हुआ था बर्बर ,
जब घायल लड़के पड़े थे सड़क पर तितर-बितर,
गुजरे थे उस वक्त वहाँ से तुम भी बाबूजी,
लेकिन तब भी तुमने कविता लिखी बाबूजी,
जब शहर में फैला हुआ था उन्मादी दंगा,
जब वहशीपन में हर कोई नाच रहा था नँगा,
तुमने दूर से देखी थी वो सब कत्लोगारत,
स्वर्णिम चुप्पी ओढ़ कर तुमने न की कोई हरकत
उस वक्त भी क्यों चुप रह गए तुम बाबूजी,
तब भी तो तुमने कविता ही लिखी बाबूजी,
अब और कितनी कविताएं लिखोगे बाबूजी,
इस कविता से न आती एक वक्त की भी सब्जी,
हर हार में ली तुमने कविता की ही आड़,
जब जीवन से तुम्हारे भी होता रहा खिलवाड़,
जब डरना ,सहना बनी रही तुम्हारी नियति,
तो फिर क्यों कविता लिखनी है और बाबूजी ?
समाप्त
कृते -दिलीप कुमार