सत्य बोलने में सदा होता है भूमा का सुख

—विनय कुमार विनायक
हे भगवन!मुझे ज्ञान दो! मुझे जानना क्या?

‘सत्य जानने योग्य है, तुम सत्य को जानो
और सत्य संभाषण करो! सच हमेशा बोलो’
सत्य के सिवा सब है मिथ्या औ’ अविद्या!

मिथ्या को सत्य मान कदापि नहीं बोलना!

जब ज्ञान नही, तो सत्य भान कैसे होगा?
सत्य से अनजान हूं,मैं सत्य कैसे बोलूंगा?

‘अस्तु सत्य जानने के लिए करो जिज्ञासा!
विशेष ज्ञान विज्ञान ही जानने योग्य होता!
क्योंकि विशेष ज्ञान ही सत्य को बतलाता!

विशेष ज्ञान पा करके सर्वदा सत्य बोलना!

किन्तु विशेष ज्ञान मिलता है कहां? कैसे?
‘विशेष ज्ञान मनन करने से ही तो मिलते!
अस्तु मनन हेतु ज्ञान योग्य होती है मति!’

पर बिना श्रद्धा से मनन होता कभी नहीं,
अस्तु श्रद्धा ही ज्ञेय है,तो श्रद्धा का ही
विशेष ज्ञान पाने की मैं इच्छा करता हूं!

‘किन्तु निष्ठा बिना श्रद्धा नहीं जगती!’

तब तो निष्ठा ही जानने योग्य होती है,
पर बिना क्रिया की निष्ठा कहां होती है?

‘फिर तो जानने योग्य है कार्य की प्रकृति,
किन्तु बिना सुख की क्रिया दुखदाई होती!’

‘ऐसी स्थिति में जानने योग्य है सुख ही,
अस्तु; जिज्ञासा करो आत्मसुख पाने की!

किन्तु सुख हो यदि अत्यल्प, फिर क्या?
वैसे अल्प सुख का हमको है क्या करना?

‘अस्तु जानने योग्य होता है एकमात्र भूमा!’

क्योंकि अल्प सुख होता है सदा तृष्णादायी!
अंततः भूमा सुख ही होता संपूर्ण सुखदायी!

भूमि से आसमान के पार तक विस्तृत जो,
भूमा में आच्छादित सत्य,सनातन,अमृतत्व,
सत्य बोलने में सदा होता है भूमा का सुख!
(छान्दोग्योपनिषद से प्रेरित स्वरचित काव्य)
— विनय कुमार विनायक

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