-जदयू-राजद गठबंधन-1-
-रंजीत रंजन सिंह-
हां-न, हां-न करते करते आखिरकार आगामी बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर जदयू और राजद के बीच गठबंधन हो गया। इसे दो दलों का मिलन कहें, दो दिलो का मिलन कहें या फिर नरेन्द्र मोदी लहर का डर, जो मर्जी आप कह सकते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि यह गठबंधन बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम को बड़े पैमाने पर प्रभावित करेगा, जिसका जिक्र हम इस सीरिज के अगले अंक में करेंगे। इस गठबंधन के द्वारा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपना राजनीतिक पतन के लिए एक कदम और आगे बढ़ा दिया है।
जेपी आंदोलन से निकले नीतीश कुमार 1990 में अपने साथी लालू प्रसाद को बिहार के मुख्यमंत्री बनवाने में कामयाब हुए थे। तब दोनों जनता दल में थे और देश भर में गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति का दौर था और लालू की सरकार को भाजपा ने भी समर्थन दिया था। समय बदला तो दोनों नेताओं की अहम टकराई और नीतीश कुमार 1994 में जनता दल से अलग होकर समता पार्टी का गठन किया। 1995 के विधानसभा चुनाव में समता पार्टी 6 सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर पाई। उसके बाद समता पार्टी ने अपने नेता जॉर्ज फर्नाडिस की पहल पर भाजपा के साथ गठबंधन किया। पहले समता पार्टी और फिर जनता दल युनाईटेड-जदयू ने भाजपा के साथ मिलकर लगातार सफलता पाई और 2005 में राज्य में जदयू-भाजपा गठबंधन यानी एनडीए की सरकार बनी। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। बिहार कथित जंगलराज से बाहर आया और सूबे में सुशासन तथा विकास हर जगह देखने को मिला। नीतीश कुमार पहले नायक बने फिर 2010 के चुनाव में महानायक। 5 साल के काम की मजदूरी जनता ऐसी दी कि राजद विपक्ष में बैठने लायक नहीं रहा। चुनाव में जदयू को 115, भाजपा को 91 जबकि राजद को मात्र 22 सीटें मिलीं। दूसरी बार सत्ता मिलने का गुमान कहें या राजद की दुर्गती से उपजे लोभ, नीतीश कुमार की राजनीतिक महात्वाकांक्षा कुलांचे मारने लगीं और पिछले आम चुनाव के ठीक पहले नरेन्द्र मोदी और सांप्रदायिकता के नाम पर उन्होंने भाजपा से रिश्ता तोड़ लिया। उनकी नजर नरेन्द्र मोदी का विरोध पर कम और उनके विरोध के नाम पर अल्पसंख्यक वोटों पर अधिक थी। उनकी सोच अनुसार भाजपा को छोड़ने के बाद भी कुर्मी-कुशवाहा-दांगी-महादलित और मुस्लिम वोटों के जरिए बिहार में सत्ता पाई जा सकती है। लेकिन उनका समीकरण 2014 के लोकसभा चुनाव में ही ध्वस्त हो गया और बिहार में जदयू को करारी हार मिली। नीतीश कुमार भावनाओं में बहकर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। फिर श्री मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया। इन दोनों मामलो में भी नीतीश कुमार की राजनीतिक क्षति हुई। भाजपा से गठबंधन तोड़ने के बाद नीतीश कुमार राजद के समर्थन से सरकार बचाने में कामयाब हुए थे। उसके बाद मांझी सरकार को भी राजद ने समर्थन किया और फिर दोबारा नीतीश कुमार की सरकार को भी उसका समर्थन जारी है। ये सब तब हुआ जब नीतीश कुमार राजद के खिलाफ बहुमत लेकर आए थे। लेकिन अपनी सरकार बचाने के लिए वे लालू प्रसाद के चरणों में गिरते-गिड़गिड़ाते नजर आए। आज भी राजद से गठबंधन के लिए सबसे ज्यादा नीतीश कुमार ही परेशान दिखे। मगर क्यों? इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने पर ऐसा मालूम होता है कि नीतीश कुमार को सिर्फ सत्ता चाहिए, रास्ता चाहे जो हो। वरना यूं ही नहीं नीतीश कुमार 243 सीटों में महज 100 सीटों पर चुनाव लड़ने को राजी हैं जबकि इस समय जदयू के पास 110 विधायक हैं और हाशिए पर खड़ी राजद को वे 100 से ज्यादा सीटें देने को तैयार हैं। अगर जदयू-राजद गठबंधन की भारी जीत भी हुई तो जदयू 65 से 70 सीटें जीतेगी। अगर जदयू अकेले भी चुनाव लड़ती तो अपने बदौलत 50-60 सीटें तो लाती ही। फिर महज 10-12 सीटों के लिए नीतीश अपने सिद्धांतों के साथ इतना बड़ा समझौता क्यों कर रहे हैं? क्या पार्टी का जनाधार कम करना नीतीश का एजेंडा है? अगर नही ंतो फिर हार से क्यों डर रहे हैं नीतीश? अपने काम में विश्वास है तो उन्हें अकेले चुनाव में जाना चाहिए था। जनता अस्वीकार करती तो उन्हें एक हार स्वीकार करना चाहिए था, लेकिन जनता के मिजाज के खिलाफ नहीं जाना चाहिए था। जनता और नीतीश कुमार के समर्थक आज पूछ रहे हैं सत्ता के लिए ये कहां आ गए नीतीश कुमार? आगामी विधानसभा चुनाव जातीय समीकरण की बदौलत जीत भी गए तो भी लोग पुछेंगे यह कहां आ गए नीतीश जी, कहां भाजपा जैसी मजबूत साथी और कहां कथित जंगल राज के पुरोधा…! (जारी…)
BRAND THE MAGAR SEWA DENE ME KAMI KAR DI………..
बस नीतीश कुमार का समय खराब चल रहा है।
Nitish kumar is a brand of good govermance.
जो देता था कल तक अक्सर,
नारा जंगलराज का,
आज सदस्य बन बैठा है वो,
जंगली जनता-परिवार का!
बहुत बारीक विश्लेषण सुशासन-बाबू के बदलते चरित्र का!