क्या विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में ऐसा भी होता है?

1
160

विश्व अचंभित है

क्या विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में ऐसा भी होता है?

नरेश भारतीय

नेशनल हेराल्ड का किस्सा अदालत में उठा. कांग्रेस की राजमाता सोनिया गाँधी और युवराज राहुल के उसमें सीधे उलझाव के सन्दर्भ में कार्यवाही के लिए उन्हें पेश होने के लिए बुलावा भेजा गया. देश में मानों भूकम्प आ गया. संसद में हंगामा करने के लिए हर वक्त कमर कसे उनके वफादार दरबारियों ने कमर कस ली. सोनिया गाँधी ने यह कहते हुए हुंकार भरी कि वे इंदिरा गाँधी की बहू हैं और किसी से नहीं डरतीं. उनके बड़बोले बेटे राहुल ने सीधा निशाना साधा मोदी सरकार पर और यह कहा कि सब कुछ शत प्रति शत बदले की भावना से किया जा रहा है. लेकिन सत्तापक्ष ने जब इसका कोई प्रमाण देने की बात कही तो कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया. रात भर की मंत्रणा के बाद निर्धारित रणनीति के तहत कांग्रेसी नेता संसद में वैधानिक कामकाज को रोक देने पर तुल गए. लोकसभा में भाजपा का बहुमत होने के कारण वहां तो कुछ कामकाज कांग्रेसी सांसदों के द्वारा किए गए शोरशराबे के बावजूद भी हो सका. राज्य सभा, जहाँ भाजपा का बहुमत नहीं है, वहां कांग्रेस और विपक्ष के अन्य दलों ने कामकाज ठप्प करने में कांग्रेस का पूरा साथ दिया. सदन को फिर स्थगित करना पड़ा. विश्व अचंभित है. देश अचंभित है. क्या विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में ऐसा भी होता है एक तथाकथित ज़िम्मेदार विपक्ष का व्यवहार? अदालती कार्यवाही शुरू होने से पहले ही आरोपियों के द्वारा न्याय प्रक्रिया और लोकतंत्र का यह तिरस्कार क्या संकेत देता है?

जब कोई मामला किसी भी न्यायालय में विचाराधीन होता है तो उस पर सार्वजनिक टीका टिप्पणी करना, विशेष रूप से उस मामले से जुड़े लोगों के द्वारा बयानबाज़ी सर्वदा अनुचित मानी गई है. इसलिए, क्योंकि उसका न्याय निर्णय प्रक्रिया पर प्रभाव पड़ सकता है. लेकिन देखने में यह आया है कि भारत में प्राय: हर  महत्व के मामले पर चर्चा बहस चलाने की मीडिया की तत्परता के बने रहते न्यायालय के विचाराधीन मामलों तक में पहले “मिडिया ट्रायल” होता है. कांग्रेस ने प्रकटत: अपने दो शीर्ष नेताओं सोनिया और राहुल को अदालती सम्मन भेजे जाने के बाद इस मामले के राजनीतिकरण की सोची समझी रणनीती के तहत संसद के दोनों सदनों में और बाहर भी इसे आम चर्चा का विषय बनाया. अदालत के आदेश के अनुसार उसके समक्ष पेश होने से पहले ही अपने बेगुनाह होने का राग अलापना शुरू कर दिया. क्या इसे किसी भी तरीके से सही कहा जा सकता है? संसद में सत्तापक्ष ने बार बार उनसे अनुरोध किया कि संसद के काम में बाधा न डालें. प्रधानमंत्री मोदी ने दुखित हो कर कहा कि गरीबों के लिए हितकर विधेयक संसद में पारित होने से रुके पड़े हैं. संसद को चलने नहीं दिया जा रहा. इस पर भी कांग्रेस अपने नेताओं पर लगाए गए आरोपों के इस कानूनी मामले को श्री मोदी की भाजपानीत सरकार के विरोध में एक आन्दोलन का रूप देने में जुटी है.

सब जानते हैं कि जब तक अपराध सिद्ध नहीं हो जाता तब तक आरोप को अपराध नहीं माना जा सकता. लेकिन जो आरोप अदालत में लगाए गए हैं उनसे सम्बंधित अपराधों के फैसले भी अदालतों में ही होने चाहिएं. सच सामने आ जाएगा. यदि आरोपी निरपराध घोषित होते हैं तब भी और यदि दोषी सिद्ध होते हैं तो भी सब स्पष्ट हो जाएगा. सडकों पर सार्वजनिक रूप से नारेबाज़ी करके तो यह संभव होगा नहीं. श्रीमती सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के लिए भी यह बेहतर होगा कि वे कानून का सम्मान करते हुए न्यायालय की जानी मानी प्रक्रिया के अनुरूप संयत व्यवहार करें जैसे सामान्य नागरिक करता है. वे स्वयं और उनके समर्थक नेतागण गंभीरता से सोचें कि वे जैसे लोकतंत्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन करते दिखाई दे रहे हैं उससे उन्हें देश की जनता से उनके प्रति सहानुभूति स्वरूप कोई राजनीतिक लाभ मिलने वाला नहीं है. अदालत से सम्मन मिलने के बाद सोनियाजी के इंदिरा गाँधी की बहू होने की दम्भपूर्ण दुहाई और इसलिए किसी से भी न डरने की डींग ने लोगों के मन मस्तिष्क में १९७५ में इंदिरा गांधी के द्वारा घोषित आपातकाल की भयावह तस्वीर ताज़ा कर दी है जब इलाहाबाद हाई कोर्ट के द्वारा उनके विरुद्ध फैसला आने के बाद उन्होंने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए देश में बेरहमी के साथ लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया था. मीडिया को कुचल डाला था. नागरिकों के सभी वैधानिक अधिकार खत्म कर दिए थे. अपने विरोधियों के समेत हज़ारों लोगों को सलाखों के पीछे जेलों में ठूंस दिया था. उसके बाद जब उन्होंने इस उम्मीद के साथ चुनाव कराए कि वे पुन: चुने जा कर सत्तासीन होंगी तो उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा था. गनीमत है कि वह कांग्रेस इस समय सत्ता में नहीं है. यदि सत्ता में होती तो जाने क्या होता. देश के लोग अब यह भी जानते हैं कि कांग्रेस को अघिक समय के लिए सत्ता से दूर रहने की आदत नहीं है. लेकिन यदि उसके वंशवादी नेताओं ने समय रहते अपने इस असहज और शालीनताहीन व्यवहार को संयत नहीं किया तो इसकी पूरी संभावना है कि वह लम्बे समय तक सत्ता से वंचित ही रहे.

देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के माहौल के कारण कांग्रेस को देश की जनता ने गत वर्ष कड़ा सबक सिखाया था. जनादेश भाजपा को मिला था और श्री मोदी के नेतृत्व में भाजपानीत सरकार बनी. कांग्रेस अभी भी उससे उभर नहीं पाई है. फिर से उभरने के लिए संघर्षरत रही है. ऎसी स्थिति में नेशनल हेराल्ड सम्बन्धी मामले का न्यायालय पहुँचना उसे अखर गया है. आरोप श्री सुब्रमन्यम स्वामी के द्वारा एक स्वतंत्र व्यक्ति के नाते लगाए गए हैं लेकिन श्री राहुल इसका दोष प्रधानमंत्री कार्यालय पर लगा रहे हैं. इसे प्रतिशोध की कार्रवाई बता रहे हैं. सरकार ने जब इसका खंडन करते हुए उन्हें सबूत देने की चुनौती दी है. तो इसका कोई जवाब उसके पास नहीं है. लेकिन देश का संसदीय कामकाज कांग्रेसी और उनके समर्थक सांसदों के द्वारा रोका जा रहा है. लोकतंत्र को पंगु बनाने की चेष्ठा की जा रही है. यदि राहुल यह कहते हैं कि वे देश के कानून का सम्मान करते हैं तो फिर कानून का सामना तो उन्हें करना ही होगा.

…………………………………………………………………………………………………………..

 

1 COMMENT

  1. लोकतन्त्र और कानून का शाषण दो चीजे है। भारत में लोकतंत्र तो बहुत अधिक है। कानून का शाषण भी है – लेकिन जब नेताओ की बात आती है तो उनके साथ कुछ सुविधा देने लेने की बात शुरू हो जाती है। परिवर्तन हो रहा है, अवश्य होगा।

Leave a Reply to Himwant Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here