वे शहर के कन्‍धों पर खडे है

सदियों पहले मैं एक कस्‍वानुमा गॉव था, अब विकसित शहर में अग्रणी हॅू। एक बौना सा गॉव जिसके उत्‍तर में कल-कल बहती नर्मदा बहती है, आज भी बहती है। फर्क इतना है कि अब मैं तहसील से जिला, जिला से संभाग हो गया हॅू। तब से अब तक सुबह और सॉझ, अजान, गुरूवाणी, शंख ध्‍वनियॉ-घन्टियों का मधुर कोलाहल और आरतियों की राग-रागनियॉ मेरे प्राणों की चेतना बन चुकी है। सैकडों कालोनियॉ, कई मोहल्‍ले मेरी गोद में रेलमपेल कर पल रहे है। पहले हाथी-घोडे सवार शासक थे, अब हवा पर सवार हवाहवाई शासक हो गये। कुछ लोग जिनकी जिंदगी को विरासत में सोने-चांदी का पालना मिला वे इसके बलबूते सत्‍ता की लिप्‍सा में मखमली गोद के आदतन हो गये। वे गोदी के लाल अपनी आन, बान और शान से यहॉ-वहॉ, इधर-उधर, सब ओर सब कुछ पाने के लिये स्‍वयंभू प्रावधानों तथा स्‍वसत्‍ता के मानवीय उपकरणों के दम पर मेरे विराट कंधे पर घुटनेटेक हो अब सतर खडे हो गये है।

     हनुमान जी अपने को विभीषण के सामने अपावन साबित करने के लिये कहते है कि ‘’प्रात नाम जो लेई हमारा, तेहि दिन ताहि न मिले आहारा’’ । ऐसे वानर के कंधे पर बैठकर ‘’राम और लक्ष्‍मण’’ ने हनुमान को अष्‍टसिद्वि और नवनिधियों का आशीष दे इतना पावन और सिद्व कर दिया कि सारी दुनिया में हर जगह जहॉ इंसान बसे वह गॉव, पुर, पुरी  सभी जगह बिना खेडापति हनुमान की पूजा के बिना लोगों के जीवन की शुरूआत नहीं होती। कंधे पर बिठालने की यह महिमा है। दिग्विजय का परिचम लहराने की दौड में शामिल लोग यह बात भूल जाते है और मुझ शहर के कन्‍धे पर ये बैठते नहीं बल्कि तनकर खडे होते है। वे बडे ज्ञान-पिपाशु स्‍वाधीन आत्‍मायें है, इनका खुद का युग है, इनके युग में सत्‍य इनका, शोध इनका, इतिहास इनका, धरोहर इनकी, विरासत इनकी, यहीं नहीं अब शहर जिसमें लाखों लोग उसकी गोद में है, के द्वार-द्वार वोट की भीख मॉगने के बाद इनका मुझ शहर पर समयावधि दावा इनका हो जाता है।

जब शहर को वे अपना कहने का दावा करें तो इन्‍हें पहले शहर की फ्रिक करनी होगी। इनकी फ्रिक इतनी ज्‍यादा होती है कि वे शहर के शरीर में कई दरारें करायेंगे-करेंगे, फिर ताजपोशी पर शहर को अच्‍छे मजबूत फेफडेनुमा नवीन सृजनकार्यो को नयी पोशाक देंगे। शहर के अंगों को मृत बताकर, अनुपयोगी जानलेवा बताकर उसे ध्‍वस्‍त करने का बजट लायेगे, फिर गडडा करेंगे, उसे भरेंगे । इसके लिये वे प्रदेश का संसाधन लायेंगे, इत्‍मीनान से खर्च करेंगे। इनकी चुनौतियॉ देश-प्रदेश के आर्थिक पिंजर को अन्‍य शहरों की तुलना में अपने शहर के लिये यंत्रों से होड कर गति देने में ऐसी दिखाई जावेगी मानों आनेवाली पीढी के उज्‍जवल भविष्‍य की मिसाल बनने जा रहा है। यह उज्‍जवल संपन्‍नता इनके लिये, इनके अपनों के लिये जो ध्‍वस्‍त करने व निर्माण में अपने भाग्‍य की कुण्‍डलियों के गृहनक्षत्रों से बनने-सॅवरने को है, न कि शहर के लिये, शहर के आम जन इनके लिये उज्‍जवल है। कन्‍धे पर सवार ये विलक्षण प्रतिभायें है जिनके दादों-परदादों के कोट जिस खूटी पर टॅगते थे, वे खूटियॉ भी ब्रम्‍हा हो गयी और शहर में उन ब्रम्‍हलीनों की खूटिया इन्‍होंने इतिहास में कालजयी बना दी है।

शहर के कंधों पर खडे वे बडे गुणवान है, जिनके पास चुटकी भर इंसानियम और राखतुल्‍य अमरता है। लहरें नाव से दोस्‍ती कर नाव को  धोखा दे सकती है, जिन्‍दगी जिन्‍दगी को दगा दे सकती है, आदमी पर आदमी का जहर चढ जाये तो वह गहरे पानी में नहीं, किनारे पर आकर डूब मरता है  आदर्श की बात हो तो ये नैतिकता की लाश पर थपकी देने आ टपकते है, इनकी थपकी ऑधिेंयों के थमने जैसी ही है, जिसके पदचिन्‍हों से यह शहर एक खतरनाक चुप्‍पी में जीने को विवश हो जाता है इस चुप्‍पी से सभी ओर फफोले ही फफोले होते है वे फफोलों को फूंकते है पुराने मिट जाते है और नये कई फफोले उठ आते है। उन्‍हें पता है उनकी पुण्‍यदायिनी मॉ नर्मदा की जयंती को धूमधाम से पूजने का नकली विधान,ये नर्मदा के ऑचल में बैठकर दुनिया को दिखावा करेंगे और खुद के उदघोष का नगाडा तीनों लोक में पिटवायेंगे

बकरे को हलाल करने से पहले अच्‍छा खिलाना,नहलाना उसकी आवभगत करने की एक दिनी परम्‍परा है, पर ये तो वे हैं जो नर्मदाजयंती के दिन ही पूजा पाठ कर बाकि 364 दिन नर्मदा के गले पर चाकू अडाये बैठैं है। इनके द्वारा नर्मदा के दिल में चौबीसों घन्‍टें छेद किया जा रहा है, शहर के निचले डूबवाले इलाकों में हजारों डम्‍फर भसुआ मिटटी प्रतिबन्‍ध के बाद भी धडल्‍ले से बेरोकटोक के आ रही है। इनकी माने तो शहर विकास की सीढियों को तेजी से चढता हुआ गगनचुंभी बनाया जा रहा है। आलीशान कालोनियॉ, बडे-बडे स्‍कूल-कालेज, सुपर बाजार, स्‍वीमिंगताल, पेट्रोलपंप आदि बेइंतहा परन्‍तु बेपेबन्‍द- बेसुरा सा विकास इनका है। शहर के निचले डूबवाले इलाकों में भराव के लिये पर्यावरण को क्षति पहुंचा कर सरकारी जमीनों-खेतों से हजारों डम्‍फर भसुआ मिटटी कहॉ से किसके द्वारा किसके दम पर आ रही है यह शहर के गली चौराहों पर लगे आधुनिक सरकारी केमरों में कैद है,पर इसे देखने कार्यवाही की फुर्सत अधिकारियों के पास नहीं है।

वे शहर के कन्‍धों पर नहीं बल्कि शहर के माथे पर चढ गये है और गॉवों को मिटाकर शहर में शामिल करके वे कलयुग में भी सतयुग का सपना दिखाकर मोहक अनुतोषों को बॉट सबके लिये सबसे बडे शुभचिन्‍तक बने हुये है। वे प्रजातंत्र की ध्‍वजावाहक है और उनका तंत्र नर्मदा के तटों को बचाने के लिये शहर पर सवार है, वे जानते हुये अंजान बने है ताकि जब इस बात का जिक्र निकले और दायित्‍व आरोपित हो तो कोई उन्‍हें नपुसंक साबित न करे और न ही यह बददुआ दे कि उनकी जिव्‍हा को लकवा मार जाये ।

   शहर की गलियों में, मोहल्‍लों में सटटा-जुआ, शराब-व्‍यभिचार आदि सभी छोटे-बडे अपराध कहॉ- कहॉ होते है, क्‍या-क्‍या होता है, क्‍या- क्‍या होने वाला है, क्‍या घटा है- क्‍या बडा है, क्‍या नया है, यह वहॉ रहने वाले लोगों से छिपा रहता है पर ये सब जानते है। ये शहर पर असवार लोग शहर के बचपन और जवानी को कुछ करने योग्‍य नहीं रहने देना चाहते, उनके सपनों को छीनकर ‘कबूतरों का झुण्‍ड जाल सहित उड गया’, मछलियों ने नर्मदा में नाव पलट दी जैसी बातों में उलझाये रखते है।  शहर को और शहर के लोगों को जो ये देते है, वह मात्र घौसलों में तिनकों के साथ रखने की मानसिकता है, इसे उपहार में देकर वे सेहतमंद है। किसी के भी हाथ न लगने वाले इन उपहारों का यह शोरगुल के साथ डिडोरा पीटेंगे और पिटवायें। इन्‍होंने आपकी/जनता की तदुंरूस्‍ती उस चिडिया की तरह कर दी है जिसके सिर, पर/पंख, धड जमीन पर अलग-अलग पडे मुर्दा के समान होते है, जो न खुद के लिये तिनके ला सकती है, न घोसले बना सकती है, ठीक बैसे ही हो गये है आज के तरूण, उनकी तरूणाई बैंक से कर्ज लेकर ऊॅची पढाई और  डिग्रिया लेकर बेरोजगारी के कारण कर्ज में डूबी होती है, बैंकर्स कर्ज वसूलने घर पर खडा होता है, तरूण काम की तलाश में युवा से कब मानसिक तनाबों से ग्रसित नौकरी की निर्धारित सीमा की उम्र पार कर तनावों से सर्वस्‍य लुटा बैठता है, तब उसे पता चलता है। शहर के लोग, जो इनके दिये घावों को छिपाकर बडे चाव से इनके ही साथ उठते है, बैठते है, भाईचारा और बंधुत्‍व का संबंध ये ही निभाते है, वे तो पॉच सालाना संबंधों को जीते है।   

जनता से बंधुत्‍व की इसी अगाध शक्ति के दम पर पूरे प्रदेश में, प्रदेश ही नहीं दूसरे प्रदेशों में भी इन्‍होंने अपनी इसी चेतना का विस्‍तार कर कूटज्ञ, समाजवेत्‍ता धर्मवेत्‍ता, कर्मवेत्‍ता कानूनवेत्‍ता सहित न जाने- कौन कौन सी परम उपाधियॉ बटोर रखी है। वे शहर के कन्‍धे पर खडे है उनकी तंदुरूस्‍ती के लिये शहर कई बार बीमार हुआ है शहर की गलियों मोहल्‍लों में अनौखी गर्माहट भरने के बाद ये कन्‍धों पर खडे लोग शहर की नब्‍ज को तेज चलाने के लिये शहर में जुलूस निकालते है, चौराहों पर हंगामा करते-कराते है, पुतले जलवाये-जलाये जाते है, धरना-प्रदर्शन करते-करवाया जाता है ताकि कन्‍धों पर सवार लोगों की सेहत ठीक रहे इनकी तंदुरूस्‍ती के लिये अपना सर्वस्‍य लुटा चुके युवकों के बुझे हुये चेहरों को लावा से तपाया जाकर उनकी ऑखों में धर्म का काजल लगाकर भाले, चाकू, बंदूक गोली की चमक दिखाई जाती है जिससे इनकी सेहत तो सुधर जाती है पर क्‍या कहॅू शहर बीमार हो जाता है

शहर कभी इनसे सवाल नहीं करता कि भैईया बार-बार मेरे कन्‍धे पर सवार होकर अपना अस्तित्‍व तो बनाये रखते हो वही अपना वजूद, अपनी शिनाख्‍त भी दुनियावालों से कराते हो। शहर को चिंता होती है अपनी गोदी में बने सतरास्‍ते, चौराहे, तिराहे, गलियों और इनमें प्रेम से निवासरत महलनुमा भवनों- घरों झुग्गियों, फुटपाथ पर रहने वालों, कार्य-व्‍यवसाय करने वालों की, रेलवे लाईन से दो भागों में बॅटे असुविधाहीन असुरक्षितजनों के ऑसूओं की, उनके मुस्‍कानों की। शहर पर असवार ये चंद लोग शहर को एक घोडा समझ उसकी पीठ पर बैठते है, इन्‍हें अपनी सेहत तदुरूस्‍ती के लिये शहर की कायाकल्‍प करने की चिल्‍लापौं करनी होती है, विभिन्‍न रंगों से निजी सरकारी दीवालों पर अपना फोटो नाम चिपका कर पेपरों टीव्‍ही पर दावे करना इन्‍हें आता है। इनके संगी-साथी जिन्‍हें ये कीट-पंतगों से ज्‍यादा महत्‍व नहीं देते वे ही इनकी विरदावली गाते है, इनके विकास के दावों को लिपिबद्व छापे श्‍याम श्‍वेत से बहुरंगी छपते है, और यह शहर प्रायोजकों के बिछाये गये बिछोनों, और ऑखों में सजाये गये खिलौनों की लाशों का बोझ लिये बैठा सब सह जाता है, किसी को मुस्‍कुराना आता हो या न आता हो, पर हर हालत परिस्थिति में ये शहर के कन्‍धों पर खडे मुस्‍कुराते है।

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