अर्थव्यवस्था में प्राण फूंकने का तीसरा पैकेज

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-ललित गर्ग –
कोरोना महामारी के कारण अस्तव्यस्त हुई अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये केन्द्र सरकार की ओर से एक बार फिर प्रोत्साहन पैकेज घोषित किये गये हैं, यह पैकेज सुस्त अर्थ-व्यवस्था को स्पंदन एवं गति देने कितने सहायक होंगे, यह भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन उसका मूल मकसद बाजार को सक्रिय करना, मांग पैदा करना है। मांग पैदा होगी, तभी उत्पादन पर जोर पकड़ेगा और निवेश का रास्ता खुलेगा। कोरोना महाव्याधि एवं प्रकोप के कारण जीवन पर अनेक तरह के अंधेरे व्याप्त हुए हैं, जिनमें सबसे ज्यादा प्रभावित बाजार हुआ, बाजार के सन्नाटे ने अर्थव्यवस्था को चैपट किया। बाजार में मांग, खपत, उत्पादन, निवेश जैसे अर्थव्यवस्था के प्रमुख आधार हिल गये हैं। ऐसे में अब पहला काम अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार त्यौहारों से पहले लगातार कोरोना संक्रमण के नये मामलों में जो सकारात्मक रूख दिखने लगा है, उसका फायदा उठाते हुए तीसरा बड़ा पैकेज घोषित किया है।
एक लंबे इंतजार के बाद कोरोना के हवाले से कुछ अच्छी खबरें आने लगी है, साल के आखिर में या नये साल की शुरुआत में वैक्सीन भी उपलब्ध हो जाने की संभावनाएं हंै। इन बदलती फिजाओं एवं छंटते निराशा के बादलों के बीच सरकार ने भी सूझबूझ से काम लेते हुए अनुकरणीय पैकेज आर्थिक गतिविधियों में प्राण फूंकने के लिये घोषित किया है। इस साल मई से यह तीसरा मौका है जब केंद्र सरकार ने प्रोत्साहन पैकेज का एलान किया है। बीस लाख करोड़ रुपए के पहले के दो पैकजों का लक्ष्य अर्थव्यवस्था को फिर से गति देने के लिए था, लेकिन अभी उन दोनों पैकजों का कोई चमत्कारिक एवं त्वरित असर देखने को नहीं मिला। लेकिन बदलती स्थितियों के बीच ये तीनों पैकेज अवश्य कुछ सुखद घटित करेंगे। जून तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में करीब 24 फीसदी की गिरावट आई है, इसकी वजह से अभी और ऐसे ही कदम उठाना सरकार की मजबूरी है।
वक्त की नजाकत को देखते हुए, अर्थव्यवस्था में आई जड़ता दूर करने और बाजार में नई मांग पैदा करने के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 73 हजार करोड़ रुपये की छूटों, राहतों और अनुदानों की घोषणाएं की है, जिनके जरिए उनकी कोशिश यह है कि कोरोना महामारी और लॉकडाउन के संयुक्त परिणाम के रूप में उपभोक्ताओं के बीच खर्च करने को लेकर बनी हुई हिचक एवं उदासीनता किसी तरह टूटे और अर्थ की रुकी हुई गाड़ी आगे बढ़े और बाजार में रौनक आये। इन घोषणाओं का समय-चयन शुभता एवं श्रेयस्करता का प्रतीक इसलिये है कि दशहरा, दिवाली से लेकर छठ, क्रिसमस और न्यू ईयर तक का त्योहारी सीजन अब शुरू होने वाला है। दो-ढाई महीने की इस अवधि में खरीदारी को लेकर लोगों में विशेष उत्साह रहता है और इसी वजह से कारोबार जगत की इससे खास उम्मीदें लगी होती हैं। निश्चित ही इस नये पैकेज में कुछ सुविधाएं केन्द्र सरकार के कर्मचारियों को दी गयी है। सरकार की नजरों में सरकारी कर्मचारी इस पैकेज की धुरी है और वे उपभोक्ताओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। वे अगर त्यौहारों में खरीददारी में उत्साहपूर्ण ढंग से हिस्सा लेते हैं तो निश्चित रूप से भारत की अर्थव्यवस्था एवं बाजारों में नये प्राणों का संचार हो सकता है। सरकार ने जिस सोच से कदम उठाये हैं उसका कारण यह उम्मीद है कि इससे अर्थव्यवस्था को इतना जोरदार धक्का मिल पाएगा, जिससे यह स्टार्ट होकर अपनी गति पकड़ सके। इस उम्मीद को और बल तब मिल सकेगा जब केंद्र सरकार की ही तरह राज्य सरकारें और प्राइवेट सेक्टर की कंपनियां भी अगर अपने कर्मचारियों को एलटीसी में वैसी ही छूट दें तो बाजार में काफी पैसा पहुंच जाएगा। मगर ऐसी छूट देने के लिए उन्हें प्रेरित करने वाले किसी ठोस कदम की घोषणा का अभी इंतजार ही है।
बाजार और अर्थ व्यवस्था को गति देने के लिये जनता में विश्वास का वातावरण बनाना जरूरी है, किसी अशुभ के घटने की आशंका के कारण लोग अपनी जरूरतों एवं खर्चों को नियंत्रित करके बचत करने में जुटे हैं, उनका यह भय समाप्त हो और वे बचत की बजाय खर्चों पर बल दे तो अर्थ-व्यवस्था को जल्दी ही सुधारा जा सकता है। अभी की स्थितियों में चार्वाक के कर्ज लो एवं घी पीओ के दर्शन को अपनाने की जरूरत है। चार्वाक का पूरा दर्शन इस बात पर टिका है कि खाओ, पियो और ऐश करो, भले इसके लिए आपको कर्ज भी क्यों न लेना पड़े। सरकार ने भी इसी दर्शन को अपनाते हुए इस बार कर्मचारियों को कर्ज देकर, पैसा खर्च करवाकर, मांग पैदा करने का फार्मूला अपनाया है। हालांकि ये पैकेज कोई बहुत बड़ा नहीं हैं, लेकिन इसका महत्व इस लिहाज से है कि लोगों को पैसा दिया जाए और उसे वे खर्च करें। इसलिए कर्मचारियों को जो पैसा मिलेगा, वह सशर्त है। ऐसा नहीं कि उस पैसे को भी जमा करके रख लें। अभी तक हो यह रहा है कि लोग अर्थव्यवस्था की हालत को देखकर घबराए हुए हैं और उनका ध्यान खर्च करने की बजाय बचत पर ही टिका है। वैसे भी लाॅकडाउन में लोगों के खर्च काफी कम हुए है, लेकिन अर्थ-व्यवस्था को संतुलित गति देने के लिये जरूरी है कि लोगों की कमाई के साधन बढे़, खर्च करने की मानसिकता का विकास हो, खूब नये-नये कर्ज के दरवाजे खुले।
राज्य सरकारों के लिए भी केंद्र ने पिटारा खोला है। पूंजीगत खर्चों के लिए केंद्र राज्यों को 50 साल के लिए बारह हजार करोड़ बिना ब्याज के कर्ज के रूप में देगा। उसमें भी इतनी सारी कैटिगरी बनाते हुए ऐसी शर्तें जोड़ दी गई हैं कि किस राज्य के पास कितना पैसा पहुंचेगा, कहना मुश्किल है। इसमें दो राय नहीं कि मौजूदा हालात में सरकार के भी हाथ बंधे हुए हैं। महंगाई और राजकोषीय घाटे को काबू में रखने का दबाव उस पर है। ज्यादा खर्च करने के जोखिम को वह नजरअंदाज नहीं कर सकती। लेकिन इसके बरक्स खर्च न करने या जरूरत से कम खर्च करने का खतरा भी कम गंभीर नहीं है। राज्य सरकारें भी अपने कर्मचारियों के लिए रियायत की घोषणा चाहें तो कर सकती हैं, लेकिन यह उनकी आर्थिक हालतों पर निर्भर करेगा। देश में केंद्रीय कर्मचारियों, लोक उद्यमों में काम करने वालों, बैकिंग क्षेत्र के कर्मचारियों की तादाद अच्छी-खासी है। लेकिन आबादी के हिसाब से नियमित आय वाला यह वर्ग छोटा है। देश में आबादी का बड़ा हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों का है। इसके अलावा निजी क्षेत्र के कामगारों की तादाद भी काफी बड़ी है। पर निजी क्षेत्र में भी कामगारों के बड़े हिस्से को सरकारी कर्मचारियों के समान न तो ज्यादा वेतन भत्ते मिलते हैं, न पेंशन जैसी कोई सामाजिक सुरक्षा है, जबकि अर्थव्यवस्था में इस वर्ग की भागीदारी भी बड़ी है। अगर देश में हर तबके के हाथ में नगदी देने का उपाय हो तो खर्च बढ़ाकर जीडीपी को रफ्तार देना मुश्किल काम नहीं है।
मांग बढ़ाने के लिए उठाए गए आधे अधूरे कदमों से होटल एवं पर्यटन उद्योग की उपेक्षा उचित नहीं है। ध्यान रहे कोरोना वायरस के संक्रमण से सबसे ज्यादा यहीं इंडस्ट्री प्रभावित हुई है। होटल, टूरिज्म आदि उद्योग से जुड़े लोग उम्मीद कर रहे थे कि अनलॉक के पांचवें चरण के बाद लोग घूमने निकलेंगे और धीरे-धीरे उनका कारोबार लौटेगा। पर सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों के एलटीसी का पैसा दूसरे मद में खर्च करने के लिए देकर इस उद्योग पर छाये अंधेरों को गहराया है। सरकार ने अपने कर्मचारियों को 10 हजार रुपए उधार देने का भी ऐलान किया है पर वह भी खरीददारी पर ही खर्च करना होगा।
फैक्ट्रियों में उत्पादन की स्थिति बताने वाले आईआईपी (इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रियल प्रॉडक्शन) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक अगस्त महीने में इसमें पिछले साल के मुकाबले 8 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। साफ है कि यही स्थिति कुछ महीने और बनी रही तो इकॉनमी को मंदी के दलदल में फंसने से बचाना मुश्किल होता जाएगा। जाहिर है, कारगर कदम उठाने के लिए अब ज्यादा वक्त नहीं रह गया है। अब तो अनियन्त्रित इच्छा, अनियंत्रित आवश्यकता और अनियंत्रित उपभोग वाला समाज निर्मित करना हमारी विवशता है। भले ही ये तीनों आदर्श- अर्थव्यवस्था के विपरीत हो, लेकिन कोरोना महामारी से उपजी आर्थिक अस्तव्यस्तता को संतुलित करने के लिये यही एक रास्ता है।

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