
भीतर कोलाहल है
बाहर सन्नाटा है।
ग़म हो या हो ख़ुशी
कौन किसके घर जाता है।
आभासी आधार लिये
सबसे नाता है।
सभी बहुत एकाकी हैं,
और
इस एकाकीपन में
शाँति नहीं ,
बस सन्नाट्टा है।
हर इंनसान ज़रा सा
घबराया है,
कभी कोई भी मिल जाये तो
डर जाता है,
कहीं किसी कोविड वाले से,
क्या उसका
कोई नाता है।
काम ज़रूरी करने हो
वो करता है,
जीविका चलाने को अब
जीता या फिर मरता है।
कभी थक गया जब इस
नज़रबंदी से..
निकल पड़ा फिर किसी
राह या पगडंडी पे
शांत वहाँ भी हुआ नहीं
क्योंकि शोर में भी
सन्नाटा है….
सन्नाटा है और बस केवल
सन्नाटा है,
इच्छायें सब सन्नाटे में
राख हो गई…
राख सुलग रही है पर
रौशनी गुम है
चाँद सितारे सूरज सब ,
वैसे के वैसे है,
फिर क्यों बदल गये,
धरती पर नियम सारे।