वीरेन्द्र सिंह परिहार
उत्तरप्रदेश में ऐसा क्या हुआ कि सारे सर्वे और एक्जिट पोल फेल हो गए। बात यहीं तक नहीं रुकती, हकीकत में सभी जाति और सम्प्रदाय के समीकरण टूट गए। जैसा कि लोगों का मानना था कि उत्तरप्रदेश में भाजपा को मुस्लिमों का वोट कतई नहीं मिलेगा? पर अधिकांश मुस्लिम-बहुल सीटों से भी भाजपा को जीत मिली। यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि ऐसा तब हुआ, जब भाजपा ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा था। लोगों का यह भी मानना था कि जिस लेना चाहिए कि उत्तरप्रदेश की कोई भी सीट शायद ही ऐसी हो जिसमें मुसलमानों का बहुमत हो, यानी कि वह संख्या में 50 प्रतिशत से ऊपर हों। दूसरे जब कोई तेज लहर आती है तो उससे सभी प्रभावित होते हैं। कहने का आशय यह कि मोदी की सुशासन आधारित नीतियों का असर एक हद तक मुसलमानों पर भी पड़ा। फिर तीन तलाक जैसे मुद्दे को लेकर बहुत सारी मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा के पक्ष में वोट दिया। इसी तरह से अनुसूचित जातियों में गैर जाटवों का वोट भाजपा को भरपूर मात्रा में मिला।
राजनीति विश्लेषकों की राय में उत्तरप्रदेश में भाजपा की जीत ऐतिहासिक है, और इस तरह की जीत कभी भी किसी की पार्टी को नहीं मिली। उस दौर में भी नहीं जब देश की राजनीति में कांग्रेस का एकाधिकार हुआ करता था। कुछ की दृष्टि में यह मोदी की 2014 से बड़ी जीत है। निश्चित रूप से इसे बहुत बड़ी जीत इसलिए कहा जा सकता है कि इस चुनाव में मोदी को मुख्यमंत्री नहीं बनना था। फिर भी मतदाताओं ने एकतरफा ढंग से सिर्फ उत्तरप्रदेश में ही नहीं, उत्तराखण्ड में भी मोदी के चलते भाजपा को जिताया।
तो कुल मिलाकर चाहे उत्तरप्रदेश हो, या उत्तराखण्ड हो, दोनों ही जगह लोगों ने मोदी के चलते इसलिए भाजपा को जिताया कि उन्हें यह पूरी उम्मीद हो चली थी कि मोदी सुशासन के पक्षधर हैं। जबकि सपा, बसपा और कांग्रेस के कुशासन, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार से वह त्रस्त हो चुके थे। वस्तुतः नोटबंदी एक ऐसा मुद्दा था जिससे मतदाताओं में यही संदेश गया कि मोदी देश से कालाधन दूर करना चाहते हैं। आमलोगों को नोटबंदी से भले कष्ट हुआ हो, पर उन्हें इस बात का बखूबी एहसास हुआ कि मोदी का यह कदम देश के हित में है। सिर्फ नोटबंदी ही नहीं मोदी के पूरे कृतित्व एवं व्यक्तित्व के आधार पर मतदाताओं को ऐसा महसूस हुआ कि मोदी का न तो अपना कोई निजी एजेंडा है और न ही कोई निजी स्वार्थ है। वह जो कुछ कर रहे हैं, देश और आवाम के लिए कर रहे हैं। विडम्बना यह कि जैसा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने कहा कि जनता तो नोटबंदी के पक्ष में थी, पर कुछ नेताओं को नोटबंदी का विरोध करना बहुत महंगा पड़ गया। ऐसे नेताओं में राहुल गांधी को यदि नम्बर एक पर कहा जा सकता है तो मायावती और अखिलेश भी नोटबंदी का विरोध करने में पीछे नहीं थे। इससे यह भी पता चलता है कि ये नेता किस तरह से जमीन से कटे हुए हैं, और इनको ठकुर-सुहाती ही पसंद है, जिनके सामने कोई सच बोलने का साहस नहीं कर सकता। इसके साथ बड़ा सच यह कि उत्तरप्रदेश के मतदाताओं ने मुस्लिम तुष्टिकरण और एक जाति-विशेष के अधिपत्य के विरुद्ध खुला विद्रोह जैसा कर दिया। यदि ऐसा कहा जाए कि उत्तरप्रदेश की जनता ने परिवारवाद, व्यक्तिवाद, जातिवाद और सम्प्रदायवाद के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया तो अतिशयोक्ति न होगी। बड़ी बात यह कि नरेन्द्र मोदी स्वतंत्र भारत में एक ऐसे नेता हैं, जिनकी लोकप्रियता प्रधानमंत्री बनने के बाद बढ़ती ही जा रही है, जबकि श्रीमती इन्दिरा गांधी गरीबी हटाओं के नारे के चलते 1971 में भारी बहुमत से लोकसभा का चुनाव जीती, बावजूद इसके ही सत्ता में आने के दो वर्षो के अंदर ही कुशासन और महंगाई को लेकर जनता सड़कों पर उतरने लगी और 1975 में उन्हें अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए देश में आपातकाल लगाना पड़ा। बाबजूद 1977 के लोकसभा चुनाव में पूरे उत्तरी भारत में उनका सफाया हो गया और वह स्वतः रायबरेली से चुनाव हार गईं थीं। पर मोदी का समर्थन दिनों दिन बढ़ता जा रहा है, जिसके चलते विरोधी अभी से 2019 के लिए महागठबंधन बनाने की जुगत बनाते लगे है। उमर अब्दुला जैसे राजनीतिज्ञों का मानता है, अब विरोधी दलों को 2019 को बारे में नहीं बल्कि 2014 के बारे में सोचना चाहिए। यानी कि 2019 में मोदी को एक तरह से वाक ओवर मिलना है। आखिर में ऐसा सोचा जाना लाजिमी है, जब उड़ीसा जैसे राज्य में भाजपा बीजद के मुकाबले में आकर कांग्रेस को किनारे कर चुकी है।
ऐसा भी कहा जा सकता है कि उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड जैसे भाजपा के पक्ष में एकतरफा परिणाम तीन राज्यों में क्यों नहीं आए? उल्टे पंजाब में उसका गठबंधन बुरी तरह हारा। लेकिन पंजाब में मोदी नहीं हारे, बल्कि वहां अकाली हारे, जिसकी आशंका बहुत पहले से थी। भाजपा नेतृत्व को इस बात की आशंका बहुत पहले से थी, लेकिन पुराना सहयोगी और दूसरे कई कारणों से भाजपा ने अकालियों का साथ नहीं छोड़ा। जहां तक दूसरो कारण हैं, उनमे एक तो पंजाब का पाकिस्तान की सीमावर्ती राज्य होना, पंजाब में अलगाववाद की पृष्ठभूमि इत्यादि है। निःसंदेह राष्ट्रहित में भाजपा पंजाब में अकालियों के साथ रही आई, वरना उनसे अलग होकर वह बेहतर स्थिति में होती। जहां तक सवाल गोवा का है, वहां भाजपा की भले सीटें कम हों, पर मत-प्रतिशत उसका ज्यादा है। इसी तरह से मणिपुर में भी भाजपा की सीटें भले कांग्रेस से कम हों पर वहां भी मत-प्रतिशत कांग्रेस से ज्यादा है। यह भी आश्चर्यजनक तथ्य है कि मणिपुर में भाजपा के पक्ष में मतदान बीस प्रतिशत से ज्यादा ब में आता है कि कांग्रेस मुन्नी जैसे बदनाम हो गई है, तभी तो अन्य दल उससे हाथ मिलाना उचित नहीं समझते।
अलबत्ता इन चुनावों का एक बड़ा निहितार्थ यह है कि अब राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा का कोई समस्या नहीं होगी। आनेवाले दिनों में राज्यसभा का समीकरण बदल जायेगा और यू.पी.ए. की जगह एन.डी.ए. का बहुमत हो सकेगा। जिसके चलते मोदी अपनी-अपनी नीतियों को सुगमता और तेज गति से लागू कर सकते हैं। यह बात गौर करने की है कि उत्तरप्रदेश में मतदाताओं एक वर्ग ने भाजपा के पक्ष में इसलिए मतदान किया, ताकि राज्यसभा में उसको बहुमत मिल सके और उसके रास्ते की सभी बाधाएॅ दूर हो सकें।
कुल मिलाकर नरेन्द्र मोदी आज भारतीय राजनीति में ऐसे महानायक बन चुके हैं, जिनका रास्ता कोई नहीं रोक सकता। ऐसा माना जाना चाहिए कि राष्ट्र के प्रति समर्पण और गरीबों के प्रति प्रतिबद्धता के चलते वह राष्ट्र को विकास की दिशा में तेज गति से ले जा सकेंगे। सबसे बड़ी बात यह कि जो लोग मतदाताओं को नसमझ समझते हैं, अब उनकी आॅखें खुल जानी चाहिए। ‘‘यह पब्लिक है….सब जानती है।’’
अब भाजपा को आत्म विश्वास की अति से बचना चाहिए। और सीधे लोक हितैषी कामों को शीघ्रातिशीघ्र करना चाहिए। अति आत्मविश्वास भी घातक होता है।