मनुष्य के जन्म व मृत्यु पर विचार

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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
यह समस्त जड़ चेतन रूपी संसार सादि व सान्त अर्थात् उत्पत्ति धर्मा और प्रलय को प्राप्त होने वाला है। सभी जड़ पदार्थ सत, रज व तम गुणों वाली मूल प्रकृति के विकार हैं। मनुष्य व प्राणियों के शरीरों पर विचार करें तो हम पाते हैं कि इसमें हमारे व अन्यों के शरीर तो पंच भौतिक पदार्थों से बने हुए जड़ हैं परन्तु इसमें एक अल्प परिमाण व अल्पज्ञ चेतन तत्व भी है जिसे आत्मा कहते हैं। यह आत्मा सत्य व चेतन स्वरूप वाला होने सहित शाश्वत व सनातन तत्व भी है। यह नित्य, अनादि, अनुत्पन्न व अविनाशी है। यह आत्मा मूल प्रकृति के कणों से भी सूक्ष्म है। इतना सूक्ष्म कि अस्तित्व होने पर भी हमें अपना व दूसरे मनुष्यों का आत्मा उनके शरीर में विद्यमान होने पर भी दिखाई नहीं देता। जब किसी मनुष्य या इतर प्राणी की मृत्यु होती है, हम उस मृतक के पास भी होते हैं, तब भी आत्मा व सूक्ष्म शरीर के बाहर निकलते हुए आत्मा व सूक्ष्म शरीर के निकलने का अनुभव तो होता है परन्तु आत्मा का आकार व रूप दिखाई नहीं देता। दिखाई न देने का एक मात्र कारण आत्मा का सूक्ष्म होना और हमारी आंखों की देखने की जो सामथ्र्य है, उसका न्यून होना है।

संसार में अनेक सूक्ष्म पदार्थ हैं जो होते हुए भी आंखों से दिखाई नहीं देते। हमारे रक्त में भी अनेक प्रकार के कण व किटाणु होते हैं जो आंखों से तो दिखाई नहीं देते परन्तु सूक्ष्मदर्शी यन्त्र माइक्रोस्कोप से दिखाई देते हैं। अतः किसी सूक्ष्म पदार्थ का दिखाई न देना उसके न होने का प्रमाण नहीं होता। यह बात आत्मा पर भी लागू होती है, परमात्मा पर भी और सूक्ष्म भौतिक पदार्थ परमाणु, अणु व आकाश तथा गैसों के अणुओं पर भी। अतः यह ज्ञात होता है कि हमारे शरीर में आत्मा है जिसकी उपस्थिति का अनुभव हम करते हैं। यह आत्मा ही दूसरों को कहता है कि मैं सुख पूर्वक हूं। कभी शारीरिक कष्ट होता है तो यह रोता, चिल्लाता या कराहता है और बताता है कि वह दुःखी है। यह स्थिति हमारे साथ व अन्य सभी के साथ होती है। यह सुख व दुःख शरीर व उसके अवयवों में तो अवश्य होता है परन्तु इसका अनुभव हमारी आत्मा व अन्य सभी शरीरधारियों की आत्माओं को होता है। यह बातें हमने इस लिये लिखी हैं कि जिससे यह पता चले कि हमारा शरीर से भिन्न स्वतन्त्र अस्तित्व है। अन्य अनेक प्रकार से भी इसे जाना जा सकता है। जीवित शरीर में मनुष्य चलता फिरता, हंसता व बोलता है परन्तु मरने पर शरीर जिस स्थिति में होता है वैसा ही बना रहता है व कठोर हो जाता है। जो हाथ पैर हिलते डुलते व लचीले होते हैं वह एैंठ जाते हैं। इसका प्रत्यक्ष कारण शरीर में विद्यमान चेतन सत्ता का शरीर से निकल जाना ही होता है। उस मनुष्य का, जिसकी मृत्यु होती है, देखना, बोलना, उठना-बैठना व हिलना-डुलना सब बन्द हो जाता है। अतः यह ज्ञात होता है कि हमारा शरीर व जीवात्मा दोनों एक नहीं अपितु पृथक हैं। शरीर में विद्यमान आत्मा के आंखों से दिखाई न देने पर भी इसका अस्तित्व होता है जो जन्म से पूर्व माता के गर्भ व भ्रूण रूपी शरीर में आता है और जन्म व प्रसव के बाद बाल, युवा व वृद्ध अवस्था में आकर व शरीर की अवस्था में वृद्धि को प्राप्त होकर मृत्यु के समय शरीर छोड़कर चला जाता है। 

मृत्यु का सम्बन्ध कर्म-फल व्यवस्था व शारीरिक व्यवस्था से भी है। जन्म लेने के बाद शरीर में वृद्धि का नियम है। एक सीमा व अवधि तक मनुष्य व अन्य पशु पक्षी आदि के शरीरों में वृद्धि होती है और युवा अवस्था आ जाती है। युवावस्था में ठहराव रहने के बाद फिर वृद्धावस्था का आरम्भ होता है और किसी की देर व किसी की जल्दी, स्वास्थ्य के नियमों के अनुसार रोग आदि की स्थिति बनती है और मृत्यु हो जाती है। इसके साथ ही मनुष्य इस संसार में अपने पूर्वजन्मों के कर्मों की पूंजी जिसे प्रारब्ध कहते हैं, साथ लेकर आता है। इसका भोग भी मनुष्य की जीवात्मा को करना होता है। प्रारब्ध को शुभाशुभ कर्मों का खाता कह सकते हैं। इस जन्म में पिछले शुभ व अशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुःख भोगने से वह खर्च होता है और इस जन्म के नये कर्मों से उसमें परिर्वतन व न्यूनाधिक होता है। अब जो कर्मों का नया खाता मृत्यु से पूर्व तक होता है उसके भोग के लिए नये शरीर की आवश्यकता होती है। मनुष्य के पूर्वजन्म की मृत्यु के समय तक जो बचे हुए अच्छे व बुरे कर्म होते हैं वह भावी जीवन व जन्म के कारण व आधार बनते हैं। भावी जन्म में प्रारब्ध के कर्मों का भोग होने से यह न्यूनाधिक परिवर्तित होते हैं। इस प्रकार जन्म व मृत्यु का चक्र चलता रहता है और मनुष्य जन्म के बाद मृत्यु व मृत्यु के बाद जन्म को प्राप्त होता रहता है। अतः जन्म व मृत्यु का आधार कर्म-फल सिद्धान्त है और मृत्यु का कारण प्रायः उसके कर्म, शारीरिक रोग व दुर्घटना आदि होते हैं।  

क्या मनुष्य मृत्यु   से बच सकता है? इसका उत्तर है कि वह कुछ स्थितियों में बच सकता है और कुछ में नहीं। इस रूप में कि वह मृत्यु का ज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन का अधिकांश समय ईश्वरोपासना व परोपकार आदि कार्यों में लगाये। उसे शरीर रक्षा के सभी नियमों का निष्ठापूर्वक पालन करना होता है। इसमें यदि कभी कोई गलती हो जाये तो जीवन सकट में पड़ जाता है और मृत्यु भी हो जाती है। जब मनुष्य यह जान लेता है कि मृत्यु आत्मा का नाश नहीं है अपितु कर्मानुसार जीव योनि का परिवर्तन व जीवात्मा की उन्नति व अवनति का होना है, तो वह मनुष्य इस रहस्य को जानकर बुरे कर्मो का त्याग कर सद्कर्मों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। ऋषि दयानन्द, पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि इसके कुछ उदाहरण हैं जिन्होंने ईश्वरोपासना व परोपकार आदि के कार्य करते हुए ही अपना जीवन निर्वाह किया। वेदादि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, विद्वानों व आप्त पुरुषों के उपदेश, योग साधना वा ईश्वरोपासना एवं परोपकार आदि सद्कर्मों से मनुष्य की आत्मा की उन्नति होने सहित ईश्वर का साक्षात्कार व निभ्र्रान्त ज्ञान होता है जिसका परिणाम धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष होता है। ईश्वरोपासना व वेदों के ज्ञान से मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है अर्थात् वह मृत्यु के भय से डरता या भयभीत नहीं होता और मृत्यु के क्षण वह ईश्वर के मुख्य व निज नाम ओ३म् व गायत्री मन्त्र आदि का उच्चारण, जप, चिन्तन व ईश्वर का ध्यान करते हुए बिना भय व कष्ट के मृत्यु का आलिंगन करता है। महर्षि दयानन्द जी के जीवन का उदाहरण हमारे सामने हैं। उन्होंने अपनी इच्छानुसार ईश्वर की उपासना करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था और अन्तिम श्वांस लेने से पूर्व ईश्वर को कहा ‘हे ईश्वर तुने अच्छी लीला की, अहा तेरी यही इच्छा है, तेरी इच्छा पूर्ण हों।’ 

सभी मनुष्यों को विचार करना चाहिये कि हम पूर्वजन्म में अनेकानेक प्रचलित योनियों में से किसी एक योनि में जन्में थे व पले बड़े हुए थे। वहां प्रकृति के नियमों के अनुसार हमारी मृत्यु हुई थी जिसके बाद हमारे कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार परमात्मा ने न्यायपूर्वक हमें इस मनुष्य योनि में हमें जन्म व माता-पिता आदि परिस्थितियां प्रदान की। इस जीवन में भी कुछ काल बाद हमारी मृत्यु होनी है। हम इस शरीर को छोड़कर चले जायेंगे और ईश्वर हमें पुनः हमारे कर्मानुसार मनुष्य योनि व अन्य किसी योनि में जन्म देंगे। मनुष्य का आत्मा सत्य, चित्त, अल्पज्ञ, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, ससीम, एकदेशी, अजर, अभय, पवित्र, जन्म-मरण धर्मा, ज्ञान प्राप्ति व कर्मों को करने वाला है। हमारा पूर्व व इस जन्म में शुभाशुभ कर्मो का जो संचय होगा, उसके अनुसार हमारा भावी जन्म होना सुनिश्चित है। इस विषय का ईश्वर को ही ज्ञान होता है। हम अल्पज्ञ वा अल्पशक्ति वाले होने से सभी बातों को ठीक ठीक जान नहीं सकते। हम जितना जान सकते हैं उतना जानने का प्रयत्न करें और शेष बातों को ईश्वर की न्यायावस्था में छोड़कर निश्चिन्त हों, यही हमारे लिए उचित है। हम यह स्मरण रखे कि कुछ काल बाद हमारी मृत्यु होनी है और उसके बाद हमारे इस जन्म के अच्छे बुरे कर्म ही हमारी भावी जन्म योनि वा सुख-दुःखों का कारण होंगे। यह जानकर हमें किसी भी बुरे काम को कदापि नहीं करना चाहिये। यदि मोहग्रस्त होकर करेंगे तो ब्याज व सूद सहित उसका भुगतान भी हम कर्ताओं को ही करना ही होगा। पशु-पक्षी आदि योनियों व चिकित्सालयों में दुःिखयों को देखकर हमें अपने जीवन के कर्तव्यों का निर्धारण करना चाहिये और वेद, उपनिषद, दर्शन तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की सहायता लेनी चाहिये। 

मृत्यु और परलोक विषय पर प्रसिद्ध वैदिक विद्वान महात्मा नारायण स्वामी जी ने एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। एक पुस्तक सत्य प्रकाशन, मथुरा के कीर्तिशेष आचार्य महात्मा प्रेमभिक्षु जी ने भी लिखी है जो वहां से उपलब्ध होती है। इसका भी अध्ययन करने से मृत्यु व परलोक विषयक अनेक रहस्यों का ज्ञान होता है। ऐसा करके मनुष्य अपने आचरण और व्यवहार को सुधार सकता है। यही इन पुस्तकों को लिखने का इन महान ऋषि भक्त आचार्यों का उद्देश्य रहा है। 

आजकल देश में कोरोना रोग वा महामारी फैली हुई है। इससे सभी आयु वर्ग के लोग असमय ही मृत्यु का ग्रास बन रहें हैं। हमें सत्यधर्म वेदों का आचरण करते हुए न्याय व परोपकारपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिये। स्वास्थ्य व कोरोना रोग से रक्षा के सभी नियमों का अधिकाधिक पालन करना चाहिये और अपनी व अपने परिवारजनों की रक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिये। ऐसा करके हम स्वस्थ रह सकते हैं। यदि हम प्रतिदिन वैदिक विधि से आधा घण्टे से भी कम समय में सम्पन्न होने वाले दैनिक अग्निहोत्र को भी करें व करायें तो इससे भी हमें लाभ होगा। इससे हमारा घर व परिवार का वातावरण शुद्ध, सुगन्धित व पवित्र बनेगा जिसमें महामारी कोरोना के आने की सम्भावना कम व न के बराबर होगी। ईश्वर करें कि हम सब स्वस्थ बने रहें। हमारा यह जीवन ईश्वर की देन है और हमें इसे उसी को समर्पित करना है। ऐसा करके ही हमारी रक्षा व उत्तम गति हो सकती है। 

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