तीन दशक कम नहीं होते एक अभिशाप के साथ जीने के लिए

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आज 2 दिसंबर पर राष्‍ट्रीय प्रदूषण दिवस मनाया जा रहा है, ये एक सिर्फ तारीख  भर नहीं है, बल्‍कि आज तीन दशक पहले घटे उस मंजर की भयावहता है जो तीन  पीढ़ियां गुजरने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ रही। जी हां, भोपाल गैस त्रासदी के  बाद तीन तीन पीढ़ियां अपंगता के साथ साथ आज भी अपना अस्‍तित्‍व खोज रही  हैं। तीन दशक कम नहीं होते एक अभिशाप के साथ जीने के लिए या यूं कहें कि  जिंदा दिखते रहने के लिए।

जब जब भोपाल गैस त्रासदी की बात होगी तो सरकारी गैरजिम्‍मेदारी के साथ-साथ  समाजसेवी संगठनों की गालबजाऊ संस्कृति की भी बात होगी ही। क्‍योंकि राष्‍ट्रीय  व अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर इस त्रासदी को भुनाने के लिए तमाम समाजसेवी संगठन  वजूद में आ गए जिन्‍हें सिर्फ ”विचार विमर्श” करने के नाम पर भारी अनुदान  मिला और तमाम देशी-विदेशी चिंतक अपनी चिंता से इस ”त्रासदी” को भुनाने  लगे। इन्‍होंने गैस कांड के प्रभावित लोगों पर आई आंच को साल दर साल भुनाने,  और हर 2 दिसंबर को गोष्‍ठियां कर सत्‍तारूढ़ सरकार को गरियाने के अलावा कुछ  भी ऐसा नहीं किया जो प्रभावितों को सामान्‍य जीवन का अनुभव करा सके।

हर विषय को राजनीति और खांचों में बांट देने वाले हमारे देश की मौजूदा  स्‍थितियों में कम से कम अब तो लोगों को समझ लेना चाहिए कि अपनी लड़ाई  सदैव स्‍वयं ही लड़नी होती है। जो इस मुगालते में रहते हैं कि कोई कथित  सामाजिक संगठन उनका हित करेगा, वह अपना समय नष्‍ट करते हैं। तो यह  भ्रांति कम से कम अब उन्‍हें अपने दिमाग से निकाल देनी चाहिए क्‍योंकि इन  संगठनों के मुंह अनुदानों की हड्डी लगी हुई है। 

इस संदर्भ में सुभषितरत्नाकर का एक श्‍लोक मुझे बेहद सटीक जान पड़ रहा है …

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि  न मनोरथैः  |
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे  मृगाः ||

अर्थात् परिश्रम करने से ही सारे कार्य सिद्ध हो सकते हैं, केवल सोचने से नहीं।  जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुँह में हिरण कभी अपने आप प्रवेश नहीं करता।  कहने का आशय यह है कि शेर के मुँह में अपने आप ही शिकार नहीं आता, उसे  शिकार करने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। इस सुभाषित में उद्यमिता  के  महत्व को प्रतिपादित किया गया है…।

इसी तरह गैस त्रासदी की पीड़ित पीढ़ियों को सरकारों व एनजीओ की ओर देखना  छोड़ अब अपने लिए और अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए अपने ही स्‍तर पर  चौतरफा प्रयास करने होंगे। चाहे वो ज़मीन में घुसे प्रदूषणकारी कैमिकल्‍स को दूर  करने की बात हो, गलते शरीरों को संभालना हो या आर्थिक स्‍थिति की बात हो,  अब निर्भरता नहीं स्‍वयं का उद्यम करना होगा। देशी विधाओं के ज़रिए अपना  इलाज़ स्‍वयं करने के साथ साथ अपनी भावी पीढ़ियों को स्‍वयं उद्यम करके खड़ा  होने की ओर जाना होगा। बेचारगी को भुनाने वालों से सावधान रहना होगा।

आज तीन दशक बाद भी भोपाल गैस कांड पर प्रभावितों को समझना होगा कि जो  स्‍वयं अपनी सोच नहीं रखते अथवा अपने प्रयास नहीं करते, वे मोहरे तो बन  सकते हैं, स्‍वयंसिद्ध नहीं बन सकते। अपने अधिकार और  रहम के बीच जितना  फंसेंगे, उतना ही उबरने में देर लगेगी।

– अलकनंदा सिंह

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