दक्षिण भारत के शैवमताचार्य संतों में इन का नाम प्रमुख है। आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में ही देश के अध्यात्म को एक नयी दिशा दी। उसी कार्य को संत शिरोमणि संभदार ने अपनी 16 वर्ष की अल्पायु में ही आगे बढ़ाया। इन का जन्म तमिल नाडु में चिदंबरम के पास सिरकोज़ी नामक स्थान पर हुआ था। इन के पिता का नाम श्री शिवपादइरुदयार और माता का नाम भगवती अम्माल था। घर में एकमात्र शिशु होने के कारण इन की विशेष देखभाल होती थी।
कहते हैं एक दिन इन के पिता नन्हें बालक को उस की ज़िद्द के कारण मंदिर के सरोवर पर ले गए। बालक को किनारे पर बैठा कर पिता स्नान करने चले गए। अचानक बालक ने रोना शुरू कर दिया। पिता चूँकि स्नान कर रहे थे बालक का रुदन सुन नहीं पाये। बच्चे के रुदन को सुनकर शिव पार्वती आये . उन्होंने बालक को चुप किया और पार्वती ने उसे अपने स्तन से दूधपिलाया। दूध पीकर बच्चे ने रोना बंद कर दिया। इस के पश्चात वे वहां से चले गए। स्नान करने के बाद पिता जब लौटकर आये तो उंहोने बालक के मुंह पर और होंठो’पर दूध के छींटेदेखे। उन्हें आश्चर्य हुआ कि बालक को दूध किस ने पिलाया। बच्चे ने पिता की जिज्ञासा समाप्त करने के लिए एक पदसुनाया । बालक की आयु उस समय मात्र तीन वर्ष थी। इस पद में उन्होंने भगवान शिव और पार्वती की महिमा का वर्णनहै। आचार्य शंकर ने सौंदर्य लहरी मैं इन को ‘द्रविड़ शिशु’ के नाम से वर्णित किया है।
एक बार इन के पिता इन्हें पास के मंदिर में लेकर गए। बालक संभदार उस समय ईश्वर भक्ति गान में लीन थे और दोनों हाथो से तालियां बजा रहे थे। अचानक इन के हाथों में एक स्वर्ण मंजीरा आकर गिरा। इस पर लिखा था ‘ओमनमःशिवायः। इस घटना के बाद बालक संभदार ने इसे प्रभु का प्रसाद मान कर अपने पद गान के लिए अपना लिया।
जब यह सात वर्ष के थे तो इन का उपनयन संस्कार हुआ। उस समय इन्होनें गायत्री मंत्र की अपेक्षा पञ्चाक्षरम् अर्थात ओमनमःशिवायः का वाचन किया। शैव मत के सभी प्रमुख संतों ने पञ्चाक्षरम् को आधार मान कर अपनी रचनाएँ की हैं। इसे वेदों का मूल मंत्र मान लिया गया है।
दक्षिण के शिव सांडों और कवियों की वाणी को दर्शन का स्थान प्राप्त है। इन भक्तों में नयनार भक्त हुए हैं जिनकी संख्या ६३ है। इन भक्तों की प्रतिमाएं दक्षिण भारत के सभी मंदिरों में स्थापित है। शैवाचार्यनाम्बी-अान्दार-नाम्बी ने शैव पदों का संकलन ग्यारह वॉल्यूम में किया है। इन के अनुसार ईश्वर प्राप्ति का साधन केवल प्रेम है। शास्त्रों का ज्ञान अथवा कर्मकांड आदि का स्थान गौण है। संभदार ने तमिलनाडु के सभी मंदिरों के दर्शन पांच पांच बार किये और पहली तीन तिरुमरई की रचना की।
एक बार तिरु नीलकंठ नाम का एक वीणा वादक संभदार से मिला और इन से अपनी भजन मंडली में शामिल होने का अनुरोध किया। कुछ समय में ही नीलकंठ एक अच्छे संगीतकार के रूप में प्रसिद्ध हो गया। कुछ लोगों ने उसे संभदार के समान संगीतकार और भजन गायक तक कह दिया। इस से नीलकंठ को असुविधा हुई। उस ने संभदार से एक ऐसा भजन गाने की प्रार्थना की जिसे वह अपने वीणा पर न बजा सके। संभदार ने राग नीलांबरी में एक भजनगाया। नीलकंठ उसे अपनी वीणा पर बजाने में असमर्थ रहा। क्रोध में वह अपना यन्त्र तोड़ने लगा। संभदार ने उसे रोका और समझाया की इस में उस का कोई दोष नहीं है वरन यन्त्र की भी कुछ सीमायें हैं। संभदार ने अपनी 16 वर्ष की अल्पायु में 16000 पदों की रचना की। इन में से अब केवल 3800 उपलब्ध हैं। इन का जीवनकाल सन 643 से 659 तक का था।
–बी.एन. गोयल
हार्दिक धन्यवाद
आ. श्री. गोयल साहब
दक्षिण भारत के सन्त का परिचय कराने वाला आपका आलेख जानकारीपूर्ण और आध्यात्मिक शक्तियों का भी परिचय कराता है।
अतः हृदयतल से धन्यवाद।