-विजय कुमार
ममता बनर्जी बंगाल में सत्ता पाने को इतनी आतुर हैं कि उन्होंने अपनी बुद्धि और विवेक खो दिया है। ज्ञानेश्वरी रेल दुर्घटना के आरोपी उमाकांत महतो और उससे पूर्व आंध्र के एक कुख्यात नक्सली आजाद की पुलिस मुठभेड़ में हुई मृत्यु पर भी वे प्रश्न उठा रही हैं। आश्चर्य तो यह है कि प्रणव मुखर्जी जैसा जिम्मेदार व्यक्ति भी उनकी हां में हां मिला रहा है।
ये दोनों क्रूर नक्सली चाहे जैसे मारे गये हों; वे मुठभेड़ में मरे हों या सुरक्षा बलों ने उन्हें पकड़कर पास से गोली मारी हो, यह हर दृष्टि से उचित है। हमारे शास्त्र हमें शठे शाठ्यम समाचरेत् (जैसे को तैसा) का पाठ पढ़ाते हैं। अर्थात दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार उचित है।
जो नक्सली, कम्युनिस्ट, माओवादी या मजहबी आतंकवादी निरपराध लोगों को निशाना बना रहे हैं, उन्हें मारने को हत्या नहीं, वध कहते हैं। कंस ने हजारों निरपराध ब्रजवासियों की हत्या की; पर श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया। रावण ने हजारों ऋषियों की हत्या की; पर श्रीराम ने उसका वध किया। हत्या सदा अनुचित है और वध सदा उचित। हत्यारे को दंड दिया जाता है, जबकि वध करने वाले को पुरस्कार; और वध के लिए साम, दाम, दंड, भेद जैसे सब तरीके भारतीय शास्त्रों ने उचित बताये हैं।
श्रीराम का जीवन यदि देखें, तो उन्होंने छिपकर बाली का वध किया। उन्होंने विभीषण के माध्यम से रावण के आंतरिक भेद जानकर फिर उसका वध किया। हनुमान ने अहिरावण को पाताल में जाकर मारा। क्योंकि रावण अधर्मी था; और अधर्मी को अधर्मपूर्वक मारना गलत नहीं है। महाभारत युद्ध में भी श्रीकृष्ण ने भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, जयद्रथ, दुर्योधन जैसे महारथियों को ऐसे ही छल से मरवाया; इसके बाद भी पूरा देश इन दोनों को अपराधी नहीं, भगवान मानता है।
इसलिए जिन वीर सुरक्षाकर्मियों ने आजाद, महतो या उन जैसे किसी भी आतंकी का वध किया हो, उन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिए। यदि शासन न करे, तो जनता उनका सम्मान करे। केवल आतंकी ही क्यों, उनके लिए साधन और समर्थक जुटाने वाले लेखक, पत्रकार, वकील, आतंकाधिकारवादी, साधुवेश आदि को भी यदि इसी तरह जहन्नुम पहुंचा दिया जाए, तो बहुत शीघ्र आतंकवाद की कमर टूट जाएगी।
अभिषेक जी कुछ दिन के लिए बाहर गया था अतः संपर्क टूटा रहा.
आपकी बात से लगा की आज दुनिया में जो चल रहा है वह कई लोगों के अभी ध्यान में नहीं आया है.
* ये कागजी करेंसी कभी भी बेकार हो सकती है. असली सम्पत्ती जल, जंगल और ज़मीन है.बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सारे संसार के इस असली धन पर कब्जा करने के लिए हर प्रकार के हथकंडे अपना रही हैं. भारत में भी वही चल रहा है. भारत की सभी सरकारें इन कंपनियों की एजेंट के रूप में काम कर रही हैं. बाँध, खदान उद्योग, माल के नाम पर बहुमूल्य ज़मीनें इन कपनियों को नाम मात्र के मूल्य पर दी जा रही है और वहाँ बसे लाखों निर्धनों को उजाड़ा जा रहा है.
– मुआवज़े भी बहुत कम मिल रहे हैं. हाईवे के मामले में कुछ अलग हुआ होगा पर इन मामलों में तो बड़ा अमानवीय व्यवहार हो रहा है. उनकी सहायता के लिए केवल समाजवादी / वाम पंथी लोग आगे आये हैं जिनकी निष्ठाएं देश के बाहर होने के अनेकों ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं.
– इन लाखों की दुर्दशा ने ही इन्हें मरने-मारने पर बाध्य कर दिया है. सरकार की तो नीति ही यही है की ये चुपचाप अपनी ज़मीनें छोड़ दें तो ठीक अन्यथा इन्हें माओवादी कह कर मार डालो. मतलब तो ज़मीन खाली करवाने से है.
– इन उजड़ने वालों की इस दुर्दशा का लाभ देश को तोड़ने वाली ताकतें उठा रही हैं और इन्हें हथियार उपलब्ध करवा रही हैं. ये भी हो सकता है की विदेशी कंपनियों और मिशनरियों के एजेंट भी इनको हथियार चलाने का प्रशिक्षण दे रहे हों. आज वाम पंथियों और मिशनरियों के हित सांझे हैं और वे अनेक मंचों पर मिल कर काम कर रहे हैं.
– हमारे देश के राष्ट्रवादी संगठन इनकी सहायता को क्यों कर आगे नहीं आये, ये चिंता की बात है. क्या वे आलसी, व निस्तेज हो गए हैं ? विदेशी कंपनियों के दबाव में हैं? कमसे-कम मुझे इस की कोई जानकारी नहीं. पर यह स्थिति दुखद है, चिंता जनक है.
भाई सहाब जी मैं अपकी एस बात से सहमत हुं कि जमीन से उखडने कि पीडा बहुत कष्ट कारी होती है,यधपि मेने एसको नही देखा पर अनेक किताबो में पढा है और अपने सिन्धि दोस्तो के बुजर्गों की आंखो मे महसुस भी किया है,किसि को उसके स्थान से कभी नहि हटाना चाहिये सही बात है,लेकिन सहाब अगर कल को पता चले की मेरे घर के निचे लोहे के अयस्क भरे पडॆ है तो मे जरुर हटुंगा,एससे ना केवल देश को फ़ायदा होगा बल्कि पहले मेरा ही फ़ायदा होगा,कुछ एस तरिके की ही बात हर जगह होती है,बस लोग बदल जाते है.
जब तक मेने केवल सुना था तब तक तो मै भी यही सोचता था जमीन माँ होती है अत: गरिब लोगो को उनसे नही हटाना चाहिये पर जब मेने एक नेशनल हाऎवए बनाने वाली कम्पनी मे साईट इन्जिनियर काम किया तब पता चला कि सरकार एसे लोगो को बहुत ज्यादा मुवावजा देती है जो उनकि जमीन की किमत से बहुत ज्यादा होता है,फ़िर भी पैसे की भुख नही मिटती,एसे लोगो मे से कुछ नेता टाईप के लोग गरिब लोगो को मुर्ख बना कर उनसे प्राईवेट कम्पनियो के कैम्पों पर आक्रमण करवाते है फ़िर ये कम्पनिया एसे लोगो को रंगदारी कहो या हफ़्ता कहो या कुछ ओर देती है,छोटॆ छोटॆ ठेके इन लोगो को मिलना शरू हो जाते है कुछ पैसा हर दल के नेताओ के पास ,कुछ पत्रकारो के पास,कुछ पुलिस वालो के पास,कुछ इन्जिनियरो के पास व कुछ पैसा जो एसक भाडा फ़ोड करने कि कोशिश करता है उन लोगो के पास पहुच जाता है,जब पैसा कम्पनि बाटेगि तो जाहिर है खुद भी कुछ कमायेगी सो क्वालिटि गिरा देती है लेकिन फ़िर भी एतना काम तो हो ही जाता है कि जनता को बहुत ज्यादा नुकसान ना हो.
अब प्रश्न ये है कि कैसे इस चीज का समाधान हो??क्या पुल बनाना,सडक बनाना.बांध बनाना,खनन आदि कर्य बन्द कर दिये जाये??तो ये नक्सलि हि बोलेंगे कि सरकार ने विकास नही किया.
ये बात सत्य है कि सरकार का आर्थिक नजरिया बिल्कुल बकवास है पर हम उसमे भी रास्ता खोज कर एसी सुविधा कर सकते है कि जो गरिब विस्थापित हो रहे है उनके हितो का संरक्षण हो{जिसका पहले से ही प्रावधान है नियमो में जो मेने खुद ने पढे थे},सम्स्या कहा उत्तप्न्न होती है जहा लोगो कि अत्यधिक लालच उन्हे सरकार के खिलाफ़ हिन्सा और अराजक्ता फ़ैलाने को मजबुर करवा देता है,हमें समझना पडेगा कि सब लोग सब जगह एक जैसे नही होते हमे पहचान होगा कि कौन वास्त्व मे प्रातडित हो रहा है और कोन गरिबि के नाम पर नक्सल वाद को फ़ैला रहा है………………….
अभिषेक पुरोहित जी में आप से सिद्धांत रूप से सहमत होते हुए निवेदन करता हूँ की
-आप ने उजाड़े जा रहे रहे लाखों निर्धनों की असलियत को नहीं देखा-समझा है.उनकी पीड़ा, बर्बादी व मुसीबतों को अनुभव नहीं किया है.
– दंड तथा वध के भागीदार वे हैं जो इन बेचारों को उजाड़ने का काम कर रहे हैं.
– दुसरे अपराधी व देश के शत्रु वे हैं जो इन भोले-भाले निर्धनों की दुर्दशा का उपयोग करके देश को तोड़ने का काम कर रहे हैं.
-तीसरे अपराधी मैं, आप और हम सब भी हैं जिन्होंने इन भूख व बदहाली से बिलखते लोगों को कभी सहारा नहीं दिया, केवल अपने आरामदेह बिस्तर, कुर्सी पर बैठ कर इन्हें देश के दुश्मन घोषित करने का काम किया. ये संतुलित , सही व यथार्थ सोच तो नहीं है.
– देश के दुश्मनों के घात में किसे ऐतराज़ होगा? केवल किसी मुर्ख या देश द्रोही को. पर ये सब देश द्रोही नहीं, हालात से मजबूर लोग हैं. मुट्ठी भर लोग हैं जो विदेशी ताकतों के एजेंट हैंऔर देश को तोड़ने में इनका इस्तेमाल कर रहे हैं.
-शत्रु ताकतों के अपनी इस कुचाल में सफल होने का एक कारण देशभक्त संगठनों और हम सब का नकारापन भी है. अतः मेरा पुनः निवेदन है कि वस्तु स्थिती समझकर ही अपना मत बनाएं.
– यदि मैं अप सरीखे संवेदनशील देशभक्त को अपनी बात नहीं समझा पाया तो इसका अर्थ होगा कि अन्य भी अनेक हैं जिन्हें समझाने में मैं असमर्थ रहा हूँ.
– आपकी अगली प्रतिक्रया, सम्मति की प्रतीक्षा रहेगी.
आप सभी से मेरा निवेदन है कि आप लोग “चाणक्य” को पढे,कैसे उसने कुटिलता पुर्वक सभी राष्ट्र विघातियो का नाश करवाया और फ़िर राज्य त्याग दिया.दुख कि बात है कपुर सहाब जैसे विध्वान भी नक्सल्वादियो के छ्दम प्रचार मे ये समझ बैथे है कि गरिबि के कारण नक्सल बनते है.हमारे भगवान ने बहुत ही क्रुरता पुर्वक हिरण्य्कशय्प,रावण,कंस,दुर्योधन,सह्स्त्र्बाहु आधि का नाश किया,अहिंसा-हिसां कुच नही होति है,जहा जैसा धर्म के लिये उचित लगे वैसा करना चाहिये,अरे कृष्ण ने तो भीष्म का बध करने के लिये अप्नि प्रतिग्या तक तोड दि,जबकि भिश्म प्रतिग्या से चिपके अधर्म का संरकक्षण करते रहे,हमें चिंतन करना पडेगा कि कहि हम भीष्म तो नही बन रहे है???यह कतेयि नही भुलना चाहिये कि धर्म स्थापना के समय बलराम जी तिर्थ यात्रा करने चल दिये थे,कही हम तो ध्र्म की आड ,मे बलराम तो नही बन रहे है??दुस्टो का विनाश करना ही धर्म है,अन्याय को समाप्त करना ही न्याय है,गरिब लोग नक्सलि नही बनते बल्कि नक्सल उन्हे गरिब रखते है ताकि उनके दिमाग मे विवेक नहि जागे,कोयी गरिब है तो वो अपनी कमी के कारण गरिब है ना कि दुसरो के कारण,और गरिब होने से किसि को ये लाइसेन्स नही मिल जाता कि हत्याये करते फ़िरो……………………………..
“शठे शाठ्यम समाचरेत्”
शीर्षक विषय भ्रम करने वाला है।बिनती: आगे ध्यान रखे।
समयाभाव में हर लेख पढना संभव नहीं।
डॉ. राजेश कपूर जी ने महत् प्रश्न छेडा है। उसीको अलग शब्दों में स्पष्टता के लिए दोहराता हूं।
(१) निर्धनों को उजाडा जा रहा है। और भूतकालमें भी उजाडा गया है।
(२) जिस अन्याय के बदले, वे आज आतंक का सहारा ले रहे हैं।
(३) उस आतंक के अंतर्गत वे रेल दुर्घटनाएं, और अन्य हिंसक कार्यवाहियां भी कर रहे हैं।
(४) ऐसे में विजयकुमार जी का उपाय, जो उन्हें किसी भी प्रकार से और किसीभी तरिकेसे, “वध” कर के खतम करने का सुझाव देते हैं, वह स्पष्टरूपसे न्यायी और निर्विवाद भी नहीं है।
(क) प्रश्न तो यह भी है, कि “वध” और “हत्त्या” कैसे सुनिश्चित करें?
(ख) वैसे ऐतिहासिक “वध” भी तो हम, जब घटनाएं इतिहास में जमा होने के बाद ही, आज हम कह सकते हैं।(घटने के बाद कहना सरल है)
(ग) हमारे पास कोई राम, कृष्ण, की कक्षाका जिसे सब स्वीकार करें, ऐसा व्यक्तित्व भी तो नहीं है।भूतकालके गांधी, सुभाष भी उनके समय में निर्विवादित और सर्व स्वीकृत थे ही, ऐसा कहना भी सही नहीं है ।
(घ)अर्थात: आज की स्थिति जैसी स्थिति, इस धरतीपर नयी नहीं है।
(च)इसका कोई सरल समाधान दिखायी नहीं देता। यह संघर्ष ऐसे ही चलता रहेगा।जिस प्राथमिक स्थिति मे इसे कमसे कम कीमत देकर सुलझाया जा सकता था, वह समय वापस नहीं आ सकता।
(छ)दूसरी अवस्थामें भी कुछ हानि झेलकर इसे सुलझाया जा सकता था। वह अवसर भी गंवाया गया है।
(ज) अब चरमावस्थापर समस्या पहुंच चुकी है।अब हमें हानि बिना का कोई विशेष रास्ता दिखाइ नहीं देता।
(झ) बस एक रास्ता दिखता है। वह निम्न है।
(ट) दोनो पक्षों को मान्य, और पक्ष रहित सोच वाला,कोई तो होगा।
अगर कोई ऐसा व्यक्तित्व है, जो पीडितों का विश्वास जीत सकता है, जो न्यायी है, जैसे आदर्श सन्यासी होते हैं। तो वह मध्यस्थी करके इस समस्या को सुलझानेमें सहायता करें, तो कुछ समस्या हल हो। जनता को न्याय मिले। और शांति प्रशापित हो।
स्मरण होता है। दीनदयालजी : न्याय का अतिरिक्त (Byproduct) परिणाम ही शांति ( या सुसंवाद)Harmony है।जनता हमारी है, उसे न्याय दिलाने में योगदान चाहिए।सुझाव दे।
मुझे, भौमिक जानकारी कुछ कम ही है। औरोंकी टिप्पणीयोंकी अपेक्षा रखता हूं।
सहगल जी देश का कोई भी संवेदनशील निवासी सरकार के नाटक देख कर कुछ वैसा ही कहेगा या चाहेगा जो आपने कहा है. पर वास्तविकता तो यह है कि इससे अव्यवस्था फ़ैल जायेगी. कौन फैसला लेगा कि किसका वध सही है और किसका नहीं ?
श्री राम व श्री कृष्ण के काल में परिस्थितियां अलग थीं. तब देव और दानवी शक्तियों की पहचान में कोई भ्रम या मतभेद नहीं था. दोनों अवतारों का व्यक्तित्व निर्विवाद था. उनका फैसला सात्विक शक्तियों के लिए अंतिम व निर्णायक होता था. आज एक भी ऐसा निर्विवाद व्यक्तित्व देश में नज़र नहीं आरहा. सुभाष, गांधी तक ये शक्तिशाली व्यक्तित्व होते आये जिनका अब अकाल है. देश की दशा में सुधार न होने का एक बड़ा कारण किसी सशक्त व्यक्तित्व का अभाव भी तो है, जिसके पीछे सारी देशभक्त ताकतें एकजुट होकर चल सकें. ऐसे किसी महामानव का आह्वान करना होगा. तब ही वध या वर्धापन का सही फैसला हो सकेगा.
– आप द्वारा उठाये विषय में एक महत्वपूर्ण पक्ष ओझल रह गया है. जिन निर्धनों को सरकार द्वारा उनके घर, ज़मीन से उजाड़ा जा रहा है, वे मजबूरी में आतंक का रास्ता अपनाने के सिवा और क्या कर सकते हैं ? किसने उनको जाकर सहारा दिया है ? अमेरिका समर्थित साम्प्रदायिक शक्तियां और विदेशी वामपंथी ताकतें उनके इन हालात का फायदा उठा रही हैं तो इसमें उन बेचारों का क्या दोष है ? कोई तो हो जो उन्हें संभाले, उन्हें मार्ग दिखाए. उन्हें आतंकवाद के प्रेरकों के हवाले करने के अपराधी हम लोग नहीं हैं क्या ?उनकी पीड़ा को समझने वाला कोई भी तो नहीं. वे तो सरकार और विदेशियों के स्वार्थों का शिकार बन कर अकाल मृत्यु की गोद में समाने को अभिशप्त होकर रह गए हैं. इस वास्तविकता को भी तो देखा जाना चाहिए.
ये सही है कि इस अन्याय के नाम पर देश की सुरक्षा सेनाओं व नागरिकों की ह्त्या को सही नहीं माना जा सकता, पर यह भी तो सही नहीं कि हम पीढ़ियों से अपनी भूमी पर रह रहे निर्धन समाज को विकास के नाम पर बर्बाद करके रख दें. इस मानवीय पक्ष को भी ध्यान में रखकर नैक्स्लाईटर समस्या को देखना चाहिए.
शठे शाठ्यम समाचरेत् – by – विजय कुमार
आपने लिख दिया है कि आतंकी के समर्थक वकील आदि को भी वध करके यदि जहन्नुम पहुंचा दिया जाए, तो बहुत शीघ्र आतंकवाद की कमर टूट जाएगी। याद करें, 26/11 आतंकी को भी सरकारी खर्च पर वकील प्रदान करवाया गया था.
आपने शायद आवेश में आकर यह लिख दिया है.
हमारा साधारण विधी शास्त्र (jurisprudence) साम, दाम, दंड, भेद द्वारा किया वध कभी भी उचित नहीं स्वीकार करता है. No doubt, there is a right of self – defence.
आप हत्या और वध में अंतर बना रहें हैं. यहाँ याद रखें कि Every body is presumed to be innocent till convicted.